बहुत समय पहले की बात है, किसी गांव में एक धनी साहूकार रहता था. उसके चार बेटे थे, चारों का विवाह हो चुका था. चारों बेटे और तीनों बड़ी बहुएं तो साधारण बुद्धि के थे, लेकिन छोटी बहू दुर्गा बड़ी चतुर और बुद्धिमान थी. साहूकार को अपनी छोटी बहू पर बड़ा भरोसा था. (Folk Tale Chatur Bahu)
एक बार प्रदेश का राजा साहूकार से किसी बात पर नाराज़ हो गया. उसने साहूकार व उसके परिवार को देश निकाले की सज़ा दे दी और आदेश दिया कि देश छोड़ते समय वे अपने घर से कुछ भी लेकर नहीं जा सकते सिवाय अपने शरीर पर पहने हुए वस्त्र और आभूषण के. साहूकार ऐसी आज्ञा सुनकर बहुत दुखी हुआ पर राजा की आज्ञा मानने के अलावा उसके पास और कोई चारा भी नहीं था. चलते समय छोटी बहू ने राजा के सिपाहियों से पूछा कि क्या वह रास्ते में खाने के लिए कुछ रोटियां बना सकती है? राजा के सिपाहियों को इस पर कोई ऐतराज़ नहीं था. दुर्गा ने जब रोटियों के लिए आटा गूंधा तब आटे में चार बहुमूल्य माणिक छिपा दिए. फिर उस आटे की रोटियां बनाईं और राजा के सिपाहियों को दिखाईं. सिपाहियों ने रोटियां ले जाने दीं. दुर्गा ने रोटियां एक पोटली में बांध लीं. साहूकार का परिवार अपनी यात्रा पर निकल गया.
सारा दिन चलने के बाद वे लोग एक नगर में पहुंचे . अब तक रात हो गई थी. साहूकार के परिवार ने एक धर्मशाला में डेरा डाला और खा-पीकर सो गए. सुबह साहूकार ने कहा, “जो कुछ गहने सबके शरीर पर हैं, वह सब दे दो जिससे उन्हें बेचकर कुछ खाने-पीने का सामान और पहनने के लिए कपड़े आदि ख़रीदे जाएं.” “पिताजी आपको गहने बेचने की कोई आवश्यकता नहीं है. यह माणिक लीजिए और इसे बेचकर खाने-पीने का सामान भी ख़रीदिए और व्यापार भी शुरू करिए.” दुर्गा ने एक माणिक साहूकार को देते हुए कहा. साहूकार ने माणिक ले लिया और बाज़ार की तरफ़ चल दिया. ‘यह बहुत बहुमूल्य माणिक है, इसका मूल्य तो कोई बड़ा जौहरी ही दे सकेगा.’ उसने सोचा. वह माणिक लेकर सबसे बड़े जौहरी की दुकान पर पहुंचा और उसे माणिक दिखाया. माणिक देखते ही जौहरी की आंखों में चमक आ गई. ‘यह माणिक किसी तरह इससे हासिल करना होगा.’ उसने सोचा.
वह जौहरी असल में एक चोर था. उसने साहूकार की ख़ूब आवभगत की और बोला, “यह माणिक बहुत बहुमूल्य है. इसके लिए मुझे घर से सोने की मुहरें मंगानी होंगी,” और नौकर को घर भेज दिया मुहरें लाने के लिए. अब वह साहूकार को दूसरे कमरे में ले गया. वहां एक कुर्सी रखी थी. कुर्सी कच्चे सूत से बुनी थी और उस पर एक पतली गद्दी रखी थी. कुर्सी के नीचे एक तहख़ाना था. “आप, जब तक नौकर आता है, इस कुर्सी पर बैठकर आराम कीजिए. मैं आपके लिए शर्बत पानी भिजवाता हूं.” जौहरी साहूकार से बोला. साहूकार कुर्सी पर बैठ गया. उसके बोझ से कच्चे सूत के धागे टूट गए और वह तहख़ाने में गिर गया. जौहरी ने झटपट तहख़ाने के मुंह पर एक बड़ा पत्थर रख दिया और बाहर निकल आया. माणिक उसने अपनी तिजोरी में रख दिया.
