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प्रथम विश्वयुद्ध के अनुभवों पर उत्तराखण्ड के अज्ञात सैनिक का रचा लोकगीत

आज से 102 साल पहले, साल 1918 के 11वें महीने का 11वां दिन और समय सुबह के ठीक 11 बजे. दुनिया ने चैन की साँस ली थी जब उसे पता चला कि पिछले चार साल से चला आ रहा प्रथम विश्वयुद्ध समाप्त हो गया है. भारतीय भी इस महायुद्ध में ब्रिटेन की ओर से शामिल  रहे. विश्व के सभी प्रमुख देशों ने इस महायुद्ध के सौ साल पूरे होने के अवसर पर महत्वपूर्ण दस्तावेज़ों के आधार पर अपने सैनिकों और अन्य योगदान करने वाले नागरिकों का आत्मीयता और विनम्रता से  स्मरण किया है. भारत की बात करें तो इस युद्ध से जुड़े हमारे सैनिकों और श्रमिकों के अनुभवों को समझने-विश्लेषित करने के लिए हमारे पास बहुत कम लिखित सामग्री है. न तो सैनिकों की डायरियां है न संस्मरण. न ही इतिहास कथाएँ और न ही गीत-कविताएँ.
(Garhwali Folk Song Sath Samunder Par Ch Janu)

लोकभाषा गढ़वाली इस मामले में धनी है कि उसके खजाने में प्रथम विश्वयुद्ध के अनुभवों को लेकर किसी अज्ञात गढ़वाली सैनिक द्वारा रचा गया एक बहुत ही लोकप्रिय और करुण लोकगीत उपलब्ध है. इसी गीत के विश्लेषण के जरिए मैंने प्रथम विश्वयुद्ध में गढ़वाली सैनिकों के योगदान के प्रति अपनी कृतज्ञ श्रद्धांजलि अर्पित करने का प्रयास है.

प्रथम विश्व युद्ध हुए एक पूरी शताब्दी बीत गयी है. भारतीय सैनिकों ने इस महायुद्ध में ब्रिटेन की ओर से लड़ते हुए, दुनिया को अपने अद्भुत शौर्य का परिचय दिया. इसी महायुद्ध में ब्रिटिश सेना की ओर से गढ़वाली सैनिकों ने भी पूरे यूरोप को खासा प्रभावित किया. परिणामस्वरूप अत्यंत महत्वपूर्ण सर्वोच्च रणशौर्य के प्रतीक दो-दो विक्टोरिया क्रॉस, कड़ाकोट चमोली के दरवान सिंह नेगी और चंबा-टिहरी के गबर सिंह नेगी ने अर्जित किए. गौरतलब है कि प्रथम विश्वयुद्ध के समय गढ़वाल राइफल को 39 गढ़वाल राइफल के नाम से जाना जाता था. इस युद्ध में गढ़वाली सैनिकों के शौर्य और पराक्रम को देखते हुए ब्रिटिश सरकार ने ये नाम बदल कर 39 रॉयल गढ़वाल राइफल्स कर दिया था. आजादी के बाद रॉयल शब्द हटा दिया गया था.

प्रथम विश्वयुद्ध में गढ़वाल राइफल्स के लगभग 700 जवान शहीद हुए थे. जुलाई 1914 में प्रारम्भ यह विश्वयुद्ध नवम्बर 1918 में समाप्त हुआ था जिसमें दोनों पक्षों के लगभग एक करोड़ सैनिक शहीद हुए और 70 लाख सिविलियन भी मारे गए. शौर्यगाथा अपनी जगह, पर प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान गढ़वाली वीर सैनिकों की वे चुनौतियां और दर्द भरे अनुभव जो इतिहास और सैन्य दस्तावेजों में अपनी जगह नहीं बना पाए, गीतों के माध्यम से प्रकट हुए. प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान, जर्मनी-फ्रांस के लाम के लिए प्रस्थान करते गढ़वाली सैनिकों के कण्ठ से स्वतः स्फूर्त निकला, ऐसा ही एक लोकप्रिय लोकगीत है – सात समोदर पार च जाण ब्वे…
(Garhwali Folk Song Sath Samunder Par Ch Janu)

