थोथा देई उड़ाय-1
कल एक मित्र ने मुझे अमित्र कर दिया. ये कुट्टी हो जाने का बालिग संस्करण है. (Facebook Dramas and Anti Dramas)
सोशल मीडिया ने, मीडिया का तो जो किया हो, समाज का बड़ा उपकार किया है. अब मेल जोल, जान पहचान का वितान बढ़ गया है. पहले क्या था, अपनी जान-पहचान में आप कुछ लोगों को जानते थे, पर पहचानते नहीं थे. कुछ को पहचानते थे, पर जानते नहीं थे. बस इतना ही न. अब कई नए खाने कट गए हैं. जैसे, फलाने को हम जानते हैं, पहचानते हैं, पर मानते नहीं. जानते हैं, मानते हैं पर पहचानते नहीं. पहचानते हैं, मानते हैं पर जानते नहीं. ये तो हुए साधारण खाने. इनके सब सेक्शन भी कम मानीखेज नहीं हैं. अभी तक जानते थे, मानते थे, अब जानते नहीं. अभी तक पहचानते थे, जानते थे, अब न मानते हैं, न जानते और न ही पहचानते. बात थोड़ी लंबी हो गई. सिम्बियन फ़ोन के केंचुए वाले मैसेज की तरह. इसमें ‘अभी तक’ और ‘अब’ अव्यय नहीं भावना हैं. इसमें पोस्ट लाइक न करने से आहत भावना से मामले का श्रीगणेश होता है और ब्लॉकिंग से ट्रोलिंग तक किसी भी दिशा में जा सकता है. (Facebook Dramas and Anti Dramas)
मेरी दिक्कत अमित्र होने में नहीं थी. वैसे भी सोशल मीडिया पर मैं शत्रु सम्पत्ति की तरह महसूस करता हूँ, जिसके कब्जे का सरकारी दावा, यानि कि मैं, सबसे कमज़ोर है. किसी बेवकूफ़ ने आज तक मुझे मित्र नहीं समझा, न किसी मित्र ने समझदार. मुझे दिक्कत बिना घोषणा के अमित्र करने से हुई. ये प्रोटोकॉल के ख़िलाफ़ है. जैसा कि सब करते हैं, उसे भी लोडस्पीकर से घोषणा करनी चाहिए थी. नहीं, ठीक लिखा है. लाउड नहीं लोड. जिन गहन जिम्मेदारियों के बोझ तले लोग फेसबुक या अन्य सोशल मीडिया पर हैं, उस हिसाब से लोड स्पीकर कहना ही बनता है.
दो घोषणाएं अद्भुद हैं यहाँ. मुझे इस मीडियम की सबसे क्रांतिकारी घटनाएं लगती हैं. आइस बकेट चैलेन्ज से ज़्यादा चुनौतीपूर्ण. एक है फेसबुक छोड़ने की. कुछ रणछोड़ लम्बे संदेश लिखने, फिर उसपर आए सैकड़ों कमेन्ट का जवाब देने के बाद जाते हैं. कुछ शोर्ट एंड क्रिस्प वाले हैं, `गुड बाय फेसबुक’ लिखकर टप्प निकल जाते हैं. लेकिन घोषणा दोनों ही करते हैं. ये राज पाठ से तो नहीं कह सकते, हाँ समाज कार्य से सन्यास की घोषणा है क्योंकि इसके बाद महाभारत होने की सम्भावना बची रहती है. ऐसा लगता है, जो अहसान अब तक वो आपपर किये जा रहे थे फेसबुक पर रहते हुए, उसका उचित रिकग्निशन न मिलने की चोट, दिल पर लगा बैठे हैं. अंग्रेज़ी में रिकग्निशन कहने से लगता है छोटी-मोटी रायसाहबी मिल गई हो. हिंदी में मान-सम्मान. हुंह! दो-तीन घोड़ों की मनसबदारी जैसी ओछी बात. हिंदी में वो बात कहां. इसलिए रिकग्निशन! ये फेसबुक छोड़ने वाली बात वो चुपके से, बिना बताए भी कर सकते थे. लेकिन फेसबुक और आयकर विभाग में अंतर होता है.