उधर धर्मशाला में बैठा साहूकार का परिवार उसकी प्रतीक्षा करता रहा. जब सुबह तक साहूकार नहीं लौटा तो दुर्गा को चिंता हुई . उसने दूसरा माणिक निकालकर अपने पति को दिया और बोली, “आप यह माणिक लेकर जाइए. यदि पिताजी से आपकी भेंट हो तो यह माणिक वापस ले आइएगा, वरना इस माणिक को बेचकर खाने-पीने का सामान ले लीजिएगा.” दुर्गा का पति माणिक लेकर बाज़ार की तरफ़ चल दिया. वह भी उसी जौहरी की दुकान पर पहुंचा और उसके साथ भी जौहरी ने वही किया जो उसके पिता के साथ किया था. अब बाप-बेटे दोनों तहख़ाने में क़ैद हो गए. जब दुर्गा का पति भी सुबह तक नहीं लौटा तो दुर्गा को बहुत चिंता हुई “अब मुझे ख़ुद ही पता लगाना होगा कि इस नगर में मेरे ससुर और पति कहां खो गए.” उसने अपने शरीर पर पहने हुए आभूषण लिए और बाज़ार की ओर चल दी. वहां पहुंचकर आभूषण बेचकर उसने खाने-पीने का सामान और सबके पहनने के कपड़े ख़रीदे. अपने लिए उसने सिपाही की पोशाक ख़रीदी. धर्मशाला पहुंचकर उसने खाने-पीने का सामान और कपड़े परिवारवालों को दिए और यह कहकर कि वह ससुर और पति की खोज में जा रही है, वहां से चल दी.
उसने सिपाही का भेष बनाया और सीधे राजदरबार में पहुंची. उसने हाथ जोड़कर राजा से विनती की कि उसे अपने सिपाहियों में रख लें. राजा ने जब उस सुंदर युवक को देखा तो सहर्ष उसे सिपाही की नौकरी दे दी. उसे महल के चारों ओर पहरा देने का काम मिला. कुछ दिनों से महल की पशुशाला में रोज़ रात को एक राक्षस आकर उत्पात मचाता था. वह रोज़ एक पशु को मारकर खा जाता था. उसके डर के मारे कोई सिपाही उधर पहरा देने के लिए राज़ी नहीं होता था. दुर्गा ने राजा से पशुशाला में पहरा देने की आज्ञा मांगी. पहले तो राजा ने इतनी कम उम्र के नौजवान को मौत के मुंह में धकेलने से मना कर दिया लेकिन दुर्गा के बहुत कहने पर आज्ञा दे दी.
जंगल के रास्ते पर एक बहुत बड़ा और घना पेड़ था. जब रात हुई तो दुर्गा उस पेड़ पर चढ़कर बैठ गई. उसने छुरी से अपने बाएं हाथ की उंगली में घाव कर दिया जिससे कि घाव के दर्द से उसे नींद न आए. फिर पेड़ पर बैठकर पहरा देने लगी. आधी रात के बाद उसे जंगल की तरफ़ से आहट सुनाई दी. उसने देखा कि जंगल से निकलकर एक बड़ा सा भैंसा सींग उठाए महल की चार दीवारी की तरफ़ दौड़ा चला आ रहा है. वह समझ गई कि यही राक्षस है. जैसे ही वह भैंसा पेड़ के नीचे आया, दुर्गा दोनों हाथों में तलवार लेकर उसके ऊपर कूद गई और तलवार से उसकी गर्दन काट गिराई. मरते ही राक्षस अपने असली रूप में आ गया. दूसरे दिन जब राजा को यह समाचार मिला तो वह दुर्गा से बहुत प्रसन्न हुआ. “तुमने राक्षस को बड़ी बहादुरी से मारा है. जो चाहे इनाम मांग लो,” वह बोला. “महाराज यदि आप प्रसन्न हैं तो मुझे नगर की रक्षा का भार दे दें और मुझे यह स्वतंत्रता दें कि जब चोर को धर लूँ तो उसे जो चाहे दंड दूं.” राजा को इस नौजवान की बहादुरी और समझदारी पर पूरा भरोसा था. उन्होंने दुर्गा को नगर का कोतवाल बना दिया.
