उत्तराखण्ड का एक महत्वपूर्ण क़स्बा है धारचूला. यह उत्तराखण्ड के कुमाऊँ मंडल का एक सीमान्त क़स्बा है. पिथौरागढ़ जिला मुख्यालय से 95 किमी की दूरी पर स्थित यह क़स्बा शताब्दियों से कैलाश-मानसरोवर यात्रा मार्ग का एक अहम् पड़ाव भी है. 2011 की जनगणना के अनुसार इसकी जनसँख्या 65,689 थी. मानसरोवर जाने वाले यात्री यहाँ के प्राकृतिक गरम पानी के कुंड में स्नान करके यहाँ से आगे जाया करते थे. इस गरम पानी के कुंड में स्नान करके उनकी सारी थकान दूर हो जाया करती थी.
यह क़स्बा नेपाल और भारत का सीमान्त क़स्बा भी है. यहाँ पर बहने वाली काली नदी नेपाल और भारत के बीच एक सीमा रेखा बनाती हुई चलती है. इसके अलावा चीन की सीमा भी यहाँ से ज्यादा दूर नहीं है. इसलिए यह सामरिक दृष्टि से भी भारत का एक महत्वपूर्ण क़स्बा बन जाता है. किसी समय में यह भारत के चीन व नेपाल के साथ व्यापार का भी एक महत्वपूर्ण केंद्र हुआ करता था. कत्यूर राजवंश के समय यह व्यापार वस्तु विनिमय के रूप में हुआ करता था.
1960 में पिथौरागढ़ के एक जिले के रूप में गठन के बाद धारचूला उसकी एक प्रशासनिक इकाई के रूप में तहसील मुख्यालय बन गया. इस समय तक यह अल्मोड़ा जिले का एक परगना और चौंदास घाटी का एक क़स्बा हुआ करता था. यहाँ चौंदास और ब्यांस घाटी की रंग, शौका जनजाति के बाशिंदों के शीतकालीन आवास हुआ करते थे. ठण्ड के ख़त्म होने पर यह लोग अपने मुख्य आवासों की ओर लौट जाया करते थे. वक्त बीतने के साथ यहाँ इन्हीं घाटियों के लोगों के स्थायी आवास भी बनाने शुरू हो गए.
धारचूला नाम के बारे में कहा जाता है कि यह क़स्बा तीन तरफ से पहाड़ी से घिरा है. यह पहाड़ियां इसी तरह का भान देती हैं जैसे कि चूल्हे के तीन तरफ तीन पत्थर या मिट्टी के दीवारें. अतः तीन धारों के चूल्हे के समान भौगौलिक स्थिति होने से ही इसका नाम धारचूला पड़ा. इस सम्बन्ध में एक जनश्रुति भी है कि महाभारत की लड़ाई के बाद पांडवों के विजयोत्सव में भाग लेने के लिए व्यास को निमंत्रण देने के लिए भीम ब्यांस घाटी पहुंचे. जब वे व्यास को निमंत्रण देकर ब्यांस घाटी से लौट रहे थे तो यहाँ उन्होंने अपना भोजन बनाया. भोजन बनाने के लिए उन्होंने आसपास के तीन पहाड़ों को जोड़कर एक चूल्हा बनाया. इस जगह पर पहाड़ी धारों को जोड़कर चूल्हा बनाने के बाद से इस जगह को धारचूला कहा जाने लगा.
धारचूला से मात्र 35 किमी की दूरी पर 1936-37 में स्थापित नारायण आश्रम भी है.
यहाँ के जनजातीय बाशिंदे बेहतरीन पशुपालक भी हुआ करते हैं. इसलिए यहाँ पर भेड़ की ऊन से बने कपड़े, गलीचे, चुटके, पंखियाँ आदि विश्व भर में प्रसिद्ध हैं.
काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री
काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें
लम्बी बीमारी के बाद हरिप्रिया गहतोड़ी का 75 वर्ष की आयु में निधन हो गया.…
इगास पर्व पर उपरोक्त गढ़वाली लोकगीत गाते हुए, भैलों खेलते, गोल-घेरे में घूमते हुए स्त्री और …
तस्वीरें बोलती हैं... तस्वीरें कुछ छिपाती नहीं, वे जैसी होती हैं वैसी ही दिखती हैं.…
उत्तराखंड, जिसे अक्सर "देवभूमि" के नाम से जाना जाता है, अपने पहाड़ी परिदृश्यों, घने जंगलों,…
शेरवुड कॉलेज, भारत में अंग्रेजों द्वारा स्थापित किए गए पहले आवासीय विद्यालयों में से एक…
कभी गौर से देखना, दीप पर्व के ज्योत्सनालोक में सबसे सुंदर तस्वीर रंगोली बनाती हुई एक…
View Comments
धारचूला तो तिब्बती शब्द दारचू-ला का व्युत्पन्न है !