भाव राग ताल नाट्य अकादमी, पिथौरागढ़ द्वारा अपने यू ट्यूब चैनल से उत्तराखण्ड के लोक वाद्य कारीगरों के जीवन पर बनायीं गयी डॉक्यूमेंट्री फिल्म ‘लोक थात के प्रहरी’ को रिलीज किया गया है. भाव राग ताल अकादमी और इसके निर्देशक कैलाश कुमार उत्तराखण्ड की लोक कलाओं के संरक्षण-संवर्धन के लिए अपने सरोकारों के कारण जाने जाते हैं. (Folk instrumentalists of Uttarakhand)
उत्तराखण्ड की लोकसंस्कृति में लोक वाद्यों की एक समृद्ध परंपरा रही है. एक दौर में यहां हुड़का, ढोल-दमाऊ, डौर, हुड़की, सारंगी, दो तारा, एकतारा, मुरुली, जौंया मुरुली (अलगोजा), तुरही, रणसिंह, नागफणी, बिणाई, भौंकर आदि 2 दर्जन से ज्यादा वाद्ययंत्रों का इस्तेमाल किया जाता था. वक्त बीतने के साथ इनमें कई विलुप्त हो गए और शेष दुर्लभ.
इन वाद्ययंत्रों के साथ-साथ लोककला संस्कृति के कई रूप भी नष्ट होते चले गए. इसका एक प्रमुख कारण इन लोककलाकारों, शिल्पियों के खराब सामाजिक, आर्थिक हालात भी रहे. इनमें से अधिकांश उत्तराखण्ड की अनुसूचित जाति (शिल्पकार) से हुआ करते हैं. अपने पुरखों के बदतर हालातों को देखकर इनकी आने वाली पीढ़ियों ने इस काम से तौबा कर शहरों-कस्बों में मजदूरी कर लेना ज्यादा बेहतर समझा.
लोकसंस्कृति के इन वाहकों के एक हिस्से, लोक वाद्य शिल्पियों की छिपी हुई कहानी को सामने लाने की कोशिश करती है भाव राग ताल अकादमी की डॉक्यूमेंट्री ‘लोक थात के प्रहरी.’
एक छोटी सी कहानी में उत्तराखण्ड के ताल वाद्यों – हुड़का, दैन (नगाड़ा), डमर – को जनने वाले कारीगरों के श्रमसाध्य काम को बखूबी दिखाया गया है. इन लोक वाद्य कारीगरों को ये हुनर पीढ़ी-दर-पीढ़ी विरासत में मिलता है. डॉक्यूमेंट्री पिथौरागढ़ जिले के कुछ कारीगरों की कहानी कहते हुए इन वाद्य यंत्रों को बनाने की कठिन प्रक्रिया को भी समझाती चलती है. डॉक्यूमेंट्री के कथानक से गुजरते हुए हम इन कारीगरों के बदहाल और अमानवीय जीवन के साथ-साथ उत्तराखण्ड की लोकसंस्कृति की बदहाली को भी देख पाते हैं.
डॉक्यूमेंट्री देखकर दर्शक के सामने यह सवाल सहज ही उठ खड़ा होता है कि क्यों एक समाज के रूप में हम अपने लोक कलाकारों, शिल्पियों को सम्मानजनक जीवन भी नहीं दे पाए? क्या इस सबके पीछे कहीं हमारे खुद की लोककला-संस्कृति के लिए ख़त्म होते जा रहे सरोकार तो नहीं है?
डॉक्यूमेंट्री भाव राग ताल नाट्य एकेडमी, पिथौरागढ़ द्वारा केन्द्रीय संगीत नाटक अकादमी, दिल्ली के सहयोग से बनाया गया है. इसकी पटकथा लिखी है धीरज कुमार लोहिया ने और निर्देशन किया है रोहित कुमार यादव ने.
-सुधीर कुमार
Support Kafal Tree
.
काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री
काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें
लम्बी बीमारी के बाद हरिप्रिया गहतोड़ी का 75 वर्ष की आयु में निधन हो गया.…
इगास पर्व पर उपरोक्त गढ़वाली लोकगीत गाते हुए, भैलों खेलते, गोल-घेरे में घूमते हुए स्त्री और …
तस्वीरें बोलती हैं... तस्वीरें कुछ छिपाती नहीं, वे जैसी होती हैं वैसी ही दिखती हैं.…
उत्तराखंड, जिसे अक्सर "देवभूमि" के नाम से जाना जाता है, अपने पहाड़ी परिदृश्यों, घने जंगलों,…
शेरवुड कॉलेज, भारत में अंग्रेजों द्वारा स्थापित किए गए पहले आवासीय विद्यालयों में से एक…
कभी गौर से देखना, दीप पर्व के ज्योत्सनालोक में सबसे सुंदर तस्वीर रंगोली बनाती हुई एक…