दूसरी घोषणा है मित्र सूची की छंटनी. बता कर, खुले आम, सबके सामने, जो-उखाड़ना-है-उखाड़-लो भाव के साथ. मुझे श्रद्धा हो आती है उन लोगों पर. मैं ऐसी घोषणा देखते ही बार-बार उनकी वॉल पर जाता हूँ. नहीं, सर फोड़ने नहीं. दीवार नहीं है ये, वॉल है. अंग्रेज़ी. जब कई घण्टो, कभी-कभी दिनों की तपस्या के बाद देव् प्रसन्न होते हैं और वो लिखते हैं, कि उनका छंटनी वाला नीतिगत कार्य सम्पन्न हुआ, मुझे कम्पलसरी रिटायरमेंट में नाम आने के बाद भी बच जाने की फील आती है. ऐसा लगता है मैं अपनी वॉल पर ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाऊं, दुनिया को बताऊँ, नाचूं, सड़क घेर के पंडाल लगाऊँ, प्रसाद खिलाऊँ, क्या-क्या करूँ. पिछली दफ़ा ऐसा ही एक ऐतिहासिक क्षण आने पर भावातिरेक में मैंने फोन का चुम्मा ही ले लिया. वर्चुअल दुनिया का आदमी और कर भी क्या सकता है. उस वक्त उनकी प्रोफ़ाइल पिक ऑनस्क्रीन थी. पार्श्वचित्र नहीं, प्रोफ़ाइल पिक. हिंदी में आप छायाचित्र को ऐसे शार्ट में बोल सकते हैं… पार्श्व चि…. हुंह. नॉन वर्चुअल दुनिया की बीवी ने देख लिया. व्यक्तिगत जीवन में अमित्र होने का ख़तरा आ गया.
तीसरी घोषणा कम चेतावनी ज़्यादा है. वाट्सएप नामक टीचर पर मिलती है ये ज़्यादातर. वाट्सएप वही है जिससे तैंतीस करोड़ देवताओं के नाम से लेकर ब्लॉक चेन टेक्नोलॉजी तक को चुटकियां बजाते आप सीख लेते हैं. ‘काके लागूं पायँ’ में अब कोई कन्फ्यूज़न नहीं रह गई है. मैं तो सुबह की शुरुआत मोबाइल को माथे से छुआकर करता हूँ, बस इसी को ‘तुम्हीं मेरे वो, तुम्हीं वो, तुम्हीं वो हो’ वाली प्रार्थना समर्पित करते हुए. इसी की वजह से मैं मोबाइल पिछवाड़े वाली जेब में नहीं रखता. कई बार पत्नी को सलाह दे चुका हूँ कि रात क्यों न इसे तुलसी के चौरे पर रख दिया जाए, पर पत्नी मना कर देती हैं. कहती हैं आंगन में ओस गिरती है, मंदिर ही ठीक है.
हम भटक गए. शिक्षकों का काम भटकाना भी तो होता है. घोषणा कम चेतावनी थी, कृपया इस ग्रुप में `इसके अलावा वो’ न भेजें. मसलन ये दोस्तों का ग्रुप है, इसमें राजनैतिक पोस्ट न डालें. ये ग्रुप न्यूज़ ओनली है, इसमें न्यूज़ के अलावा कुछ न भेजें! इस ग्रुप में गुड मॉर्निंग, गुड इवनिंग मैसेज न भेजें! फ़ोटो न भेजें! लिंक न भेजें! वीडियो न भेजें! एक ऐसे ग्रुप का मेम्बर हूँ मैं. जिसमें ‘ये नहीं वो’ इतनी बार और इतने ज़ोरदार तरीके से घोषित हुआ कि अभी तक वो ग्रुप `इमरान हाशमी इन एंड ऐज़ भारत भूषण’ जैसा लगता है. एक पाक़-साफ ग्रुप जिसमें बस क्रिएटेड, चेंज्ड ग्रुप इन्फो, एडेड फ़लाना, फलाना लेफ्ट वाले मैसेज रह गए हैं. मैं अक्सर उसे देर तक निहारता हूँ. सोचता हूँ उसके सदस्यों (धै!)… मेम्बर्स से, पुलिस वालों को डिसिप्लिन की ट्रेनिंग करवाने की सलाह भेज दूँ. क्योंकि अमूमन सभी ग्रुपों में घोषणा होते ही उसकी धज्जियां उसी तरह से उड़ जाती हैं, जैसे घोषणा होते ही सरकारी योजनाओं की. कई बार तो घोषणा करने वाला ही उड़ा रहा होता है. दरअसल वो हवाओं का रुख़ बता रहा होता है.
