यू.पी. में पुख्ता बुनियाद वाले जिला बिजनौर में नवाब नजीबुद्दौला द्वारा बसाए गए और दिल दिलेर मानिन्द शेर डाकू सुलताना के जन्म स्थान के रूप में मशहूर शहर नजीबाबाद के उत्तर में 40 कि.मी. दूर, सघन बन-प्रान्तर में बसा है गढ़वाल का छोटा सा किन्तु ऐतिहासिक कस्बा दुगड्डा. ‘गड’ या ‘गाड़’ वैदिक संस्कृत में छोटी नदी का पर्यायवाची बताया जाता है. इसी लिए कुछ विद्वानों का मत है कि गंगा-यमुना ही नहीं और असंख्य छोटी नदियों का उद्गम स्थल होने के कारण केदार खण्ड नाम से पुराणों में वर्णित इस भूखंड का नाम गडवाल पड़ा जो अब गढ़वाल कहलाता है. लंगूरगड व शैलगड से पर्वतीय नदियों का संगम स्थल होने से दुगड्डा नाम पड़ा. संगम के बाद इन नदियों का नाम खोह हो जाता है जो बिजनौर जिले में धामपुर-शेरकोट के बीच बहते हुए रामगंगा में मिल जाती है. माल के कागजात में दुगड्डा बहेड़ी का तप्पड़ कहलाता है. जो कभी दक्षिण-पूर्व गढ़वाल के मशहूर लंगूर गढ़ किले के अन्तर्गत एक एक सैनिक शिविर था. (Dugadda City Garhwal)
दुगड्डा के निकटवर्ती चंडा नामक पर्वत से उद्गामित होकर व महाकवि कालिदास की अमर कृति ‘ अभिज्ञान शाकुन्तलम् के मधुर छन्दों को अपनी लोल लहरों में समेटे चौकीघाट व कण्वाश्रम के सघन वन प्रान्तर को एक काव्यमय आयाम देते हुए मन्द गतिगामनी मालिनी सरिता मालकांगनी (मालू) लता-गुल्मों के मध्य अब भी छुप-छुप कर बहती है. नाना प्रकार के मृग और मृगशावक ही नहीं वरन मदमत्त हाथियों व कभी-कभी प्रगट होने वाले आदमखोर बाघों के लिए भी दुगड्डा मशहूर है.
आज इस छोटे-से उजड़ते हुए कस्बे को देखकर कोई भी नहीं कह सकता कि यह कभी गढ़वाल के आर्थिक एवं राजनीतिक गतिविधियों का केन्द्र ही नहीं बरन उसके इतिहास की एक जीवन्त धड़कन भी रहा है.
सन् 1338 के आस-पास दिल्ली के तत्कालीन विचक्षण किन्तु महत्वाकांक्षी सुलतान मुहम्मद तुगलक में कांगड़ा विजय के पश्चात् मध्य हिमालय के कुमायूं-गढ़वाल राज्यों पर आक्रमण किया था. उस समय दुगड्डा क्षेत्र का मशहूर किला लंगूरगढ़ भी उसकी चपेट में आया था किन्तु सघन बनों तथा पर्वतीय क्षेत्रों के युद्धों में अभ्यस्त सैनिकों एवं प्रतिकूल जलवायु के कारण सुलतान की सेना को बुरी तरह परास्त हो कर दिल्ली लौटना पड़ा था. ज्ञात इतिहास के अनुसार सन 1375 में महाराजा अजयपाल द्वारा गंगा-यमुना व रामगंगा के इस पावन प्रदेश के बावन गढ़ों में विखरे छोटे-बड़े सामन्तों को परास्त करके वृहत गढ़वाल राज्य की स्थापना की. जिसरी उत्तरी सीमा गरटोक (तिब्बत), दक्षिणी ज्वालापुर से लेकर पातलीतून (कालागढ़ व धामपुर व पूर्वी रामगंगा तक की थी. राज्य के केन्द्र में अलकनन्दा नदी के बाएं किनारे पर बसे श्रीनगर को राजधानी बनाया गया. विद्वानों का मत है कि प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग ने सन् 634 ई. में अपने यात्रा वृतान्त में ब्रह्मपुर कहा है वह यही श्रीनगर (गढ़वाल) है. यद्यपि कुछ कुछ विद्वान बिजनौर के बढापुर कस्बे को भी ब्रह्मपुर मानते हैं. किन्तु हरिद्वार से दूरी