[एक ऐसे समय में जब कुमाऊँ-गढ़वाल का लोकसंगीत संभवतः अपने सबसे बुरे और बेसुरे दौर से गुज़र रहा था, ताज़ा हवा के एक झोंके की तरह ‘पाण्डवाज़’ नामक संगीत समूह ने प्रवेश किया और अपनी प्रोडक्शन-गुणवत्ता और संगीत की समझ के चलते पहाड़ के अंतर्मन में बस गया. ईशान, कुणाल और सलिल डोभाल नाम के तीन भाइयों द्वारा बनाया गया यह बैंड आज अपने काम की वजह से उत्तराखण्ड और उससे आगे देश-दुनिया में अपनी अलग पहचान बना चुका है.
‘पाण्डवाज़’ 2010-11 में अस्तित्व में आया. यह वो समय था जब बीस-हज़ार रुपये खर्च कर कोई भी अपने गाये हुए फूहड़ गीतों के ऑडियो-वीडियो जारी कर सकता था. पहाड़ के बाज़ार फ्यूज़न और लोकसंगीत के नाम पर किये गए भौंडे मजाकों से पाटे जा चुके थे. एक पूरी पीढ़ी की संगीत की समझ भ्रष्ट होती जा रही थी. ‘पाण्डवाज़’ ने अच्छे संगीत को अपना पहला लक्ष्य बनाया. उन्हें मालूम था कि आधुनिक सूचना युग में अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए बढ़िया तकनीकी और सोशल नेटवर्किंग की ज़रूरत पड़ेगी. शायद इस लिहाज़ से वे फिलहाल इस क्षेत्र में उत्तराखण्ड के संगीतकारों में सबसे आगे पहुँच चुके हैं. आज उनके गीतों के वीडियो बहुत बड़ी संख्या में देखे-सुने जाते हैं तो उसके पीछे यही कारण है कि उन्होंने उनकी गुणवत्ता और स्तरीयता पर बहुत ज़्यादा ध्यान दिया है.
मूलतः रुद्रप्रयाग के रहने वाले साधारण पृष्ठभूमि से ताल्लुक रखने वाले कलाप्रेमी दंपत्ति सतेश्वरी देवी और प्रेम मोहन डोभाल के ये तीन सुपुत्र उत्तराखण्ड के लोक संगीत को बिलकुल ऐसे नए कलेवर में प्रस्तुत करते हैं कि सुनने वाला मंत्रमुग्ध रह जाता है. उन्होंने ढूंढ-ढूंढ कर उत्तराखण्ड की सबसे मीठी आवाजों से अपने गाने गवाए हैं. उनके नवीनतम प्रोडक्शन ‘बूँद’ की बाबत हमने एक विस्तृत बातचीत कुछ दिन पहले प्रकाशित की थी (मुनस्यारी से संगीत की ‘बूंद’). पिछले सप्ताह काफल ट्री के लिए गिरीश लोहनी और अशोक पाण्डे ने ‘पाण्डवाज़’ के सबसे वरिष्ठ सदस्य ईशान डोभाल से लम्बी बातचीत की. उनके जीवन, संगीत के उनके पहले पाठों से लेकर तकनीक और बाज़ार जैसे विषयों को तो इस बातचीत में छुआ ही गया, उत्तराखण्ड के लोक संगीत और उसकी यहाँ-वहां बिखरी थाती को लेकर उनके सरोकारों को जानने का अवसर भी मिला. – सम्पादक]
ईशान, आपने अपने ग्रुप का नाम ‘पाण्डवाज’ रखा है. इस बारे में कुछ बताइये
हमारे यहाँ पाण्डव नृत्य होता है जिसे हम बचपन से देखते आ रहे हैं. उत्तराखण्ड में पांडवों द्वारा बनाये गए कई मंदिर भी हैं. पांडवों की कहानियां हम बचपन से सुनते आ रहे हैं. योद्धाओं और कलाकार के रूप में पाण्डव हमें हमेशा आकर्षित करते रहे हैं. इसलिये हमने अपने ग्रुप का नाम उनके नाम पर पहले पाण्डव और फिर बाद में उसे ही थोड़ा ग्लोबल करते हुए ‘पाण्डवाज’ किया.
