सुबह बरसात में ही धारचूला छोड़ दिया, जल्दी करते हुए भी 6.30 बज चुके थे. 22.09.2018 को धारचूला घने काले बदलो के आगोश में था. मन में डर और आनंद के मिले-जुले भाव आ रहे थे. मालूम तो था कि रास्ता इतना आसान नहीं होने वाला, फिर भी जल्दी के चक्कर में बिना चाय के निकल पड़ा.
शाम को कौसानी के आस पास पहुंचने का खाका दिमाग में तैयार किया था. हालांकि मुझे एक दिन पहले ही मदकोट पहुंच जाना था, जो धारचूला से लगभग 70 किलोमीटर था. लेकिन नारायण आश्रम से मैं धारचूला शाम 4.30 पर पहुंचा. फिर मैंने प्लान बदलकर धारचूला ही रुकना ठीक समझा.
तो सुबह 6.30 बजे मैं धारचूला से इस उम्मीद में निकला कि 9.30, 10.00 बजे तक मुन्स्यारी पहुंच जाऊंगा, क्यूंकि इस मौसम में मुन्स्यारी की सुंदरता ना देखने से पाप लगता है, तो धारचूला से नीयत गति से मैं चल पड़ा. धारचूला से जौलजीबी का रास्ता कोई 27 किलोमीटर का है. रास्ते भर कुहासा (हौल,) बारिश क्रम से मिलती रही. धारचूला से बलुवाकोट तक रोड आप ठीक-ठाक कह सकते हैं, लेकिन बलूवाकोट से जौलजीबी का रास्ता आपके पूरे शरीर की परीक्षा लेता है. नीचे काली नदी अपने वेग से आपको डराती रहती है. जौलजीबी से मुझे एक पुलिस कर्मी द्वारा लिफ्ट का इशारा हुआ. हमेशा की तरह मैंने अपना पिट्ठू बैग पीछे वाली सीट पर बांधा था, जो कई बार आपको अनचाही स्थितियों से उबार लेता है. आज भी मैंने वो ही किया था. मैंने जौलजीबी से मदकोट के रास्ते की स्थिति का पता लगाने के लिए अपनी बाइक रोकी तो सामने से इस अनुरोध को मैं मना न कर पाया. मैंने भी सोचा जौलजीबी से मदकोट का गोरी किनारे का रास्ता बात करते करते कट जायेगा. तो उनको साथ में कर लिया.
बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ तो पता लगा वे चौबटिया, रानीखेत के हैं, आज मुन्स्यारी कुछ काम है. गोरी के किनारे हम बढ़ने लगे. अभी तक मौसम महरबान था, लेकिन आगे की ओर देख कर एक बार कंपकपी उठना लाजमी था. जौलजीबी से मदकोट का रास्ता मुझे बड़ा अच्छा लगता है, इस रूट में बाइक दौड़ाना गजब का अनुभव है. एक तरफ गोरी अपने तेज वेग से आपको अपनी ओर बार-बार देखने के लिए मजबूर करती है, वहीं दूसरी ओर के गाँव, और उनकी उपज भी देखने लायक होती है. इस पट्टी में धान के खेत आपको नहीं मिलेंगे, यहां केले, बांस, नाशपाती, अखरोट के पेड़ देखते बनते हैं.
मदकोट से पहले पहले एक पुराने लकड़ी के पुल की जगह लोहे का एक बड़ा पुल बन रहा है, जो आने वाली समय में नया रास्ता होगा. यहीं से आपका इम्तिहान शुरू होता है. रास्ते की भयानक तस्वीरें यहीं से दिखनी शुरू होती हैं. यहां गाँव नहीं हैं, एक तरफ़ गोरी है दूसरी तरफ पूरे पहाड़ का मलबा. जिसमें कुछ बड़े पत्थर हल्की मिट्टी से जुड़े हैं, जो हल्की या तेज बारिश में कभी भी तेजी से नीचे आ सकते हैं. ये अच्छे खासे चौपहिया वाहन को अपने साथ नीचे गोरी में ले जा सकते हैं. तो इस रूट में चलते हुई एक नजर ऊपर पड़ना लाजमी है. ऊपर-नीचे देखते किसी तरह मदकोट पहुचते हैं, घड़ी 10 बजे का इशारा कर रही है. ये समय मैंने मुन्स्यारी पहुँचने के लिए सोचा था, लेकिन ख़राब रास्ते की वजह से इतना टाइम लगना कोई बड़ी बात नहीं थीं.