व विशेष पर्वतीय छवि के वर्णन से नगर ही ब्रह्मपुर सिद्ध होता है. बहरहाल, प्रथम गढ़वाल नरेश में सर्वप्रथम अपने राज्य की सीमाओं का सुदृढीकरण किया. गढ़वाल का दक्षिणी-पश्चिमी भाग जो वर्तमान बिजनौर व सहारनपुर जिलों से सीमा बनाता है विशेषरूप से निरापद नहीं था. आए दिन दुर्दान्त दस्यु दल मैदानी क्षेत्रों में लूट-पाट करके मार व तराई के जंगलों में आ छिपते थे और प्राय:निकटवर्ती गद्वाल,लालढांग कस्बे के उत्तर में महायगढ़ व राज्य की प्रजा को भी उत्पीड़ित करते थे. अतएव वर्तमान पार्श्व में लंगूरगढ़ नामक किलों को ढुगड्डा के सुदृढ किया गया और घास-पानी-लकड़ी की सुविधा के कारण दुगड्डा में विशेष घुड़सवार सेना तथा माल-लंगूरगढ़ के अन्तर्गत बनाया गया.
परिवहन के लिए खच्चर-पड़ाव के मुख्यालय गढ़वाली पंवाड़ों में भीमसेन के अवतार के रूप में वर्णित महाबली महाराजा बलभद्रपाल का आखेट के समय दुगड्डा-भाबर के बनों में अचानक ही वर्ष 1573 में दिल्ली के तत्कालीन सुल्तान सिकन्दर लोदी से भेंट हुई थी. सुलतान शिवालिक की तराई के क्षेत्र में मैदानों में मार-काट करकों वे पर्वतों में छिपने वाले दस्यु-दलों के उन्मूलन के लिए पर्वतीय (लेगूर गढ़) से सैनिकों की मदद चाही. महाराजा गढ़वाल ने दुगड्डा महाबगढ़ की सेनाओ को यह काम न सौंपा और इनमें सेनाओं के द्वारा ऐसे तमाम दुर्दान्त पकड़-पकड़ कर दिल्ली भेज दिये. सुलतान ने प्रसन्न होकर महाराजा बल्भद्र्पाल को खिलअत व ‘शाह’ की पदवी भेजी और तब कि से महाराजा बलभद्र शाह के नाम से प्रतिष्ठापित हुए और उनके उत्तराधिकारी गढ़वाल नरेशों ने अपने साथ इस पदवी को धारण किया.
गढ़वाल दुगड्डा मंडी का विकास व हास-लंगूरगढ़ (दुगड्डा) व महावगढ़ की सबल सैन्य टुकड़ियों की सतर्कता के कारण दुगड्डा से नजीबाबाद तक का क्षेत्र पूर्ण निरापद हो गया और एक-आधा बार छुट-पुट रोहेला हमलों के अतिरिक्त लगभग सन् 1805 तक गेरखों के द्वितीय आक्रमण तक गढ़वाल राज्य में शान्ति सुव्यवस्था रही. अतएव अपनी विशेष सुविधाओं तथा पर्वतीय व मैदानी क्षेत्र के मध्य में स्थिति के कारण दुगड्डा सारे राज्य की एक महत्वपूर्ण व्यापारिक मंडी बन गया. उत्तर में ठेठ तिब्बत तक के व्यापारी व मध्य हिमालय क्षेत्र के निवासी पैदल (ढाकरी) भेड़-बकरियों व छोड़े-खच्चरों पर तिब्बती ऊन, शाल, गलीचे, कस्तूरी, शब्द, शिलाजीत, मृगचर्म, चंवर फल व की मंडी तक पहुंचाते व मैदानी क्षेत्र से आए गुड़-खांड, सूती वस्त्र आदि अनेकानेक जीवन की आवश्यक वस्तुएं वापसी में ले जाते. भाबर के बांस व बिजनौर के- भांतू तथा बनजारों द्वारा लाए गए खच्चरों व टट्टूओं के क्रय-विक्रय की दुगड्डा प्रमुख मंडी बन गया व यहां से पर्वतीय क्षेत्रों को खाद्यान का भी व्यापार बढ़ने लगा सन् 1684 में महाराजा फतेहशाह एवं दिल्ली के सम्राट औरंगजेब के मध्य प्रथमबार राजदूतों के आदान-प्रदान के कारण मैदानी एवं पर्वतीय क्षेत्र के आर्थिक सम्बन्धों में और भी स्थायित्व आया और हो गया. दुगड्डा मंडी का गढ़वाल राज्य के व्यापार पर एकाधिकारहो गया.