शुरुआती यादें
हम तीन भाई हैं. हमारे पापा सरकारी स्कूल में कला के अध्यापक थे. शुरुआत में माँ गृहिणी थी. माँ को हमेशा कुछ खुद से करना था इसलिये बाद में पापा और माँ ने ‘उत्तराखण्ड चिल्ड्रन्स एकेडमी’ नाम से एक प्राइवेट स्कूल खोलने का निर्णय लिया जिसका नाम अब ‘द क्रिएटिव एकेडमी’ है. स्कूल का पूरा मेनेजमेंट माँ ने ही संभाला. स्कूल के शुरूआती सालों में तो सारा खर्चा पापा की सैलरी से ही जाता था. मां ने स्कूल की शिक्षा के स्तर पर बहुत मेहनत की और बाद में स्कूल काफी अच्छा चलने लगा था. अभी स्कूल पिछले 23-24 साल से बहुत अच्छा कर रहा है.
आपकी शिक्षा
हम तीनों भाइयों की प्राथमिक शिक्षा रुद्रप्रयाग से हुई है और हमने हेमवंती नंदन बहुगुणा यूनिवर्सिटी गढ़वाल से ग्रेजुएशन किया है. मुझे शुरुआत में तीसरी, चौथी और पांचवी कक्षा में पापा ने अच्छी शिक्षा के लिये देहरादून में हमारी बुआजी के यहाँ भेजा लेकिन मेरे लिये वह बहुत ज्यादा सूटेबल नहीं था. उसके बाद में पहले अपने ही स्कूल में पढ़ने लगा और बारहवीं मैंने जी.आई.सी. रुद्रप्रयाग से पूरी की. बी.ए. में मेरे सब्जेक्ट संगीत, अंग्रेजी, आर्कियोलॉजी से किया और मास्टर्स थियेटर स्टडीज़ से. मेरे भाई कुणाल ने भी थियेटर स्टडीज़ से मास्टर्स किया है जबकि सलिल ने ड्राइंग से मास्टर्स किया है.
क्या परिवार में पहले से कला को लेकर कोई परम्परा थी?
नहीं-नहीं. पापा तो ड्राइंग के टीचर इसलिये थे क्योंकि उनके समय में कोई गाइडेंस नहीं थी. जैसा कि पापा बताते हैं उनको कला समझ आती थी. दादाजी शुरुआत में ही गुजर गये थे तब पापा त्रिशूल आर्ट्स नाम से पुल, घर वगैरह की पुताई करते थे. जिस आर्थिक स्थिति में पापा लोग रहे उसमें विज्ञान जैसे विषय पढ़ पाना संभव भी नहीं था. हाँ पापा में आग जरूर थी. उन्होंने लखनऊ कालेज से पढ़ा हुआ है. हमारी लाईफ में आर्ट्स कैसे आई उसका एक दिलचस्प किस्सा है. जैसा कि एक मध्यवर्गीय परिवार में होता है मेरी माँ की दिली इच्छा थी कि मैं साइंस पढ़ लूं और कुछ इंजीनियरिंग वगैरह कर लूं. बारहवीं तक तो जैसे-तैसे मैंने साइंस पढ़ ली. बारहवीं में पहले साल मैं गणित में फेल हो गया मां लोगों के कहने पर मैंने दुबारा साइंस से ही बारहवीं की. इस बार गणित सही हुई तो फिजिक्स में फेल हो गया. उसके बाद पापा ने मुझे बुलाया और पूछा कि क्या हो गया है परेशानी कहाँ आ रही है. मैंने पापा को बताया – पापा साइंस नहीं हो पा रही है मेरा ध्यान ही नहीं लगता है साइंस में. इसी दौरान जीआईसी में कुमाऊं से संगीत के एक टीचर आये थे हरीश जोशीजी. मैंने एक दिन स्कूल में प्रार्थना के समय देखा सर बहुत अच्छा हामोनियम बजा रहे थे फिर एक दिन मैंने देखा कि सर ढोलक भी बजा रहे हैं. फिर मैं उनके पास गया थोड़ी बहुत बातचीत की तो उन्होंने मुझसे कहा – “तुम कमरे पर आना हम वहीं बात करेंगे.” जब मैं उनके कमरे पर गया तो मैंने उनके कमरे में पहली बार कीबोर्ड, गिटार, तबला, ढोलक देखा था मुझे लगा यह तो सही चीज है और वहीं से संगीत का कीड़ा मेरे अन्दर घुस गया. देहरादून से