लोकगीत इसे इसलिए कहा जा रहा है क्योंकि इसके रचयिता सैनिक का नाम कहीं दर्ज़ नहीं है और इसलिए भी कि इसमें एकाधिक व्यक्तियों का योगदान स्पष्ट है. वरना इस महायुद्ध में हमारे सैनिकों की शौर्यगाथा के साथ उनकी रचनात्मक काव्यगाथा भी किसी सैनिक के व्यक्तिगत खाते में दर्ज़ होती. इस लोकप्रिय लोकगीत को चंद्र सिंह राही, नरेन्द्र सिंह नेगी समेत कई लोकगायकों ने अपने मधुर स्वर में गाया है. यह भी उल्लेखनीय है कि श्रीमती सरोज थपलियाल नाम की महिला इस गीत को द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान उनके पिता श्री महावीर सिंह बिष्ट द्वारा लिखा हुआ बताती हैं. मुझे लगता है कि ऐसा वे इस गीत के उनके पिता की डायरी में लिखे होने के आधार पर कहती हैं. फिर भी इस सम्बंध में अंतिम सत्य का अन्वेषण और सत्यापन होना अभी बाकी है.

गीत का नायक प्रथम विश्वयुद्ध का वो गढ़वाली सैनिक है जिसे जर्मन-फ्रांस के लाम की तैनाती का आदेश मिल गया है. सैनिक को पता चलता है कि ये लाम अपने देश में नहीं, पड़ोसी देश में भी नहीं बल्कि सात-समुद्र पार लड़ा जाना है. सात-समुद्र एक ऐसा मुहावरा है जो सभी कालों में और दुनिया की सभी सभ्यताओं में प्रचलित रहा. भारतीय वैदिक साहित्य में सप्त-सैंधव का वर्णन मिलता है, भले ही ये सिंधु और सरस्वती के जलप्रवाह वाले भूभाग को कहा जाता रहा हो. सिंधु नदी के नाम से ही आगे चलकर समुद्र का एक नाम सिंधु भी हुआ. रोमन साहित्य में सेवन सीज़ का वर्णन मिलता है तो अरब के लोग, चीन तक की यात्रा में सात समन्दरों से होकर जाने का जिक्र करते हैं. भारत से यूरोप की यात्रा के तत्कालीन संदर्भ में ये सात समुद्र हैं – अरब सागर, काला सागर, कैस्पियन सागर, एड्रियटिक सागर, फारस की खाड़ी, लाल सागर और भूमध्य सागर.

जाना समरभूमि में है और वो भी अनदेखी-अनजानी जगह अर्थात सात समुद्र पार तो नॉस्टेलजिक होना स्वाभाविक है. गीत का नायक भी हो रहा है. वह भावविह्वल होकर अपनी माँ से कहता है कि मुझे सात समुद्र पार लाम पर जाना है. सात भाइयों और सात बहुओं वाले हरे-भरे परिवार को छोड़कर कैसे जाउंगा मैं. कैसे इस सुंदर तिबारी वाले घर को छोड़ पाउंगा. कैसे दुधमुँहे बच्चे से विदा ले पाउंगा. यहाँ घर पर गाय ब्याही हुई है और भैंस ब्याने वाली है, सुंदर बैलों की जोड़ी है (पर मैं कहाँ से देखूंगा). पहाड़ियों के पार, स्वच्छ-सफेद रुई-सी हिमालय की चोटियां चमक रही हैं. प्रकृति, परिजन और पालतू पशुओं के साथ-साथ नायक घर की निर्जीव वस्तुओं यथा सात भाइयों की सात एक-सी थालियों के विछोह को भी शिद्दत से अनुभव कर रहा है.
(Garhwali Folk Song Sath Samunder Par Ch Janu)

कल्पना की जा सकती है कि ये थालियां कांसे की रही होंगी और जब धुलकर चौक की मुंडेरी पर रखी होती होंगी तो चमकती हुई, सूरज के सात घोड़ों-सी प्रतीत होती होंगी. गीत लोकगीत इसलिए भी बन गया है कि इसमें अलग-अलग समय में अलग-अलग लोगों ने कुछ न कुछ जोड़ा है या परिवर्तन किया है. थकूली की जगह धगूली और झगूली का प्रयोग भी किसी वर्ज़न में मिलता है. गीत की एक अंतरा में यह भी कहा गया है कि गाँव के सारे सिपाही तो लाम से लौट गए हैं बस हमारे अपने वाले ने जाने कहां मुंह छुपा लिया है. ऐसा लगता है कि युद्ध में वीरगति को प्राप्त या लापता किसी सैनिक के परिजनों ने ये अंतरा जोड़ी है.

