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लोककथा : ह्यूंद की खातिर

पुरानी बात है जब दो वक्त की रोटी जुटाना ही बड़ी बात थी. उन्नत बीज और सही जानकारी न होने की बजह से खेतों में कठिन परीश्रम करने के बावजूद भी पैदावार कम ही होती. परन्तु लोग अभाव में रहते हुये भी सुख-सन्तोष से रहते थे. जो मिल जाता उसे ईश्वर का दिया हुआ मानकर गुजारा करते और ईश्वर का आभार व्यक्त करना कभी न भूलते. प्रकृति भी तब इतनी निष्ठुर नहीं थी, लोगों का गुजारा येन-केन-प्रकारेण हो जाता था. सब मिल-जुल कर रहते थे, न कहीं द्वेष, न कहीं कोई ईर्ष्या. (Folklore Hyund ki Khatir)

एक गांव में एक दम्पति रहता था. गांव भरा-पूरा था. पति के कुटुम्ब में वैसे तो काफी लोग थे, परन्तु उसका कोई सगा भाई नहीं था, यहाँ तक कि पिताजी के भी कोई भाई न थे. इसलिये उसके पास पैतृक सम्पति बहुत थी, पर करने वाला अकेला था जिससे वह उन खेतों की सम्भाल ही भली-भांति नहीं कर पाता था. उसका मकान गांव से कुछ हटकर था. व्यवहार में वह पहाड़ के आम किसानों की भांति ही था, न ज्यादा चालाक और न निपट गंवार ही. हाँ, लेकिन पत्नी बहुत सीधी थी— बिल्कुल गाय समान.

पहाड़ों में गरमी का मौसम जहाँ आनन्ददायक होता है वहीं ठिठुरन भरी सर्दियां अत्यन्त कष्टकारी भी होती है. विशेषकर उन अभागे लोगों के लिये जो अभावग्रस्त होते हैं. बताते हैं मनुष्य ही क्या पशु-पंछी भी सर्दियों के लिये भोजन आदि जमा करके रखते हैं. रोजमर्रा की जिन्दगी से जो थोड़ा बहुत बच जाता वह उसे सर्दियों के लिये बचाना न भूलता, चाहे कुछ भी हो. जलावन लकड़ी, गरम कपड़े, कम्बल, घी आदि आदि. पति जो भी बचाता उस बचत में अपनी पत्नी को अवश्य शरीक करता. यहाँ तक कि बचा हुआ वह उसे सौंपते हुये अवश्य कहता कि ‘ले संभाल ले इसे. यह ह्यूंद (सर्दियों)के लिये है.’ पत्नी की दिक्कत यह थी कि उसका मायका दूर मुल्क होने के कारण वह पति द्वारा बोले गये काफी शब्दों के अर्थ नहीं समझ पाती थी और जहाँ पर न समझती वहाँ पर पूछने की बजाय वह मुस्कराकर सिर हिला देती. इधर पति इस बात से अन्जान था. ‘ह्यूंद’ शब्द का अर्थ भी पत्नी को समझ में नहीं आया पर उसने इसे पति पर प्रकट नहीं होने दिया. मन ही मन यह मान बैठी कि ह्यूंद उसके पति का कोई ‘खास व्यक्ति’ ही होगा, जिसके लिये वह छांट-छांटकर अच्छा सामान इकठ्ठा कर रहे हैं.

प्रत्येक समाज में अच्छे व बुरे दोनों प्रकार के लोग होते हैं. पति की अनभिज्ञता और पत्नी के भोलेपन को गांव का एक शातिर व्यक्ति जान गया था. वह गांव का क्या, परिवार का ही था. हकीकत में वह जितना चालाक व शातिर था सामने उतना ही मीठा बना रहता. यकीन ही नहीं होता था कि वह किसी को धोखा दे सकता है. ये पति पत्नी तो इतने सरल व निष्कपट थे कि अपने गांव वालों के बारे में कुछ भी इस प्रकार सोचना कल्पना से बाहर था.

एक दिन पति बैल खरीदने दूर-दराज  के गांव गया और उसे वहीं रुकना पड़ गया. गांव का यह व्यक्ति तो इस मौके की तलाश में कई दिनों से था. अन्धेरा होने पर पत्नी के पास एक अजनबी आया, जो कि दरअसल गांव के इस धूर्त का ही दोस्त था. उसने पति को पुकारा, परन्तु वह घर पर न होने के कारण उसकी पत्नी बाहर आयी और पूछा कि ‘कौन है?’ आगुन्तक ने बताया कि ‘मैं ह्यूंद हूँ और तुम्हारे पति ने मेरा घी आदि सामान देना है. मैं उससे ही मिलने आया था.’ पत्नी ने एक पल सोचा कि पति आने तक इसे घर में रोकूं. तभी बात साफ हो सकेगी. परन्तु फिर सोचा कि घर में तो वह अकेली है, पराये मर्द को घर पर कैसे रोक सकती है. यह झूठ भी तो नहीं बोल रहा होगा क्योंकि उसके पति ने तो बताया ही था कि सब सामान ह्यूंद के लिये ही है. यह सोचकर उसने भीतर सम्भाला हुआ सारा सामान एक-एक कर ह्यूंद को सौंप दिया. दूसरे दिन पति जब घर लौटा तो सारी बातें सुनकर माथा पीटता रह गया. लोककथा : दुबली का भूत

देहरादून में रहने वाले शूरवीर रावत मूल रूप से प्रतापनगर, टिहरी गढ़वाल के हैं. शूरवीर की आधा दर्जन से ज्यादा किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं. विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लगातार छपते रहते हैं.

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Sudhir Kumar

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