आने के बाद से ही मैं इलेक्ट्रॉनिक चीजों को ठीक करने लगा था जैसे स्टेबलाइजर वगैरह खोलना-खराब करना-सुधारना सब कुछ मुझे आ गया था. हमारे अपने स्कूल में कम्प्यूटर होने की बजह से मुझे उस की भी ठीक-ठाक जानकारी हो चुकी थी. हरीश जोशी सर के कमरे में एक दिन गाने को रिकार्ड करने की बात आई तो मैंने हरीश सर को बोला कि हम इसे कम्प्यूटर में रिकार्ड भी कर सकते हैं. उन्होंने पूछा – “कर लेगा तू?” मैंने कहा –“देख लेंगे.” फिर हमने स्कूल की कम्प्यूटर लैब में ही रिकार्डिंग करना शुरू कर दिया. इस दौरान मैंने पापा को भी बता दिया था कि मुझे संगीत करना है. बारहवीं में मैंने संगीत लिया जिसमें मेरे 87 नंबर भी आये फिर मैं बीए में गया तो वहां एनुअल फंक्शन में मुझे बहुत एक्सपोज़र मिला. इस समय तक हरीश सर मेरा हारमोनियम भी बहुत अच्छा करा चुके थे. इससे पहले में स्कूल के हामोनियम से सीखा करता था. आठवीं से पहले मुझे याद है मैंने मेले से 125 रुपये का एक कीबोर्ड खरीदा जो जल्द ही खराब हो गया फिर दूसरा ख़रीदा तो वो भी ख़राब हो गया फिर मैंने 230 रुपये का एक कीबोर्ड ख़रीदा वो ज़रा अच्छा था और काफ़ी दिन चला भी. उसी पर मैं और पापा बजाते रहते थे. मेरे पापा समझाते बहुत अच्छा थे उन्होंने ही सबसे पहले मुझे कीबोर्ड पर ‘तू राम तू रहीम’ बजाना सिखाया था. पापा और मैंने मिलकर यह गाना साथ में सीखा था.
कालेज में किस तरह का एक्सपोजर मिला
कालेज में एन्युअल फंक्शन वगैरह में हमें खूब एक्सपोजर मिला. इस बीच म्यूजिक प्रोडकशन की मेरी भूख भी बढ़ती गयी. यह वह दौर था जब मैं गढ़वाली और कुमाऊंनी म्यूजिक से पक चुका था. आखिरी गढ़वाली एल्बम जो मुझे बहुत पसंद आयी थी वह नरेंद्र सिंह नेगी जी और प्रीतम भरतवाण जी की थी. उसके बाद से सब कुछ एक जैसा होता जा रहा था और अगले बारह-पन्द्रह साल तक बस एक ही जैसा सुनता जा रहा था. उस दौर में मेरे अन्दर गानों को लेकर बातें चला करती थीं कि अगर इस गाने में ऐसा किया जाता तो कैसा होता. इसे लेकर मैं घर पर बैठकर उन्हें रिफाइन करने के कुछ कुछ प्रयोग करता रहा. एक दौर ऐसा भी आ गया था जब मैंने लोगों को अपने घर पर बनाये गीत लोगों को सुनाये तो लोगों को यकीन ही नहीं हुआ था कि मैंने घर पर बैठकर ऐसा कुछ बना लिया है क्योंकि उस समय उत्तराखण्ड मे देहरादून में ही एक स्टूडियो हुआ करता था बाकि सारे काम दिल्ली होते थे. हर कोई दिल्ली को भाग रहा था. बीए के बाद मुझे जब कुछ म्यूजिक की ओर कुछ करना था तो पापा ने मुझे कहा कि पहले अपनी पढ़ाई पूरी करो फिर जो करना हो वह कर लेना. तब मैंने अपना एमए भी पूरा कर लिया. एमए में हमारे कालेज में म्यूजिक डिपार्टमेंट का हाल थोड़ा ठीक नहीं था. इस समय कालेज में बड़े संघर्षों के बाद थियेटर एंड फोक डिपार्टमेंट खुल सका था. क्योंकि पापा के पास भी बीए तक की ही डिग्री थी इसलिये हम दोनों ने साथ में उस साल एमए में एडमिशन लिया. हमने साथ में पढ़ाई की और साथ ही में पेपर दिये. जब हम दूसरे साल में थे तो मेरे छोटे भाई ने भी एमए फर्स्ट एयर में एडमिशन ले लिया.