जब कोई ये घोषणा करे, कि कृपया मुझे टैग न करें! तो उसको टैग करने वाले पर ‘पाप विधान’ की कोई धारा अब तय हो ही जानी चाहिए, क्योंकि दण्ड विधान वाली धाराएं दिशा बदलू हो चुकी हैं. ‘जा जब अगले जनम में कोई ‘टैग्ड यू एन्ड नाइंटी नाइन अदर्स’ करेगा और टैगित सभी मेम्बर कमेंट करेंगे, तब तेरा पाप कटेगा’ ऐसा कुछ श्राप का प्राविधान हो. क्योंकि टैग करने वाला क्या जाने टैगित के दिल का हाल. किस तरह का दैहिक-दैविक-भौतिक तापा व्याप्त हो जाता है. एक दायित्व के बोझ तले आ जाता है वो. देखना मजबूरी हो जाती है उसकी. चुटकुले के मोटेराम की तरह, जो मुहल्ले के बच्चों की बदमाशी से तीन दिन तक लगातार घर से निकलते ही केले के छिलके से फिसलते रहे. चौथे दिन चौकन्ने थे, छिलका देख लिया पर सोच क्या रहे थे… स्साला आज फिर फिसलना पड़ेगा!
घोषणाओं के प्रतिगामी, (भक्क!) ऑपज़िट चलने वालों के लिए सेंसर का कोई `ओ’ सर्टिफिकेट भी होना चाहिए. हर ग्रुप में कोई एक मेम्बर ज़रूर होता है, जो इस इंतज़ार में रहता है कि बर्डे ब्यॉय हाथ जोड़े स्माइली के साथ चार लाइनों का एक शुकराना भेजे, कि कैसे आप लोगों ने उसे हैप्पी बर्डे लिखकर उसका ‘मेड माई डे’ कर दिया. बस यही वो लम्हा होता है जब सेकेंड का दसवां हिस्सा बीतते ही प्रोमिसिंग ओ सर्टिफिकेट धारी लिखता है `हैप्पी बर्डे ब्रो… होप नॉट लेट.‘ अब तक चार लाइनों में शुक्रिया फैला चुके बर्डे ब्यॉय को खींस निपोरते हुए विद नेम थैंक यू लिखना पड़ता है. अलग से. इसे कहते हैं वन टू वन, मैन टू मैन, फेस टू फेस टॉक.
वैसे उल्टा चलने वाले सारे ऐसे अटैकिंग नहीं होते. कुछ मासूम भी होते हैं. मेरे एक मित्र हैं. दो काम बहुत मासूमियत से करते हैं. हर तीसरे दिन प्रोफ़ाइल पिक बदल देना. तीन दिन सेल्फी, तीन दिन येल्फी. ये नाम भी उन्होंने ही बताया था. अपनसेल्फ़ ने खींची तो सेल्फी, योरसेल्फ ने खींची तो येल्फी. ये बदलाव वैसा ही है जैसा वो पहले अंडर शर्ट का करते थे. तीन दिन सीधा पहना, तीन दिन उलट के. सन्डे ऑफ! अरे उन्होंने ही बताया था. अंतरंग मित्र हैं मेरे. नाम भूल रहा हूँ ज़रा. उनकी इतनी फ़ोटोज़ देख चुका हूँ, हर एंगल से उन्हें ऐसा निरख चुका हूँ, कि अगर कभी मैडम तुस्साद में नौकरी मिली तो उन्हीं का पुतला बनाऊंगा.