अब मदकोट से मुन्स्यारी करीब 22 किलोमीटर का सफर रहता है, जिसे लगभग 1 घंटे में तय किया जाता है. अभी तक रूट अच्छा तो नहीं कहा जा सकता था, हाँ! रास्ते के पत्थरों से गाड़ी किसी तरह निकल ही जा रही थी. अब दूसरी तरह की चुनौती सामने खड़ी थी – क्यूंकि मदकोट से मुन्स्यारी चढ़ाई वाला रास्ता है जबकि जौलजीबी से मदकोट सीधा रास्ता. अब चुनौती ये थी कि यहाँ जो मलबा रोड पर आया था उसमें पत्थर नहीं थे, उसमें बस मिट्टी थी, जो पानी पड़ने से कीचड़ की शक्ल ले चुकी थी. गहराई इतनी कि करीब घुटने तक का पैर उसमें समा जाए. इस किस्म के रास्ते से ज्यादा पाला नहीं पड़ा था. अब तक पहाड़ों के मलबे में अक्सर पत्थर मिलते रहे थे जिनमें बाइक चल ही जाती है, लेकिन अब इस फिसलन भरे कीचड़ में बाइक दौड़ाना आसान न था. ख़ैर किसी तरह ये मुश्किल भी पार हुई. सफर यूं ही चलता रहा, लेकिन आज लगता था वह असली टेस्ट था. आगे बढ़े तो करीब आधे किलोमीटर का चढ़ाई वाला ट्रेन्च मलबे से घिरा था और वहां जेसीबी लगी थी, करीब 8-10 मैक्स जामनुमा शक्ल में खड़ी थी. पूरी तस्वीर को देख कर आइडिया हो चला था कि करीब एक घंटे से ऊपर का ये जाम हो चला है.
पहाड़ों में बाइक का सफर आपको रुकने नहीं देता, हमने भी इसी का फायदा उठाया और किसी तरह उस हिस्से को पार कर लिया. अब मुन्स्यारी दूर नहीं था. दरकोट गाँव की बाज़ार हमें मिल चुकी थी. घड़ी भी सुबह के 11 बजा रही थी. मुन्स्यारी छोड़ने पर पुलिस महोदय द्वारा सिर्फ धन्यवाद ही नहीं दिया गया, अलबत्ता एक होटल में खाने का प्रबंध भी कर दिया गया था. लेकिन मुझे मुन्स्यारी में रह रहे अपने दोस्त सुरेंद्र से मिलना था, तो मैंने उनसे विदा ली. विदा समारोह में करीब 5 बार हाथ मिलाया गया और अगली बार उनका आथित्य स्वीकार करने की शर्त पर ही समारोह ख़तम हुआ, जिसे मैंने स्वीकार कर लिया. अब मैं मुन्स्यारी पहुंच गया था. मैं सीधा सुरेंद्र भाई के ऑफिस गया और उनसे बातचीत में लग गया. इस साथ में साथ दिया चाय और मुन्स्यारी की मीठी ब्रेड ने!
अल्मोड़ा ताड़ीखेत के रहने वाले मुकेश पांडे अपने घुमक्कड़ी धर्म के चलते डोई पांडे नाम से जाने जाते हैं. बचपन से लखनऊ में रहने के बाद भी मुकेश पांडे के दिल में पहाड़ खूब बसता है. अपने घुमक्कड़ी धर्म के लिये ही पिछले पांच साल से प्रमोशन को ठुकरा कर लखनऊ के एक बैंक में घुमक्कड़ी के वास्ते ही नौकरी भी कर रहे हैं.
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