समाज

पहाड़ की यादों को कैद करने वाला पिताजी का कैमरा

जिस आदमी ने ताज़िंदगी कलाई पर घड़ी न पहनी हो, अपने खरीदे रेडियो-टीवी में खबर न सुनी हो उस आदमी के पास भी कोई गैजेट रहा हो, क्या ये कहीं से सम्भव लगता है. पर ऐसा था. पिताजी के पास अपना एक कैमरा था, मुझे खुद कभी विश्वास न आता पर एलबम में करीने से व्यवस्थित, उनकी खींची हुई, सैकड़ों ब्लैक एंड व्हाइट तस्वीरें गवाही में हमेशा खड़ी मिलती थी.
(Father’s Camera Memoir)

पिताजी के कैमरे के ही दम पर दादी और बड़े दादा की शक्लोसूरत की कल्पना करना संभव हुआ. उन्हीं के कैमरे ने बताया कि निर्माणाधीन गाँव का मकान कैसा दिखता था. एक लकड़ी के फट्टे वाला साइनबोर्ड लगाकर, 1960 में जब गोपेश्वर को जिला मुख्यालय घोषित किया गया तो वो भी पिताजी के कैमरे में कैद होकर ऐतिहासिक बन गया. वो तस्वीर भी कम महत्वपूर्ण नहीं जिसमें गोपीनाथ मंदिर के चारों ओर एक भी लिंटल-कंक्रीट वाला मकान नहीं दिखता.

गोपेश्वर को जिला मुख्यालय बनाए जाने की सूचना देता हुआ साइनबोर्ड.

रुद्रनाथ के रास्ते के बुग्यालों में, गुज्जरों के बीच तो उनको पहचानना भी कठिन था. 90 के दशक में, रुद्रनाथ की अनदेखे मार्ग से की गयी रोमांचक यात्रा में उनकी उन तस्वीरों ने बहुत हौसला बढ़ाया जिनमें रास्ता जैसी कोई चीज दिखायी ही नहीं देती थी. बस, घास के बीच अनुमान से पहाड़ी पर चढ़ना होता था. चमोली से, गढ़वाल के प्रथम जिला परिषद चेयरमैन आज़ाद जी को भी उन्होंने अपने कैमरे में कैद किया था तो उत्तराखण्ड के भूगोल से लुप्त हो चुके ऐतिहासिक बेलाकूची कस्बे की गहमागहमी को भी.

पिताजी ने अपने कैमरे से जो तस्वीरें खींची हैं उनमें दादाजी की वो बोलती तस्वीर मुझे सबसे अधिक पसंद है जिसमें वो चैक में पद्मासन मुद्रा में बैठे हैं और जिसकी बाद में किसी चित्रकार से वाटर कलर में रंगीन अनकृति बनवा ली गयी थी. पीठ पर कंडी लिए और कमर के पागड़े में दरांती-खूंसे घास लेने को निकलती दादी की तस्वीर भी कम मोहक नहीं है.

विडंबना ये कि पिताजी के कैमरे के बहुत सारे परिणामों को तो मैं देख सकता था पर नहीं देख सकता था तो बस उनके उस करामाती कैमरे को, जिसने मुझे इतिहास के कई किस्सों को तस्वीरों के जरिए बोल कर सुनाया था. वो कैमरा मेरे जन्म के दो-तीन साल के अन्तर्गत ही घर से बेघर हो गया होगा.
(Father’s Camera Memoir)

एक अद्भुत स्नेह हो गया था मुझे उस अनदेखे कैमरे से. आज भी है. निकॉन, कैनन और सोनी के कैमरों की मिल्कियत अलग-अलग समय पर रखने के बावजूद उस कैमरे के अवशेष को भी मैं आज मुँहमांगी क़ीमत पर खरीदने को तैयार हूँ पर ऐसा शायद ही सम्भव हो. पिताजी बताते थे कि वो कैमरा उन्होंने देहरादून स्थित किसी परिचित को रिपेयर करने के लिए दिया था जिसने फिर कभी न वो कैमरा वापस दिया न उसकी कोई खबर. देहरादून उस जमाने में भी इतना आगे था, यकीन नहीं होता.

उस कैमरे ने पिताजी के कई राज़ भी मुझ पर जाहिर किए. जैसे कि उनको ट्रैकिंग का बहुत शौक था. उन्होंने कभी सिगरेट का भी शौक फरमाया था. और ये भी कि कैमरों के मालिकों की तरह उनमें आत्ममुग्धता बहुत कम थी क्योंकि उनकी एलबम में उनके आत्मचित्र बहुत कम दिखायी देते हैं. ये भी ज़ाहिर था कि वो उनका सिर्फ़ कैमरा नहीं इश्क था, जुनून था.