उनका दूसरा काम है सुबह शाम, गुड मॉर्निंग, गुड इवनिंग मैसेज देना. इस बेकार के काम में समय व्यर्थ नहीं करते थे, कि चेक कर लें कि गुड के बाद मॉर्निंग लिखा है या इवनिंग. वैसे भी वाट्सएप पर सुबह का गुड शाम को मिले, तो उसे मैसेज नहीं कहते आशीर्वाद कहते हैं. धीरे-धीरे उन्हें ये लगने लगा कि उनके भेजे जीआईएफ के बिना सूरज रास्ता न भटक जाए. यही कैफ़ियत मेरी भी होती है. सुबह उठूँ और अगर ऐसे गुड मॉर्निंग वाले मेसेज न दिखें, तो मैं तो पलटकर फिर सो जाता हूँ. जब आता है तभी उठता हूँ. जब मैसेज तभी सवेरा.
दूसरे मित्र मेरे (मित्र संख्या `फाइव के’ पहुंचने वाली है मेरी, इसलिए दिल थाम के बैठिए अभी बहुत आएंगे) कवि-हस्त हैं. हृदय नहीं हस्त, क्योंकि फॉरवर्ड करते-करते ही कविता लिखने लगे. प्रतिभा रही होगी कहीं अंदर दुबकी, निकली उंगली के रस्ते. दूसरों की कविता जो दूसरों के जरिये दूसरों तक आई थी, ठेलते-ठेलते कब खुद लिखने लगे पता ही नहीं चला. ये वाट्सएप का ‘दूसरा’ है जो गुगली से ज़्यादा घुमावदार है. एक कविता रूपी ग़ज़ल या ग़ज़ल नुमा कविता या गजविता जैसी कुछ, मतलब कविजल जैसा कुछ, पहले चचा ग़ालिब की जानिब से आया. फिर उसीका आगा-पीछा नोचकर कविवर बच्चन के नाम से. फिर उसके कपड़े उतार के प्रेमचंद के कवि रूप पर प्रकाशपात करते हुए आया फिर उसी को फींच’-पटक, झार-झटक के अमृता प्रीतम के नाम से. शुरू-शुरू में अपनी ज़िम्मेदारी समझते हुए मैंने उन्हें रिप्लाई किया कि महोदय ये उनकी कविता नहीं है, जिनके नाम से आपने भेजी है. उनका ठक्क से सवाली जवाब आया ‘फिर किसकी है?’ मैंने लिखा कि ‘किसी की नहीं! असल में तो ये कविता ही नहीं है’ लिखकर मैं सकुचा रहा था कि चार खींसों के साथ एक अंगूठा लहराता हुआ आया जिसके साथ लिखा था ‘फोरवर्डेड एज़ रिसीव्ड.’ दूसरा! वो भी यार्कर लेंथ! आप बीट होने के अलावा कुछ नहीं कर सकते. क्योंकि वाट्सएप प्रोटोकॉल के मुताबिक़ फ़ॉर्वर्डेड को आगे फ़ॉर्वर्ड न करने पर बिना लाउड स्पीकर के अज़ान का अपराध बन जाएगा. बस अब बाबा रामदेव के नाम से गीत, गजल, कविता नहीं पहुंची थी उनकी मेरे पास. संभावनाएं पूरी थीं, इसलिए बस उसी दिन के इन्तज़ार में दिन काट रहा था जैसे-तैसे.