जिस समय दुगड्डा गढ़वाल के व्यापार का केन्द्र बन गया था उस समय तक गढ़वाल मंडल का वर्तमान बड़ा नगर देहरादून अस्तित्व में भी नहीं आया था और ऋषिकेश भी सघन शाल बनों के मध्य साधु-संतों की पर्णकुटियों वाला गंगातीर्थ मात्र था. सन् 1688 में सम्राट औरंगजेब की किसी नाराजगी के कारण सिक्खों के सातवें गुरु हरनाम जी के पुत्र गुरु रामराय महाराजा फतेहशाह के राज्यकाल में श्रीनगर (गढ़वाल पहुंचे और उन्होंने वर्तमान मिला देहरादून में कुछ भूमि मन्दिर के निर्माण हेतु मांगी. महाराजा भूमि द्वारा उन्हें तत्कालीन खुड़बुड़ा आदि ग्रामों को जागीर में दे दिया. जो संघन बनों को कांट-छांट कर व झंडा गाड़ कर गुरु रामराय ने अपना डेरा डाल दिया. इसी ‘डेरा’ शब्द व गढ़वाली शब्द ‘दू’ (द्रोण घाटी) को मिलाकर यह स्थान डेराद्रोण कहलाया है जो कालान्तर में देहरादून हो गया, (हालांकि) गढ़वाल में इसे अब भी डेरादूण ही कहते हैं. इस प्रकार दुगड्डा मंडी की स्थापना के बजे पश्चात देहरादून वजूद में आया.
अठारहवीं शताब्दी के अन्त में अनायास नेपाल की गोरखा सैन्य शक्ति ने विकराल रूप धारण कर लिया और वह पूर्व में असम और पश्चिम में कश्मीर तक के समस्त तराई व हिमालयी क्षेत्र को अपने अधीन लाकर वृहत्-हिमालमी. हिन्दु राष्ट्र की स्थापना के लिए कटिबद्ध हो गई. बतौर प्रयोग के सर्वप्रथम सन् 1789 के आस-पास कुमाऊं के चम्पावत व पाली से रामगंगा पार करके गोरखा सेना ने दक्षिण गढ़वाल के लंगूरगढ़ दुर्ग पर, दुगड्डा होते हुए आक्रमण करें दिया. किन्तु गढ़ के असवाल ठाकुरों की सैन्य टुकड़ीने शत्रु सेना के दांत खट्टे कर दिए और उसे भाग कर काली नदी पार अपनी सीमाओं में सिमटना पड़ा. किन्तु गोरखा प्रथम हार से निराश होने वाले न थे. दुबारा सन् 1803 के आस-पास वह पुनः पूर्ण संगठित होकर पश्चिम की ओर दिग्विजय के लिए निकल पड़े. इस बार कुमायूं राज्य के परचम उखाड़ कर गोरखा सैन्य बल ने गढ़वाल के गुजङ्गढ़ को रौंदते हुए मंदालनदी की घाटी के रास्ते पुनः लंगूर गढ़ पर जबर्दस्त हमला कर दिया. गढवाली सैनिक वीरतापूर्वक लड़े किन्तु श्रीनगर से कुमुक न पहुंचने के कारण अन्ततः लंगूर गढ़ का पतन हो गया. दुगड्डा मंडी सहित सम्पूर्ण दक्षिणी- पश्चिमी गढ़वाल को पदाक्रांत करते हुए गोरखों ने गढ़वाल की राजधानी श्रीनगर पर अधिकार प्राप्त कर लिया. दुगड्डा मंडी पूर्णत ध्वस्त हो गई और अंग्रेजों के हस्तक्षेप के भय से गोरखों