एमए के बाद में कभी किसी के साथ कीबोर्ड बजाने चल देता कभी किसी के साथ म्यूजिक दे देता. फिर एक दिन घर वालों ने जब पूछा कि आगे क्या करना है तो मेरे पास इसका कोई जवाब नहीं था. मुझे खुद भी इस समय कुछ नहीं पता था कि आगे क्या करना है. इस बीच मैंने घर वालों को कहा कि – “मैं ये म्यूजिक वगैरह सब छोड़ रहा हूँ. मेरा टैकनिकल हैण्ड ठीक है तो मैं दिल्ली जा रहा हूँ .वहीं कम्प्यूटर का कोई कोर्स कर लूंगा.” और मैं दिल्ली आ गया.
दिल्ली में संगीत से कैसे जुड़े रहे?
दिल्ली में पीतमपुरा में एक इंस्टीट्यूट में एडमिशन ले लिया. गड़बड़ यह हो गयी कि वहां जो मेरा रुममेट मुझे मिला वो शास्त्रीय संगीत सीख रहा था. वह रोज सुबह शाम रियाज़ करे. मेरे अंदर का कीड़ा फिर जाग गया. कम्प्यूटर मेरे पास था ही तो मैंने उनसे कहा कि – “भईया यह गाना आप यहाँ बैठकर रिकार्ड कर दोगे.” उन्होंने पूछा क्या करेगा तो मैंने कहा बस दे दो रिकार्ड करते हैं. तो सुबह-सुबह हमने वह रिकार्ड कर लिया. एक क्लासिक बंदिश हमने रिकार्ड की और दिन भर में मैंने उसे थोड़ा वेस्टर्नाइज करके थोड़ा रिफ़ाइन किया. शाम को जब वो लौटे तो मैंने उन्हें जब उन्हीं की गाई बंदिश सुनाई तो वो सप्राइज हो गये कि इसने कैसे इतने कम समय में यह कैसे कर दिया. मैं ये नहीं कहूँगा कि वह गाना बहुत अच्छा था लेकिन यह जरुर है कि वो अच्छा था. उसके बाद उन्होंने भी मुझसे कहा कि तू तो अच्छा काम करता है और यह बात मेरे दिमाग में बैठ गयी. उसके बाद मेरा ध्यान एक बार फिर से संगीत की ओर चला गया.
इस समय भारत में भी बहुत तगड़ा रिसेशन आ गया था. इस वजह से स्टूडेंट ने इंस्टीट्यूट छोड़ना शुरू कर दिया. उस समय का रिसेशन इतना तगड़ा था कि हमें जो टीचर पढ़ाते थे वो भी नौकरी छोड़कर भाग गये. हालांकि मैंने भी कोर्स पूरा किया लेकिन फिर कोर्स पूरा होने के बाद मैंने वह छोड़ दिया.
इस बीच में ऐसे ही दिल्ली के एक रिकार्डिंग स्टूडियो में जाने लग गया और दिल्ली में लक्ष्मीनगर में एक रिकार्डिंग स्टूडियो में रिकार्डर की नौकरी करने लगा. वहां भजन रिकार्ड हुआ करते थे बड़ा बोझिल काम रहता था. ओम जय जगदीश की धुन पर ही ओम सांई नाथ, ओम भैरव बाबा पता नहीं क्या-क्या रिकार्ड हुआ करता था. इस काम का मुझे डेढ़ सौ रुपये हर दिन मिलता था. जैसे-तैसे दिल्ली में मेरे यह आठ-दस महिने गुजरे और दिल्ली से ऊब कर मैं वापस श्रीनगर लौट आया.