गीत के भाव की पूर्ण अनुभूति के लिए न सिर्फ गढ़वाली भाषा का ज्ञान आवश्यक है बल्कि प्रथम विश्वयुद्ध की अवधि के गढ़वाल की भौगोलिक दुर्गमता और संसाधनों की सीमित उपलब्धता का ज्ञान होना भी जरूरी है. थोड़ा गहराई से देखें तो इस गीत की एक खासियत यह भी दिखती है कि नायक को भय युद्ध का नहीं है और न ही कर्तव्यपथ से विचलन का कोई खयाल उसके मन में आ रहा है. वो तो बस घर से बहुत दूर, सात समुद्र पार, जर्मन-फ्रांस के मोर्चे पर लाम के आदेश से नॉस्टेलजिक हो रहा है. गढ़वाली में कहें तो उसे ‘खुद‘ लग रही है, अपने घर-गाँव की.

सैनिकों के शौर्य और अनुशासन की कहानियों की आभा में उनकी भावुकता की ओर भले ही दृष्टि कम जाती हो पर ये भी सच है कि बहुत सारे करुण-मार्मिक गीत भी सैनिक कण्ठों से ही उपजे हैं. सैनिकों का कर्तव्यपथ सदैव ही तलवार की धार जैसा रहता है जिसके एक ओर देशरक्षा की प्रबल इच्छा होती है और दूसरी ओर पारिवारिक दायित्वों का कठिन निर्वाह का सतत अहसास. भावनाओं का ज्वार जब थमना कठिन हो जाता है तो अक्सर आँसुओं के माध्यम से प्रकट होता है या फिर करुण गीतों के.
(Garhwali Folk Song Sath Samunder Par Ch Janu)

इस गीत से मेरे अतिशय लगाव के पीछे एक घटना का भी हाथ है. लगभग 14-15 साल पुरानी बात है. रुद्रप्रयाग के समीप एक फौजी पूरी यूनिफॉर्म में जीएमओ की बस में सुबकते हुए चढ़ता है. परिजनों ने जैसे ही विदा देते हुए हाथ हिलाया, फौजी दहाड़ें मार कर औरतों की तरह रोने लगा. ये देखकर बस में बैठे पैसेंजर हँसने लगे. पर जैसे फौजी को ये कुछ न तो दिख रहा था और न सुनायी दे रहा था. वो लगभग आधे घंटे तक, बस की खिड़की से पीछे देखते हुए, एक ही गति और एक ही सुर में रोता रहा. बस में बैठे यात्रियों को कुछ ही मिनट बाद अपनी गलती का अहसास हो गया. और ऐसा हुआ कि फिर बस में फौजी के रुदन के अलावा पूरी तरह सन्नाटा छा गया. फिर किसी की उसे ढाढस बँधाने की भी हिम्मत नहीं हुई. फिर अगले आधे घंटे तक फौजी सुबकता रहा. दिमाग पर पूरा जोर लगाकर भी याद नहीं आता कि कभी किसी ग्रामीण नवब्याहता को भी ससुराल जाते हुए इतने करुण स्वर में, आँखों से बहती गंगा-जमुना के साथ रोते हुए सुना होगा.

रुद्रप्रयाग से रोना शुरू कर फौजी श्रीनगर पहुँच कर ही सामान्य हो पाया था. इस बीच सभी उसकी विषम पारिवारिक परिस्थितियों की कल्पना में खो-से गए थे. हो सकता है उसकी बीमार पत्नी को इस समय उसके साथ की सर्वाधिक जरूरत रही हो. हो सकता है वृद्ध माँ-बाप ने विदा देते हुए कहा हो कि बेटा इसी को अंतिम भेंट समझ लेना. अगली छुट्टी पर जब तू घर आएगा तो कौन जाने तुझे गले लगाने के लिए हम जिंदा भी रहेंगे या नहीं.

रुद्रप्रयाग-श्रीनगर की यात्रा के सहयात्री, यूनिफॉर्म वाले सैनिक के करुण रुदन ने मुझे बहुत गहरे झकझोरा था और बस की खिड़कियों के अलावा एक और खिड़की प्रदान की थी जिससे मैं विषम पारिवारिक परिस्थितियों के बावजूद लाम को प्रस्थान करते सैनिक की मनःस्थिति को साफ-साफ देख सकता था, कुछ हद तक अनुभूत भी कर सकता था. इस घटना के बाद जब-जब मैंने सात समोदर पार च जाण ब्वे गीत सुना तब-तब उस सैनिक का करुण रुदन करता चलचित्र मेरे मानस पटल पर घूमने लग जाता है. इसी चलचित्र के कारण इस गीत को फिर-फिर सुना, अलग-अलग आवाज़ में सुना. हर बार दर्द अपने सीने में महसूस किया. हर बार बदहाल घरेलू हालात के बावजूद लाम के लिए विदा लेते सैनिक के नॉस्टेलजिक वर्णन को अपने आसपास तलाश किया.