ने शिवालक व मैदानी क्षेत्र-के रास्तों को पूरी तौर पर सील कर दिया. जिससे का रहा. सहा आधार भी समाप्त हो गया. बढ़ते हुए देहरादून नगर को भी गोरखा जनरलों ने नालागढ़ छावनी में बदल दिया और वहीं से वे हिमाचल प्रदेश के रजवाड़ों को धूल चटा कर कुल्लू कश्मीर की सीमा तक अपने परचम लहराने लगे इस प्रकार गढ़वाल एवं कुमाऊं की जिस वीरभूमि को दिल्ली सुलतान मुहम्मद तुगलक की फौजें न हड़प सकीं और जो कभी भी दिल्ली के मुगल बादशाहों के सीधे नियंत्रण में नहीं रही उसे नेपाल की गोरखा सैन्य शक्ति के सामने घुटने टेकने पड़े. गोरखा सैन्य बल के द्वारा जनजीवन पर किए गए जुल्मों एवं अत्याचारों के कारण अब तक इस काल को ”गोरख्याणी” कहा जाता है जिसके सम्पूर्णपूर्ण जीवन का वर्णन तत्कालीन गढ़वाल के प्रसिद्ध चित्रकार एवं कवि श्री मौला राम तुंवर ने निम्न प्रकार किया है-
“कहते न भली बात कोई सात किस् की
राजी हैं चुगुलरकोर, नहीं दाद किस् की.
रैयत के घर न पैसा , कंगाल सब हुए.
तांबा रहा न कंसा , माटी के चढ़ गए.
टुकड़े का पड़ा सांसा , मंधेस बढ़ गए.
कपड़ा रहा में तन पर, भंगेले भि सङ् गए.
इसके पश्चात गोरखों द्वारा तराई के अंग्रेजी राज में घुसपैठ और अन्तत:अंग्रेजी फौजों द्वारा गोरखा शक्ति की पराजय गढ़वाल-कुमायूं की अंग्रेजी शैली की बन्दरबाट व भारतीय इतिहास की प्रसिद्ध सिगौली की सन्धि सन् 1816 से सभी अवगत हैं.
सन् 1815 में कुमायूं के आयुक्त के अधीन गद्वाल में जी. डब्ल्यू ट्रेल प्रथम स. आयुक्त नियुक्त हुए और गढ़वाल का पूर्वी भाग ब्रिटिश गढ़वाल कहलाया. विदेशी प्रशासन होते हुए भी अंग्रेजी राज में अपेक्षाकृत सुख शान्ति व्याप्त हो गई तथा मैदानी क्षेत्र से म मिलने वाले मार्ग निरापद हो गए. लंगूरगढ़ से पूर्व व दुगड्डा से पैदल 12 कि. मी. दूर कालेश्वर नामक स्थान को अंग्रेज गवर्नर लैन्सडाउन के नाम पर नामकरण करके एक सैनिक छावनी की स्थापना की गई. नजीबाबाद से कोटद्वार तक रेल लाइन बिछाई गई और लैन्सडाउन को कोटद्वार से दुगड्डा होते हुए मोटर मार्ग से मिलाया गया. गोरख्याणी के समय नष्ट प्राय: हो चुकी दुगड्डा मंडी में पुन: जीवन का संचार हुआ और यहाँ बड़े-बड़े मारवाड़ी तथा देशी, व्यापारियों ने अपने व्यापारिक संस्थान खोलने पूर्व व्यापारिक गौरव को प्राप्त करने लगी. दुगड्डा में पक्के भवन व बाज़ार बनने लगे और अन्नततः इसे नगर क्षेत्र घोषित कर दिया गया (जो अब नगरपालिका है.)