श्रीनगर में आपने कैसे शुरुआत की?
दिल्ली से लौटने के बाद किसी लड़के से होते हुए मुझे ऑक्सफेम एनजीओ का एक काम मिल गया था जिसमें मुझे पच्चीस हजार रुपये मिले थे. इसके बाद मैंने बिना यह सोचे कि लोग मेरे पास क्यों रिकार्डिंग कराने आयेंगे, श्रीनगर में एक रिकार्डिंग स्टूडियो खोल दिया. मैंने सोचा लोग आयेंगे और मैं उनको दिल्ली जैसी रिकार्डिंग और अच्छा म्यूजिक श्रीनगर में ही दे दूंगा. पहले छः-सात महिने तक मैं अपने छोटे से स्टूडियो में बैठा रहा. क्योंकि कोई मुझे नहीं जानता था तो कोई आता भी नहीं था. अगर किसी को कोई बता भी देता कि श्रीनगर में रिकार्डिंग होती है तो वो भी नहीं आता था क्योंकि सबको क्लियर था कि रिकार्डिंग तो दिल्ली में अच्छी होती है यहां तक की देहरादून में भी अच्छी रिकार्डिंग नहीं होती है. लेकिन छ: से सात महीने तक मैं हर रोज स्टूडियो आता था और अठारह-अठारह घंटे तक एक कुर्सी पर बैठकर कुछ न कुछ एक्सप्लोर करता रहता था. इस बीच का पूरा खर्चा मैंने उन्हीं पच्चीस हजार रुपये से ही पूरा किया था. इसके बाद 2011 में अचानक मेरे पास एक एलबम आती है “हूरा कु दिन.” जो की एक जागर गीत था. मैंने पूरी सिद्दत से वह काम किया. उसके बाद एक और एल्बम “सुन जा बात मेरी” एल्बम आई. मैंने उसकी रिकार्डिंग की तो मुझे नहीं पता कब गाना चला. लोगों ने आकर बोला कि आप लोगों का नाम ‘पाण्डवाज’ है? मैंने बोला हां तो बोला कि आजकल आपका एक गाना डीजे-वीजे में खूब बज रहा है. उन दिनों मोबाइल में गाने बजा करते थे जिसमें हमारा लोगो आता था. जब मैंने पता किया तो पता चला जागर गीत चल रहा था. थोड़े दिन बाद मेरे एक दोस्त ने जो कि डीजे का काम करता था उसने मुझसे कहा कि तुम्हारा एक और गाना चल रहा है. मैंने कहा नहीं हमारा तो गाना ही एक है तब उसने कहा नहीं आपका लोगो आता है. पता चला ‘सुन जा बात मेरी’ भी खूब चल रहा है. उसके बाद लोगों ने हम पर विश्वास करना शुरू कर दिया क्योंकि यह दोनों गाने गजब के हिट थे. इन गानों ने म्यूजिक के स्वरूप में एक बदलाव आया. इसके बाद म्यूजिक को वेस्टर्नाईज करने का दौर शुरू हो गया और म्यूजिक ने नाम पर ढिच-चिक-धिचिक डालना शुरू कर दिया. उस समय फोक के नाम पर गीतों में केवल उसके बोल बचे थे फोक म्यूजिक पूरा गायब हो चुका था.
आपके दोनों भाई पांडवाज से कैसे जुड़े?
