रूग्ण पिताजी
रात नहीं कटती ? लम्बी यह बेहद लम्बी लगती है ?
इसी रात में दस-दस बारी मरना है जीना है
इसी रात में खोना-पाना-सोना-सीना है
जख्म इसी में फिर-फिर कितने खुलते जाने हैं
कभी मिले थे औचक जो सुख वे भी तो पाने हैं
पिता डरें मत, डरें नहीं, वरना मैं भी डर जाऊंगा
तीन दवाइयां, दो इंजेक्शन अभी मुझे लाने है
शव पिताजी
चार दिन की दाढ़ी बढ़ी हुई है
उस निष्प्राण चेहरे पर
कुछ देर में वह भी जल जाएगी
पता नहीं क्यों और किसने लगा दिये हैं
नथुनों पर रूई के फाहे
मेरा दम घुट रहा है
बर्फ की सिल्ली से बहते पानी से लतपथ है दरी
फर्श लथपथ है
मगर कमरा ठण्डा हो गया है
कर्मठ बंधु-बांधव तो बाहर लू में ही
आगे के सरंजाम में लगे हैं
मैं बैठा हूं या खड़ा हूं या सोच रहा हूं
या सोच नहीं रहा हूं
य र ल व श श व ल र य
ऐसी कठिन उलटबांसी जीवन और शव की
ख़त्म पिताजी
पिता आग थे कभी, धुआं थे कभी, कभी जल भी थे
कभी अंधेरे में रोती पछताती एक बिलारी
कभी नृसिंह कभी थे खाली शीशी एक दवा की
और कभी हंसते-हंसते बेदम हो पाता पागल
शीश पटकता पेड़ों पर, सुनसान पहाड़ी वन में
अभी आग हैं
अभी धुआं हैं
अभी खाक हैं
स्मृति-पिता
एक शून्य की परछाईं के भीतर
घूमता है एक और शून्य
पहिये की तरह
मगर कहीं न जाता हुआ
फिरकी के भीतर घूमती
एक और फिरकी
शैशव के किसी मेले की
धरती मिट्टी का ढेर नहीं है अबे गधे
किसने आख़िर ऐसा समाज रच डाला है
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कहने को तो वीरेन डंगवाल हिंदी के एम.ए.पीएच.डी और लोकप्रिय, बढ़िया प्राध्यापक थे, एक बड़े दैनिक के सम्पादक भी रहे, लेकिन इस सब से जो एक चश्मुट छद्म-गंभीर छवि उभरती है उससे वह अपने जीवन और कृतित्व में कोसों दूर थे. उनकी कविता की एक अद्भुत विशेषता यह है कि मंचीय मूर्ख हास्य-कवियों से नितांत अलग वह बिना सस्ती या फूहड़ हुए इतने ‘आधुनिक’ खिलंदड़ेपन, हास-परिहास,भाषायी क्रीड़ा और कौतुक से भरी हुई हैं कि प्रबुद्धतम श्रोताओं को दुहरा कर देती थी. इसमें भी वह हिंदी के लगभग एकमात्र कवि दिखाई देते हैं और लोकप्रियता तथा सार्थकता के बीच की दीवार तोड़ देते हैं.
– विष्णु खरे
वीरेन डंगवाल (1947-2015)
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