सात समोदर पार च जाण ब्वे, जाज मा जौंलू कि ना. ना जहाज में जाने की खुशी है और न विदेश की धरती देखने का कौतूहल. है तो बस अपने घर-परिवार-गाँव से बिछुड़ने का बेचैनी भरा अहसास और पुनर्मिलन की अनिश्चितता. इस गीत में सच में गागर में सागर भर दिया गया है. एक भी अनावश्यक शब्द नहीं, तुक मिलाने के लिए कोई निरर्थक पट भी नहीं. सब कुछ दिल की गहराइयों से निकला, स्वतः स्फूर्त.
(Garhwali Folk Song Sath Samunder Par Ch Janu)

2017 में फ्रांस में खुदाई के दौरान, प्रथम विश्वयुद्ध में भाग लेने वाले दो गढ़वाली सैनिकों की फ्रांस स्थित समाधि

प्रथम विश्वयुद्ध के सौ साल बाद साल 2017 में, फ्रांस में खुदाई के दौरान चार सैनिकों के अवशेष मिले थे जिनमें से दो के कंधों पर 39 नम्बर के बैज से उनके गढ़वाल राइफल से होने की पुष्टि हुई थी. ये अवशेष भी समय के साथ पंचतत्वों में विलीन हो जाएंगे पर हवा में हमेशा तैरती रहेगी, इस महायुद्ध में शहीद सैनिकों के शौर्य के साथ उनकी करुण कथा- सात समोदर पार च जाण ब्वे…

सात समोदर पार च जाऽऽण ब्वे जाज मा जौंलू कि ना
जिकुड़ी उदास ब्वे जिकुड़ी उदास
लाम मा जाण जरमन फ्रांस
कनुकैकि जौंलू मि जरमन फ्रांऽऽस ब्वे जाज मा जौंलू कि ना.
हंस भोरीक ब्वे औंद उमाळ
घौर मा मेरू दुध्याळ नौन्याळ
कनुकैकि छोड़लू दुध्याळ नौन्याऽऽळ ब्वे जाज मा जौंलू कि ना.
सात समोदर पार…

भैंसि बियांर ब्वे लैंदि च गौड़ी
घर मा च मेरि ब्वे बळदूंकि जोड़ी
कख बटि देखलू ईं बळदूंकि जोऽऽड़ी ब्वे जाज मा जौंलू कि ना.
सात समोदर पार…

रुआँ जसि फांटी ब्वे रुआँ जनि फांटी
डांड्यूंका पार ब्वे ह्यूंचुळि कांठी
कख बटि देखलू ह्यूंचुळि कांऽऽठी ब्वे जाज मा जौंलू कि ना.
सात समोदर पार…

सात भैयोंकि ब्वे सात बुआरी
गौंमा च मेरी सजिली तिबारी
आंख्यूंमा तैरली सजिली तिबाऽऽरी ब्वे जाज मा जौंलू कि ना.
सात समोदर पार…

गौंका सिपाही ब्वे घरबौड़ा ह्वेन
मेरोन ब्वे कख मुखड़ी लुकैन
जिकुड़ी मा मेरा कन घौ करि गैऽऽन ब्वे जाज मा जौंलू कि ना.
सात समोदर पार…

प्रथम विश्वयुद्ध में अद्वितीय पराक्रम का प्रदर्शन करने वाले अज्ञात वीर सेनानी द्वारा लिखा गया लोकप्रिय गढ़वाली लोकगीत. गीत का ये वर्ज़न नरेन्द्र सिंह नेगीजी द्वारा संकलित व स्वरबद्ध किया गया है.
(Garhwali Folk Song Sath Samunder Par Ch Janu)

1 अगस्त 1967 को जन्मे देवेश जोशी फिलहाल राजकीय इण्टरमीडिएट काॅलेज में प्रवक्ता हैं. उनकी प्रकाशित पुस्तकें है: जिंदा रहेंगी यात्राएँ (संपादन, पहाड़ नैनीताल से प्रकाशित), उत्तरांचल स्वप्निल पर्वत प्रदेश (संपादन, गोपेश्वर से प्रकाशित) और घुघती ना बास (लेख संग्रह विनसर देहरादून से प्रकाशित). उनके दो कविता संग्रह – घाम-बरखा-छैल, गाणि गिणी गीणि धरीं भी छपे हैं. वे एक दर्जन से अधिक विभागीय पत्रिकाओं में लेखन-सम्पादन और आकाशवाणी नजीबाबाद से गीत-कविता का प्रसारण कर चुके हैं. 

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