जाने कैसा भाग बदा था उस बहू का जो ऐसी दुष्ट सास मिली. बहू जितनी सीधी-सादी, निश्छल व सरल स्वभाव की थी सास उतनी ही कुटिल, कपटी. किसी रोज दिन-रात काम में खटने वाली बहू का मन हुआ कि मायके हो आए, बहुत दिन जो हो गए थे घर वालों को भेंटे. एक दिन उसने हिम्मत जुटाकर सास से मायके जाने की बात क्या लगायी वह ऐसे चिटकी जैसे तपते तवे पर पानी की बूंदें. बहू ने बहुत हाथ-पाँव जोड़े और मिन्नतें की. आखिर सास ने कहा — ठीक है, जितने दिन के लिए जाना है उतने दिन का काम निपटा जा. धान कूट जा, गेहूँ पीस जा. चूल्हे की लकड़ी, घास और पीने के पानी का प्रबंध कर जा. सातों गौशालाओं का गोबर साफ कर और चार दिन के लिए मायके हो आ. (Folk Tale of Uttarakhand)
सास ने काज निपटाकर मायके जाने की अनुमति तो बहू को दे दी लेकिन ओखल का मूसल छिपा दिया, घास काटने कि दरांती और पूले बाँधने की रस्सी छिपा दी. पानी भरने का फौला भी छिपा दिया. कुल मिलाकर सारे जतन कर डाले कि न काम हो न ब्वारी मायके जा पाए.
न्यौली चिड़िया से जुड़ी कुमाऊनी लोककथा
बहू सात सूप धान लेकर ओखल पर गयी तो देखती है मूसल तो है ही नहीं. चिड़ियों को उस पर दया आ गयी तो सारा झुण्ड चोंच से धान के छिलके अलग करने में लग गया. दयालु चिड़ियों ने जब सारा चावल अलग कर दिया तो बहू खुशी से चावल लेकर घर चल दी. सास ने चावलों को नापा तो एक दाना कम था. उसने बहू को वह दाना लाने को कहा. बहू चिड़ियों के झुण्ड के पास गयी तो दाना किसी बूढ़ी चिड़िया की चोंच में अटका हुआ मिला, उसे लेकर वह वापस आ गयी.
बहू ने बहुत लगन से सातों गौशालाओं का गोबर साफ किया और मवेशियों के लिए घास काटने चल पड़ी. जंगल के चूहों ने घास काटने में उसकी खूब मदद की और साँपों ने पुले बाँध दिए और वह बारी-बारी इन पूलों को सारती रही. अभी उसे कई काम निपटने थे लेकिन सूरज पश्चिम की ओर ढलने को चल पड़ा था. बहू ने सूरज से हाथ जोड़कर विनती की— अगर न्याय-अन्याय का कुछ विचार है तो मेरे मायके पहुँचने तक ढलना मत. वह मेहनत और लगन से काम निपटाती जाती और बीच में सूरज से ‘दिन दीदी रुको, अभी रुक जाओ’ कहती जाती. घास गोठ में रखकर वह लकड़ियाँ लेने चल पड़ी. जंगल के भालू ने उसे लकड़ियाँ तोड़कर दे दीं.
इस तरह पशुओं, पंछियों की मदद से उसने सारे काम निपटाए और मायके के लिए चल पड़ी.
सूरज के डूबने का बखत हो चला था लेकिन वह ‘दिन दीदी रुको-रुको, अभी रुक जाओ’ का स्वर सुनता और बहू को देखता हुआ रुका रहता. इस तरह उजाले में ही वह अपने मायके पहुँच गयी. मायके पहुँचने की खुशी में वह अपने वचन से बंधे सूर्य को मुक्त करना भूल ही गयी. सूर्य बहुत देर तक इन्तजार करता रहा और क्रोधित हो श्राप देकर ढल गया.
सूर्य के श्राप से बहू बेचारी अपने मायके में ही मृत्यु को प्राप्त हुई. मरने के बाद अगले जनम में उसे पक्षी की योनि प्राप्त हुई. यही पाखी आज भी ‘दिन दीदी रुको-रुको’ कहती डालियों पर फुदकती रहती है.
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दुनिया की सबसे प्रभावशाली चीज : कुमाऊनी लोककथा
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What a beautiful story....so nice....
बहुत ही सुंदर वे वेदनशील कथा है मेने भी इस चिड़िया को गाते सुना है
Its true, पहले जमाने की सास बहुत कठौर होती थी वे अपनी बहुओ को बहुत काम करती थी और मायके के नाम पर तो मानो आग लग जाती थी, मैं भी एक उत्तराखंडी हूँ इस तरह की सच्ची घटनाएं व कथाएं बहुत सुनी है अपनी माँ और दादी की जुबानी मेरी दादी जी की सास भी बहुत कठोर थी लेकिन मेरी दादी बहुत अच्छी थी भगवान उन्हें सदैव फूलो की टोकरी में ही रखे 2020 में हमे छोड़ वैकुंठ को प्रस्थान कर गयी, i missed you दादी दादा जी