अब दुर्गा अपने पति और ससुर की खोज में निकली. ‘मेरे ससुर बहुत योग्य व्यापारी थे. वे उस बहुमूल्य माणिक को लेकर ज़रूर शहर के सबसे बड़े जौहरी के पास गए होंगे.’ उसने सोचा. ‘मैं भी सबसे पहले वहीं जाती हूं. मुझे पूरा विश्वास है कि जौहरी को ज़रूर मेरे पति व ससुर के बारे में पता होगा.’ दुर्गा जौहरी की दुकान पर पहुंची, जौहरी ने नगर कोतवाल को अपनी दुकान पर देखा तो झटपट उसकी ख़ातिरदारी में लग गया. “आप हमारी दुकान पर पधारे, अहो भाग्य! मैं आपकी क्या सेवा करूं?” उसने हाथ जोड़कर पूछा. “हमारी राजकुमारी का शीघ्र विवाह होने वाला है और महाराज अपनी बेटी के लिए एक बहुत सुंदर माणिक जड़ा घर बनवाना चाहते हैं. आप मुझे बढ़िया से बढ़िया माणिक दिखलाइए.” दुर्गा, जो कोतवाल के भेष में थी, बोली. जौहरी ने उसे अनेक माणिक दिखाए पर दुर्गा को कुछ पसंद नहीं आया. “ये सब आप क्या दिखा रहे हैं. कोई ऐसा बहुमूल्य माणिक दिखाइए जो राजकुमारी के पद के अनुरूप हो.” दुर्गा बोली.
अब जौहरी ने तिजोरी खोली और उसके अंदर से वही माणिक निकाला जो उसने साहूकार से धोखे से हासिल किया था. उस माणिक को देखते ही दुर्गा पहचान गई, यह वही माणिक है जो उसके ससुर लेकर बाज़ार गए थे. “सिपाहियो पकड़ लो इसे, यह कोई जौहरी नहीं बल्कि एक बड़ा चोर है.” दुर्गा ने आज्ञा दी. “जल्दी बताओ जिस साहूकार से तुमने यह माणिक छीना है. उसे कहां रखा है?” “मैं किसी साहूकार को नहीं जानता और यह माणिक मेरा है.” जौहरी बोला. “ठीक है, अगर तुम सच नहीं बोलते तो मैं तुम्हारा सिर अभी धड़ से अलग करता हूं. मुझे महाराज ने पूरी छूट दी है. अपराधी को जो चाहे दंड दूं.” इतना कहकर दुर्गा ने तलवार निकाल ली. अब जौहरी घबराया. ‘लगता है कोतवाल को सब पता है.’ उसने सोचा. वह दुकान के बाहर भागने लगा. सिपाहियों ने उसे पकड़ लिया और रस्सी से बांध दिया.
दुर्गा दुकान की तलाशी लेने लगी. दूसरे कमरे में उसे बड़ा सा पत्थर दिखाई दिया. उसने सिपाहियों से पत्थर हटाने के लिए कहा. पत्थर हटाया गया. तहख़ाने में साहूकार व उसका बेटा अधमरी हालत में पड़े थे. दुर्गा सबको लेकर दरबार में पहुंची और राजा को सब कुछ बताया. “मेरे नगर का सबसे बड़ा जौहरी चोर है!” राजा के क्रोध का ठिकाना नहीं था. उसने फ़ौरन उसे कारागार में डलवा दिया. राजा अपने इस युवक कोतवाल की वीरता और बुद्धिमत्ता से बहुत प्रभावित हुआ. इस वीर युवक को तो मेरा दामाद होना चाहिए. उसने अपनी पुत्री के विवाह का प्रस्ताव दुर्गा के सामने रखा. “महाराज मैं ऐसा नहीं कर सकता. मुझे क्षमा करें.” उसके बाद दुर्गा ने अपना सिपाही का भेष उतारा और अपने असली रूप में आ गई. फिर हाथ जोड़कर राजा के पैरों में गिरकर उसे बताया कि किस तरह उसने सिपाही का भेष अपने ससुर और पति का पता लगाने के लिए धारण किया था. राजा उसकी बुद्धिमत्ता पर चमत्कृत रह गया. उसने ना केवल दुर्गा को क्षमा कर दिया बल्कि उसके ससुर को नगर में व्यापार करने की स्वतंत्रता भी दी.
यह लोक कथा हिन्दी कहानी वेबसाइट से साभार ली गयी है.
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