धीरे-धीरे अंग्रेजी राज की रस्सी कसती चली गई और अपनी खूबियों के साथ-साथ उसमें निरंकुशता बढ़ने लगी. अंग्रेज अफसर व शिकारी आदि जब दौरों पर निकलते तो गढ़वाल-कुमायूं के गरीब ग्रामीणों को मुफ्त बेगार पर पकड़ लेते और उन्हें सिर्फ साहबों का सामान ही नहीं वरन प्राय: शौच करने के ‘कमोड’ तक सिर पर ढ़ोने पड़ते, जिस क्षेत्र में भी पड़ाव होते उस क्षेत्र के लोगों की दूध व घी, भेड़-बकरी व खाद्यान मुफ्त में पहुंचाने की इयूटी होती. इस कुप्रथा का नाम ‘कुली बेगार’ के नाम मशहूर हुआ. इसका प्रतिकार सर्वप्रथम कुमायूँ केसरी बदरीदत्त पाण्डे के नेतृत्व में प्रारम्भ हुआ और उन्हीं के तत्वाधान में एक आन्दोलन संगठित होने लगा. इस आन्दोलन की प्रथम व द्वितीय बैठकें क्रमश: हल्द्वानी बागेश्वर एवं तीसरी गढ़वाल को विशाल बैठक दुगड्डा व कोटद्वार में आयोजित की गई. जिसकी परणीति अन्ततः इस कुप्रथा के समूल उन्मूलन से हुई. दुगड्डा में ही अपने को प्रथम कांग्रेसी कार्यकर्ता दर्ज कराते हुए गढ़ केसरी पं. अनुसुया प्रसाद बहुगुणा स्वनामधन्य बैरिस्टर मुकुन्दीलाल ने प्रथम कांग्रेस कमेटी की सन् 1920 में स्थापना की और दुगड्डा से ही गढ़वाल के अन्य भागों में इस संगठन को बढ़ाया गया.
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गढ़वाल के इतिहास में प्रथम बार 31 मई सन् 19 30 ई. को विराट कांग्रेस सम्मेलन आयोजित करने का श्रेय दुगड्डा को ही है, जिसकी अध्यक्षता पं. गोविन्द वल्लभ पंत ने की थी और प्रथम सत्याग्रह आन्दोलन की रूपरेखा बनाते हुए स्व.प्रताप सिंह नेगी को उसका संचालक नियुक्त किया गया था. सन् 1936 में दुगड्डा कांग्रेस कमेटी के निमंत्रण पर प्रथम बार पं. जवाहरलाल नेहरू गढ़वाल क्षेत्र में दुगड्डा नगर में ही पहुंचे और यहीं पर उन्होने गढ़वाल क्षेत्र में कांग्रेस संगठन की प्रगति की समीक्षा भी की थी. दुगड्डा कांग्रेस कमेटी की सिफारिश पर प्रथम विधान सभा चुनाव हेतु गढ़वाल से पं० अनुसया प्रसाद बहुगुणा व श्री जगमोहनसिंह नेगी को विधायक के चुनाव हेतु नामांकित किया गया. मंत्री मण्डल बनने पर गढ़वाल क्षेत्र की बहुत पुरानी मांग-दुगड्डा-पौड़ी. श्रीनगर-कर्णप्रयाग मोटर मार्ग की मांग स्वीकृत हुई और 19 फरवरी सन् 1936 को तत्कालीन मुख्यमंत्री–पन्त द्वारा इस मार्ग का उद्घाटन किया गया. तत्पश्च्चात विभिन्न सत्याग्रहों तथा सन् १९४५ के निर्णायक स्वतन्त्रता संघर्ष मवी दुगड्डा का अपना गौरवपूर्ण इतिहास है. एक केवल सत्याग्रहों में ही नहीं वरन दुगड्डा के नौडी व नाथूपुर के जंगलों में शहीदे आजम चन्द्रशेखर आज़ाद ने अपनी क्रांतिकारी टोली को गुप्तरूप से के शास्त्र परिचालन का प्रशिक्षण सन् १६३० में यहीं दिया था. जिसकी साक्षी नौडी के जंगलों के कुछ पुराने वृक्ष और उनके पुराने साथी श्री भवानी सिंह रावत आज भी देते हुए नहीं आघाते [ श्री रावत के प्रयासों से दुगड्डा में अमर शहीद की एक प्रतिमा भी स्थापित की गई है. दुगड्डा में ही वर्ष १६७१ में गढ़वाल क्षेत्र के स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों का सम्मेलन हुआ का जिसमें उन्हें प्रशस्ति ताम्र-पत्रों द्वारा सम्मानित किया गया था. इस प्रकार भारत के क्रन्तिकारी एव गांधीवादी दोनों प्रकार की विचारधाराओं से जुड़े स्वतन्त्रता संग्राम में इस कस्बे का योगदान रहा है.