जब मेरे साथ यह सब कुछ चल रहा था तब कुणाल दिल्ली में थियेटर कर रहा था. सलिल एम.ए. कर रहा था और साथ में मां के साथ स्कूल भी मैनेज कर रहा था. उस समय मैंने ऐसे ही एक वीडियो बनाकर नेट पर डाल दिया. कुणाल ने उसे नेट पर देखा और मुझे कॉल करके कहा कि तूने यह गाना कैसे सूट किया? मैंने बताया ऐसे-ऐसे किया तो उसने कहा ठीक लग रहा है ऐसे तो लेकिन तुझे ऐसे नहीं लग रहा कि जैसे ये कैमरा थोड़ा दूर होना चाहिये था. मैंने पूछा तुझे कैसे पता तो उसने कहा कि देख तेरा कैमरा इधर की ओर होने से आँखे भैंगी सी दिख रही हैं. यह हमारी प्रोफेशन को लेकर पहली बातचीत थी. मैंने कुणाल को बोल दिया – “ यार तू श्रीनगर आजा और हम मिलकर काम करते हैं.” मुझे नहीं पता उसने कितने बार सोचा फिर उसने हफ्ते दो हफ्ते बाद हां कर दी और एक-दो महीने में दिल्ली के अपने प्रोजेक्ट ख़त्म करके कुणाल भी श्रीनगर आ गया. उस समय तक न मुझे पता था कि कुणाल क्या कर रहा है न उसे पता था कि मैं क्या कर रहा हूँ. हाँ मुझे यह पता था कि कुणाल दिल्ली में जाकर थियेटर कर रहा है साथ ही पांच-छः हजार की कोई नौकरी कर रहा है- उसी से उसका खर्चा चलता है और कई बार जब कम पड़ता है तो मां उसे पैसे भेजती है. कुणाल को भी मेरे बारे में ऐसा ही कुछ पता था. इस बीच सलिल को फोटोग्राफी का चस्का लग गया था. उसने अपनी ड्राइंग स्किल को डिजिटल फार्म में बदल दिया था और छोटे-मोटे काम करते हुए सलिल भी हमारे साथ हो गया और हम छोटे-मोटे प्रोजेक्ट कहीं कोई डाक्यूमेंट्री कभी कुछ करना शुरू कर दिया और तीनों भाई साथ में एक होकर काम करने लगे.
आप तीनों भाइयों के कला क्षेत्र में जाने पर आपके माता-पिता ने कभी कोई विरोध नहीं किया?
जब मैं बारहवीं में दूसरी बार फेल हुआ तो पापा ने मां को बता दिया कि हमारे बच्चे साइंस में अच्छा नहीं कर सकते हैं. उसके साथ ही हमारी मां ने भी अपने दिल से बच्चों को इंजीनियर-डाक्टर बनाने का अरमान छोड़ दिया था. बाकि लोगों ने उन्हें बहुत कुछ बोला. लोग जब मेरी मां से पूछते थे कि तुम्हारा बेटा क्या करता है तो मां बेचारी क्या जवाब देती. किसी को जवाब देती – “म्यूजिक करता है” तो लोग कहते – “ठीक है म्यूजिक तो करता है लेकिन कमाने के लिये क्या करता है.” पापा को भी लोग बोलते थे कि तुम्हारा बेटा तो यहीं घूमता रहता है वो करता क्या है? ऐसे में पापा को भी कई बार बुरा भी लगता था. इसके बावजूद मां-पापा ने हमेशा हमारा साथ दिया. वो हमेशा यह चाहते थे कि हम जो भी करें खुश रहकर करें. जब पापा ने लोगों के फोन में हमारे गाने सुने तो पापा समझ गये थे कि हम अपने आपको साबित करने लगे हैं. मां का हमेशा यह डायलाग हुआ करता था कि “पता नहीं क्या करते रहते हो तुम लोग इसी से तो आयेगी अख़बार में तुम्हारी फोटो.” एक दिन हुआ आ गई अखबार में फोटो. हमारे मां पापा को सबसे बड़ी ख़ुशी इस बात की हुई हम तीनों साथ में काम कर रहे हैं. हम भाईयों की अब तक एक ही जेब है जो भी पैसा आता है एक जगह आता है जिसे जब जरूरत हो वह इस्तेमाल कर लेता है. मां पापा को इस बात की बहुत ज्यादा ख़ुशी है.
आप तीनों भाइयों का साथ में पहला बड़ा प्रोजेक्ट कौन सा था?
हमने साथ में मिलकर सबसे पहले रंचणा गीत प्लान किया. उस गीत को बनने में पूरा एक साल लगा. क्योंकि हमने बड़ी बारीकी से काम किया. तीनों में एक कामन फेक्टर यह है कि तीनों में खूब धैर्य है और किसी को भी बहुत ज्यादा जल्दी नहीं रहती.
