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यह धरती सबकी साझा है

आज सुबह आते-जाते दो-तीन बार उस पर नजर पड़ी. बुरी तरह भीगा हुआ था और जुगाली भी नहीं कर रहा था. इस घनघोर जाड़े की बरसात में पूरी रात ठरते हुए सीमेंट पर गुजार देना कहीं उसकी छोटी सी मासूम जिंदगी के लिए ज्यादा साबित न हो. हर बार यही सोचकर उधर गया कि शायद उस जानलेवा जगह से वह उठ गया हो और टहल-घूम कर थोड़ी गर्माहट अपने बदन में पैदा कर ली हो.

बमुश्किल आठ-नौ महीने का यह बछड़ा हर रोज मुझे एक अजब तकलीफ से भर देता है. कोई ऐसी चीज, जो सिर्फ उसकी नहीं, थोड़ी-बहुत मेरी भी है. कभी-कभी सोचता हूं, यह कठिन जीवन उसकी आजादी की जरूरी शर्त है. देर रात में तारों से गुंछे हुए आसमान और जमीन के बीच, जब तुम्हारा साथ देने के लिए हवा भी मौजूद न हो, जहां तक जी करे अकेले बिचरना. इस एंगल से सोचने पर चीजें थोड़ी आसान हो जाती हैं.

करीब दो महीने पहले वह हमें दिखा था. तीखे मोड़ पर चीं-चूं करके ब्रेक लेती पगलाई गाड़ियों से सूत भर की दूरी से बचता, जमीन पर पड़ा हुआ राख जैसे रंग वाला एक छोटा सा गदबदा ढेर. यह तो गाय का बच्चा है, यहां कैसे आ गया? लगता है, बीमार है. क्या थोड़ी देर में कोई इसे खोजता हुआ आएगा?

कोई नहीं आया. न उस दिन, न तब से अब तक गुजरे पचास-पचपन दिनों में से किसी भी एक दिन. दिल्ली और आसपास के इलाकों में गाय-भैंसों के नर बच्चे अब बोझ समझे जाते हैं. मौका मिलते ही लोग उनसे पिंड छुड़ाना चाहते हैं. ऐसा सुना था, लेकिन अपनी आंखों देखने का पहला मौका था. मुझे याद आया, लगातार तीन बछियों के बाद गांव में जब मेरी गाय ने बछड़ा दिया था तो देखने आए सभी लोगों को गुड़ की भेलियां बंटी थीं. बड़ों को चार-चार, बच्चों को दो-दो. लेकिन यहां तो यह बड़ा होकर न खेत जोतेगा, न बैलगाड़ी में जुतेगा. और तो और, उपले पाथने के लिए भी जगह नहीं बची कि गोबर ही काम आ जाए. फिर बछड़ा आखिर कितना भी क्यूट क्यों न हो… किसके लिए, किस काम का?

सिर्फ छह महीने का होने पर मां का दूध छुड़ाकर इसे घर से निकाल दिया! सोचा होगा, बेकार के जानवर पर दोनों टाइम एक पाव भी दूध क्यों बर्बाद करें. रोजाना पचीस-तीस रुपये की बात है, कोई मुफ्त का खेला नहीं है कि साल-दो साल दयालुता दिखाते फिरें. एक दिन भूखा-प्यासा गुजार लेने के बाद बछड़े को थोड़ी दुनियादारी समझ में आई. रात में किसी वक्त गाड़ियों की हड़हड़ कम होने के बाद वह हिलता-कांपता उठा और दो सोसाइटियों के बीच एक कोने जैसी नो मैंस लैंड में अपना डेरा जमा लिया. सोसाइटी वालों के लिए तो वह न्यूसेंस ही था, लेकिन सोसाइटियों के गार्ड, जो खुद भी किसान का बेटा होने का दंड भुगत रहे थे, ठरती हुई रात में उसके प्रति करुणा से भर उठे.

तब से अब तक उसे रोज ही कुछ न कुछ मिल जाता है. कभी कोई मटर के छिलके डाल जाता है, कभी रोटी खिला जाता है, कभी ओस में उसे कांपता हुआ देख फटा-पुराना बोरा ओढ़ा जाता है. रात में ट्रैफिक धीमा पड़ने के बाद एक-दो बार बछड़ा चौराहे तक या उससे थोड़ा आगे गश्त पर निकलता है. कहीं कुछ खाने को मिल जाए तो ठीक, वरना मुफ्त की सैर हो जाती है. इस बीच पहरेदार तापने के लिए आग जलाते हैं तो दूर से इतनी तेज दौड़ा हुआ आता है कि तापनहारों को उठकर भागना पड़ता है. आग पर आधा हक उसका, बाकी में सब. छोटा सा है, लेकिन उसके शरीर में आजादी का बल है. एक दिन उसे कुछ खिलाते हुए मैं थोड़ा आगे की तरफ बढ़ा, ताकि व्यस्त रास्ते से उसको दूर ले जा सकूं. इतनी बुरी तरह झपट कर चला कि लगा, मेरा टूटा हाथ एक बार फिर टूट जाएगा. लेकिन पता नहीं क्यों, मौसम और गाड़ियों की बेरहमी देखकर हर तीसरे-चौथे दिन लगता है कि आज बछड़ा नहीं बचेगा. वह एक आजाद जानवर है. एक मायने में पहले से भी ज्यादा कि किसान जीवन की तरह अब उसे बधिया करके बैल नहीं बनाया जाएगा. पर, पूस की ठंड में चौबीस घंटे बरसता मेह निचंट खुले में खड़े या बैठे इस आठ-नौ महीने उम्र वाले सुंदर जानवर की जीवनी शक्ति का एक कतरा भी क्या उसके पास छोड़ेगा? फर्श, छत और चार दीवारों की सुविधा से वंचित बेघर आदम जात की तरफ से मैं उसके लिए शुभकामना संदेश भेजता हूं. इस इच्छा के साथ कि यह धरती सबकी है और इसके हर सर्द-गर्म में सबका साझा होना चाहिए.


-चन्द्र भूषण

 

चन्द्र भूषण नवभारत टाइम्स, दिल्ली में वरिष्ठ पत्रकार हैं. विज्ञान और खेल जैसे विषयों पर लगातार लिखने वाले चन्द्र भूषण के दो कविता संग्रह भी प्रकाशित हैं. समकालीन मुद्दों के प्रति उनके सरोकार उनके लेखन में नज़र आते हैं. 

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