सन् 1940 के बाद धीरे-धीरे तस्वीर के पहलू बदलने लगे व सुदूर पर्वतीय क्षेत्रों के लिए सीधे मोटर मार्गो के निर्माण के कारण धीरे-धीरे कोटद्वार, दुगड्डा का स्थान लेने लगा और एक दिन गढ़वाल का द्वार बन गया. पश्चिमी गढ़वाल का ऋषिकेष जो कभी साधु-सन्तों का अभयारण्य मात्र था, व्यापारिक केन्द्र बनने लगा और गढ़वाल के पूर्वी क्षेत्र का व्यापारिक सम्बन्ध हल्द्वानी व राम नगर मंडियों से स्थापित हो गया.
इस प्रकार सन् 1804 ई. के गोरख्याणी काल की के व्यापारिक-पलायन के पश्चात् अब दूसरी बार दुगड्डा के व्यापारी कोटद्वार अपना अन्यन्य जहां भी सींग समाए चले गए, जिसका क्रम अभी भी बना हुआ है. कोटद्वार गढ़वाल का द्वार भले ही बन गया हो किन्तु दुगड्डा अब भी अपनी जर्जर अवस्था में गढ़वा का चौराहा है जहां से हर दिशा को मोटर मार्ग फटते हैं. दो-चार सरकारी दफ़तर, आई. टी. आई. व इन्टर तक की अन्य छोटी मोटी शिक्षा संस्थाओं के सहारे भला अब जो कुछ दूकानें यहां ठहरी हैं वे कब तक ठहर सकती हैं? जुगाड़ फिट होने पर उनके मालिक भी एक न एक दिन नौ दो ग्यारह हो जाएंगे कब तो गढवाल का यह उजाड़ किन्तु बीरान गलियों साफ-सुथरा नगर अपनी पक्की कौड़ी सड़कों और प्रकाश शून्य बिजली के खम्भों बीच इक्कीसवीं सदी ताक रह है. इस उम्मीद में “क्या पता कभी तो दिन बहुरेंगे.”
वहां शून्य सड़कों पर जाड़ों में शेष निवासी निश्चिंत होकर धुप सेंक लेते हैं. अथवा ताश-शतरंज खेल कर अपना अब बहला लेते हैं. बड़ा शोर था कि पौड़ी टीवी टावर बनने से यहां की खुश्की कुछ दूर होगी और बोलती तस्वीरें देख कर यहां के लोग अपना कुछ गम गलत कर लेंगे किन्तु यह स्वप्न भी दिवा स्वप्न ही सिद्ध हुआ. फिर सही सुना कि इसकी लंगूरी नदी पर एक बाँध बन रहा है जिस पर लाखों खर्च भी हो चुका था. भविष्य के प्रति आस भी बची थी किन्तु सिर मुड़ाते ही ओले पड़े और सुना कि एक सुहानी सुबह बांध का अमला सहित माल-मसाले के अपना बिस्तर गोल कर चुका है और योजना ऊपर से निरस्त की जा चुकी है.
इस प्रकार गढ़वाल के संघर्ष पूर्ण इतिहास का जनक यह नगर किसी जुझारू किन्तु वृद्ध सेनापति की तरह उपेक्षित होकर अपने हथियारों सहित धाराशायी होने जा रहा है. आब उड़ गई, बस रूह रह गई है. न सरकार साथ दे रही है और न भाग्य. अदने से अदने कस्बों को ईनाम की मिठाई बंट चुकी है किन्तु दुगड्डा किसी सीधे-साधे बच्चे की तरह उनका मुँह भर ताकता रह गया है. अब भी समय है कि इस सुन्दर कस्बे को औद्योगिक तथा पर्यटन स्थल के रूप में विकसित किया जाय ताकि यह गढ़वाल क्षेत्र में अपने पुराने गौरव को प्राप्त कर सके. यह नगर मुश्तहक है. (Dugadda City Garhwal)
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