मैंने टोकना लगभग छोड़ दिया. पढ़ता ज़रूर था. फिर किसी शुभ दिन सम्भवतः पोथी पत्रा देख कर उन्होंने कविता के नीचे अपना नाम सरकाना शुरू किया. मतलब कविता के मैदान में कोपीन धारण कर कूद पड़े. पहली कविता जो भेजी थोड़ा ‘कच्चा’ थी. नहीं! आप गलत समझे! लिंग दोष नहीं था! क्या-क्या दोष थे, ये बयान करना मुश्किल है, क्योंकि ‘है’ के अलावा कुछ निर्दोष बच नहीं रहा था. उन्होंने तुक मिलाई थी. हर चरण, अगर उसे कह सकें तो, के अंत में सच्चा है, बच्चा है, अच्छा है और कच्चा है, आया था. पांचवें छंद, जिसे वो `सेर’ कह रहे थे और जो था पसेर भर से कम नहीं, में `कच्छा है’ लाना पड़ा. बिना लाए कैसे तुक निभाते? वैसे मैं उन्हें वापस `गच्चा’ देने वाला था फिर ‘कपि राइट’ का ईशु सोचकर चुप लगा गया. नहीं, लेखक के इस वाक्य में मात्रा दोष नहीं है!
मुझे लगता है जिसके पास अब तक चचा ग़ालिब की ‘ख्वाहिस नहिं मुजे मशहुर होने की आप मुजे जान्ते हो बस इतना ही काफी हे’ वाली प्रेमचंद की लिखी कविता, जिसे शब्द दिए हैं हरिवंश राय बच्चन ने और बोलों से सजाया है अमृता प्रीतम जी ने, नहीं पहुंची है, उसका होना धरती पर बोझ है. टैक्स पेयर के पैसों के साथ खिलवाड़ है. उसका फोन जब्त हो जाना चाहिए, वाई फाई की कुर्की कर देनी चाहिए, सारा बचा-खुचा डाटा नीलाम करवा देना चाहिए. उसे घास ही छोलनी है तो मेनस्ट्रीम मीडिया में चला जाए, सोशल मीडिया की पवित्र भूमि क्यों गन्दी कर रहा है? कोफ़्त होती है ऐसे लोगों से. हुंह!
एक तो कलियुग के महा अवतार इमोजी ने और जान खा रक्खी है. एक मित्र का शोक संदेश कल ही मिला था. पढ़ने से लग रहा था उसके पिता की मृत्यु हो गई और इसे पैनिक कफ़ एन्ड कोल्ड अटैक पड़ गया. शोक संदेश लिखा था फिर नीचे लाइन से पांच इमोजी बने थे. जिनमें लोटा-लोटा भर आसमानी पानी बह रहा था. जो ध्यान से न देखो तो नाक बहने जैसा लगता है. मुझे आपत्ति नहीं है. शास्त्र कम पढ़ा है, इसलिए मान लेता हूँ कि दुःख का मज़ा लेने जैसी कोई शास्त्र सम्मत बात होती होगी. लेकिन एक झटके में तो कोई चुटकुले की ही फील ही आई मुझे. क्या करूं? इस तरह से कौन रोता है? बू हू हू हू?
वैसे उसके एक पिता की तेरहवीं का खाना मैंने तीन साल पहले खा लिया था, पर मुझे लगा क्या पता उसने समथिंग डिफरेंट करने के चक्कर में एक फादर ही सरोगेट कर लिया हो. यू नेवर नो! मैंने वाट्सएप के ही किसी लिंकीय मैसेज पर देखा था. धरती के किसी कोने में, जिसे पुराने लोग लाग लपेट कर परदेस कह देते हैं, ऐसा होने लगा है. वाट्सएप ऐसा शिक्षक है जो सम्भावनाओं के द्वार नहीं, दीवार खोलता है. मैं उसे शोक प्रकट करने ही वाला था कि समस्त शोकाकुल परिवार वाली लाइन पर नज़र पड़ गई. ये तो किसी और के पिता, जिन्हें उसने पुरानी पद्धति से ही प्राप्त किया होगा, की मृत्यु का सन्देश इन्होने `जो-मिला-सो-आगे-बढ़ा’ के पुनीत कर्तव्य के चलते भेज दिया था.