आप अपने गीतों के बोल कैसे चुनते हैं?
हमने अपने समय के संगीत से अच्छा चुना और उसे अपने फ़ोक के साथ मिलाकर सामने रखा. हमारे दिमाग में क्लियर था कि म्यूजिक ऐसा होना चाहिये कि म्यूजिक सुनने के बाद आदमी खोजने को जाये कि ये क्या बोल हैं? गाना कहाँ का है? और उसका मतलब खोजना शुरू किया. ऐसे ही हम अपनी भाषा और संस्कृति को आगे बढ़ा सकते हैं. अगर आप फोक का एकदम रॉ (कच्चा) संस्करण लोगों को सुनाएंगे तो लोग उसे सीधा पसंद नहीं करेंगे. हमने चौदह-पंद्रह साल के बच्चों के मोबाइल गानों की प्लेलिस्ट्स टटोलीं और कोशिश यह कि हमारा गढ़वाली गाना उन गानों जैसा होना चाहिये. तभी तो बच्चे हमारे गाने सुनेंगे और वही हमारी लोक संस्कृति को आगे ले जायेंगे.
हमने जब ‘शकुना दे’ गाना बनाया तब हमने उसमें हुड़के का इस्तेमाल किया जिसके पीछे पियानो बज रहा है, गिटार बज रहा है. आज मुझे बालीवुड वाले फोन करके पूछते हैं कि यार ये किस चीज की आवाज़ है. लोग खोजते हुए हमारे पास आये कि यह बज क्या रहा है? अगर आप सिम्पल हुड़के की आवाज के साथ रिकार्डिंग करते तो कोई हमें क्यों पूछता है. अच्छी चीज के होने पर आप सीधा घी किसी को नहीं पिला सकते लेकिन जब घी को रोटी में रखकर लिया जाय जब दाल में मिलाया जाय तभी वह स्वाद भी होगा.
हम तीनों भाई और पापा साथ में बैठते हैं और गाने का फ्रेम तय करते हैं. हम एक थीम चुनते हैं जैसे ‘शकुना दे’ में कुणाल एक थीम लेकर आया. एक लड़की है जिसकी परवरिश उसके पिता करते हैं उसकी शादी तक का हम कुछ बना सकते हैं. तो उसपर हमने मिलकर काम शुरू किया. फिर मैंने गणेश मर्तोलिया से बातचीत में पूछा कि आप लोगों के यहाँ कोई ऐसा गीत है कुछ तो उन्होंने मुझे ‘शकुना दे’ सुनाया. उसे हमने अच्छी प्यारी आवाज़ में अच्छे संगीत के साथ पेश किया. इस पर हमने लोगों से बातचीत करते हैं और उनसे वो चीज़ें मांगते हैं जो हमें अपनी थीम में चाहिये होता है. क्योंकि हम लोक पर काम कर रहे हैं तो वह कहीं लिखा नहीं रहता है. एक ही फोक के भी कई वर्जन मिलते हैं क्योंकि हम चाहते हैं कि ग्लोबली हमारा गीत सुना जाय ऐसे मैं हमारी जिम्मेदारी भी बनती है कि हम अपनी संस्कृति का सही रूप भी लोगों के सामने पेश करें.
आजकल फूहड़ गाने भी रातों रात हिट हो जाते हैं आप उससे बचने के लिये क्या करते हैं?
मुझे लगता है कि आप जो परोसेंगे लोग वही लेंगे. कभी खिचड़ी न खाने वाले किसी भूखे आदमी के सामने आप खिचड़ी रख दो तो वह खिचड़ी ही खायेगा. हमारे यहां डिमांड थी कि डीजे में अपनी भाषा का गाना बजे. जब कुछ अच्छा होगा ही नहीं तो वही फूहड़ गाना बजेगा. हम जो गाना बनाना चाहते हैं वह ऐसा गाना हो जिसे लोग सुबह उठे तो उसे लगे कि कोई गाना सुनना चाहिये और वह हमारा गाना सुने. हम लोगों की उस प्लेलिस्ट के लिये गाना बनाना चाहते हैं जिसका लोग गाना सुनते समय उपयोग करते हैं. हमने भी पहले ट्रेंड के साथ चलते हुए शुरुआत की थी लेकिन अब हम खुद ट्रेंड सेट कर सकने की स्थिति में हैं.