घास लाने के लिए जाती हुई दादी. साथ में खड़ा व्यक्ति, पिताजी के कैमरे के कवर को कंधे में लटकाए हुए.

पिताजी का कैमरा हमारे घर का एक ऐसा सदस्य था, कदम-कदम पर जिसके किस्से थे. उसने हमें बहुत कुछ दिखाया पर वो खुद कभी नहीं दिखा. एक ऐसा कैमरा जो हमारे लिए स्वयं भी कैमरे के पीछे ही रहा. उसके कवर की जरूर कुछ तस्वीरें मिल जाती हैं जिसे कंधे में लटका कर बड़ी अदा से किसी ने तस्वीर खिंचवायी थी.
(Father’s Camera Memoir)

पिताजी के कैमरे के जमाने में रंगीन फोटोग्राफी का चलन नहीं था. नहीं तो अपने जन्म से पहले के दौर के रंग भी मेरे खज़ाने में होते. फिर भी मन की आँखों से उन श्वेत-श्याम तस्वीरों में, मैं कभी-कभी रंग भर लेता हूँ.

उस जमाने में भी तरह-तरह के लुभावने गैजेट्स चलन में थे पर सबके प्रति निर्लिप्त रह पिताजी एक साधारण कैमरे के जाल में कैसे फँस गए, ये हमेशा रहस्य ही रहेगा, मेरे लिए. उस कैमरे का अवशेष भी मेरे पास होता तो मैं उसे अपनी बैठक में सजा के जरूर रखता और एकांत के किन्हीं क्षणों में उससे बतियाता भी अवश्य. पूछता ये कि उसने अपने पीछे से झांकती आँखों में भी क्या कभी झांका था. क्लिक करती उन उंगलियों का स्पर्श, उसे कैसा लगता था. और उसके सीने को उघाड़ उसमें लोड होते या निकाले जाते कैमरा रोल की अनुभूतियों में क्या कुछ खास था.
(Father’s Camera Memoir)

तिबारी के सामने बैठे हुए बड़े दादा जी. यह तिबारी का निर्माण 1901 में पूरा हुआ था. उसी साल इसी तिबारी में बड़े दादा जी का जन्म हुआ था.

कैमरा एक प्रकाशीय युक्ति है जिसकी सहायता से कोई छवि अंकित की जा सकती है, बस इतने में ही विज्ञान कैमरे की परिभाषा की इतिश्री कर देता है. उसे क्या मालूम, किसी को कैमरे से इश्क़ भी हो सकता है जिसके नतीज़े बहुत खूबसूरत होते हैं. फोटोग्रैफी इज़ द स्टोरी आइ फेल टु पुट इनटु वर्ड्स, कहना है, 70 से अधिक विश्वस्तरीय पुरस्कार जीतने वाले प्रकृतिप्रेमी फोटोग्रैफर डेस्टिन स्पाक्र्स का. मैं पिताजी के कैमरे और फोटोग्रैफी में उन्हीं अनकही कहानियों को पढ़ने की कोशिश करता रहता हूँ.

वो कैमरा, पिताजी का पहला प्यार था. एक सच्चे आशिक़ की तरह उन्होंने फिर कभी जिंदगी में दूसरे कैमरे को हाथ नहीं लगाया. मुझे उस कैमरे में कैद न हो पाने का मलाल ताउम्र रहेगा.
(Father’s Camera Memoir)

1 अगस्त 1967 को जन्मे देवेश जोशी अंगरेजी में परास्नातक हैं. उनकी प्रकाशित पुस्तकें है: जिंदा रहेंगी यात्राएँ (संपादन, पहाड़ नैनीताल से प्रकाशित), उत्तरांचल स्वप्निल पर्वत प्रदेश (संपादन, गोपेश्वर से प्रकाशित) और घुघती ना बास (लेख संग्रह विनसर देहरादून से प्रकाशित). उनके दो कविता संग्रह – घाम-बरखा-छैल, गाणि गिणी गीणि धरीं भी छपे हैं. वे एक दर्जन से अधिक विभागीय पत्रिकाओं में लेखन-सम्पादन और आकाशवाणी नजीबाबाद से गीत-कविता का प्रसारण कर चुके हैं. फिलहाल राजकीय इण्टरमीडिएट काॅलेज में प्रवक्ता हैं.

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