मुझे खुद पर कोफ़्त हो आई. मैं क्या-क्या सोच बैठा जबकि उसने अपना कर्तव्य ही तो निभाया था. मुझमें ही समझ नहीं पनपी अब तक. मैं तो इतना कमअक्ल था कि इमोजी से ही उलझ गया. कहाँ मुझे अहसानमंद होना चाहिए था कि इत्ते तरह के ह्यूमन इमोशन्स, जो अंदर ही अंदर एक ट्यूमर की तरह लेकर आदमी घूम रहा था, सब बाहर निकल रहे हैं. अब वो घिसी-पिटी बात नहीं रही कि एक जैसे विशेषण लगाकर सुख और दुःख दोनों को निपटा लेते थे. कम दुखी, ज़्यादा दुखी. कम खुश, ज़्यादा खुश. अब सहोदर भावनाओं के कई-कई एक्स्प्रेशन्स अवेलेबल हैं. जैसे, मुस्काए. ऊपर के दांत दिखा हँसे. बत्तीसी दिखाए. ऐसे हँसे कि आँखें घुच्ची हो गईं. ऐसे हँसे कि आंसू छलक पड़े. ऐसे हँसे कि आंसू छलके और इस प्रक्रिया में एक साइड को लुढ़क गए. कुछ तो भविष्य के हिसाब से भी हैं. ऐसे हंसे कि दिल निकल के दोनों आँखों पर चिपक गया. ऐसे हंसे कि आँख से सितारे फूटने लगे. अब धीरे-धीरे समझ आने लगा है. सोचता हूँ कुंजी लिखी जाए. पहले नहीं आता था. पहले मैं भोला था. यहाँ मैं अपने लिए संस्कृत भाषा के शब्द `च्युत’ से उपजे एक देसज शब्द का इस्तेमाल करना चाहता था, पर आप फिलहाल भचकी आँखों वाला वो इमोजी यहाँ लगा लें, जिसमें कर्ता ने बहुत सारी हरे रंग की उल्टी कर रक्खी है.
उन दिनों एक मित्र मुझे प्रतिदिन श्री श्री के नाम से संदेश भेजते थे. ऑथेंटिक. फ्रॉम होर्सेज़ माउथ टाइप. हेडिंग में `आज का उपदेश’ लिखा होता था. तारीख़ के साथ. एक शाम अचानक मिल गए. मैंने पूछा `कब आए?’ वो नथुनों से सीने में बहुत सी हवा भरते हुए बोले `कल ही लौटा’ मैंने पूछा `कैसा लगा आश्रम में?’ उन्होंने वही वाली हवा, वहीं से छोड़ते हुए एक आँख दबाई और कहा `मस्त!’
मुझे इतने पर समझ जाना चाहिए था लेकिन मैं था… वो हरी उल्टी वाला. मैंने कहा `तो क्या शेड्यूल था आश्रम का और भाभी जी भी साथ गईं थीं क्या?’ उसने छह सेकेण्ड तक मुझे, या शायद मेरी हरी उल्टी को, कोसने वाली निगाह से घूरा और बोला `कौन सा आश्रम… मैं तो बैंकाक से आ रहा हूँ’ अमूमन मैं इतने पर चुप हो जाता हूँ, पर उस दिन मेरी अज्ञानता का कचरा, पूरी तरह से निकल जाने के लिए कुलांचे मार रहा था शायद, मैं आगे पूछ बैठा `रविशंकर जी के आश्रम में नहीं थे क्या तुम’ फिर उसने वो कहा जो ज्ञान और सूचना के बीच पड़े झीने पर्दे को हिला सकता है. वो बोला `वो कौन हैं?’ मुझे काटो तो खून नहीं. खून नहीं तो क्या? शायद वही, उल्टी!
डिस्क्लेमर- ये लेखक के निजी विचार हैं.
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अमित श्रीवास्तव
उत्तराखण्ड के पुलिस महकमे में काम करने वाले वाले अमित श्रीवास्तव फिलहाल हल्द्वानी में पुलिस अधीक्षक के पद पर तैनात हैं. 6 जुलाई 1978 को जौनपुर में जन्मे अमित के गद्य की शैली की रवानगी बेहद आधुनिक और प्रयोगधर्मी है. उनकी दो किताबें प्रकाशित हैं – बाहर मैं … मैं अन्दर
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