आपके चैनल पर अगला गाना ‘बूंद’ आने वाला है जिसका शानदार प्रोमो भी लोगों ने खूब पसंद किया है. उसके बारे में कुछ बताइए
‘बूंद’ लवराज टोलिया का लिखा एक नौस्टाल्जिक कुमाऊँनी गाना है जिसको कम्पोज भी मुनस्यारी के नवल निखुर्पा ने किया है. इस गीत में आवाज भी मुनस्यारी के नवल की ही है. यादों से भरा हुआ यह एक शानदार गीत है. मेरे पास गणेश ने जब वह गाना भेजा था तो मुझे बहुत ख़ुशी हुई. मैंने गणेश से पूछा की यह क्या है कोई लोक गीत है या क्या है किसने लिखा है. तब गणेश ने मुझे बताया कि लवराज ने यह गीत लिखा है. लवराज और दोनों नवल की वजह से मेरे लिये वह गाना करना और आसान हो गया क्योंकि वह बहुत शानदार तरीके से कम्पोज भी हुआ था. नवल की आवाज बेहद खूबसूरत है. आज कल के गायकों में नवल को में उन गायकों की श्रेणी में रखता हूँ जिन्हें ऑटोट्यून करने की जरुरत नहीं है.
आपके यूट्यूब चैनल में कवि सम्मलेन के कुछ वीडियो है उनके बारे में कुछ बताइये.
हमारे यहाँ बहुत से अच्छे कवि हुये हैं लेकिन उनकी आर्थिक हालत बहुत खराब है. उनकी कविता का स्तर बहुत अच्छा है लेकिन लोगों तक उनकी बात लोगों तक कम पहुंचती है. हमने एक कवि सम्मेलन श्रीनगर में कराया था जिसकी रिकार्डिंग कर हमने आज के युवा तक उन कवियों की कविताएँ पहुँचाने की कोशिश की थी.
अपने आने वाले प्रोजेक्ट के बारे में बताइये?
फिलहाल हम लोग ‘टाइम मशीन 4’ पर काम कर रहे हैं. जिसके सामने अभी बहुत सारे तकनीकी चैलेन्ज आते हैं.
आपके पास चैलेन्ज क्या क्या आते हैं?
हमारे पास टेकनिकल टीम के नाम पर हम तीन भाई हैं. लाईट कैमरा सब कुछ हम तीनों ही संभालते हैं. बाकि गाँव के लोगों से एक्टिंग कराना अपने आप में एक चैलेंज है. अभी टाईम मशीन चार के दौरान हमसे कुछ और उत्साही युवा जुड़े हैं. इसके साथ ही हम लोगों के लिये थोड़ा बहुत रोज़गार भी पैदा कर रहे हैं हालांकि यह एक लम्बी प्रोसेस है लेकिन शुरुआत हो चुकी है.
शुक्रिया ईशान अपना समय काफल ट्री को देने के लिये. आपके उज्ज्वल भविष्य के लिये काफल ट्री की टीम की ओर से आपकी पूरी टीम को ढेरों शुभकामनाएं.
धन्यवाद
पांडवाज के यूट्यूब चैनल में 1 जनवरी को रिलीज अगले होने वाले बूंद गाने का प्रोमो यहाँ देखें –
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पांडवास बंधु उत्तराखंड संगीत के लिए एक आशा की किरण है, आज की नीमा, सीमा, हो हो हो जैसे दौर में निश्चितरूप कुणाल बंधु संजीवनी का काम कर रहे है, अनन्त शुभकामनाएं पांडवास एवम लवराज,नवल जी को भी!
पांडवास बंधु उत्तराखंड संगीत के लिए एक आशा की किरण है, आज की नीमा, सीमा, हो हो हो जैसे दौर में निश्चितरूप कुणाल बंधु संजीवनी का काम कर रहे है, अनन्त शुभकामनाएं पांडवास एवम लवराज,नवल जी को भी!