समाज

देवस्थानम बोर्ड का जिन्न फिर बोतल से बाहर

उत्तराखंड में देवस्थानम बोर्ड का जिन्न एक बार फिर बोतल से बाहर निकल आया है. शुरू तो विवाद पर्यटन मंत्री सतपाल महाराज के बयान से हुआ, जिसमें कहा गया कि उत्तराखंड सरकार का देवस्थानम बोर्ड पर पुनर्विचार करने का कोई इरादा नहीं है. बाद में सतपाल महाराज ने कहा कि उनके बयान को तोड़-मरोड़ करके पेश किया गया. मामला इतने पर ही नहीं रुका. उत्तराखंड सरकार ने मुकेश अंबानी के पुत्र अनंत अंबानी को देवस्थानम बोर्ड का सदस्य नियुक्त किया. साथ ही कुछ तीर्थ पुरोहितों को भी बोर्ड का सदस्य सरकार ने नियुक्त कर दिया. इससे आक्रोश पुनः भड़क उठा. पहले इस देवस्थानम बोर्ड की मामले में घटनाओं का सिलसिलेवार ब्यौरा समझ लेते हैं. फिर इस बोर्ड के मुख्य बिंदुओं की भी चर्चा करेंगे.
(Devasthanam Board Controversy Uttarakhand)

उत्तराखंड की भाजपा सरकार, त्रिवेन्द्र रावत के मुख्यमंत्रित्व में दिसंबर 2019 में विधानसभा के शीतकालीन सत्र में तीर्थ स्थलों के संदर्भ में एक विधेयक लाई जिसका शुरुआती नाम- उत्तराखंड श्राइन बोर्ड विधेयक था. बाद में विधानसभा में इसका नाम-उत्तराखंड देवस्थानम विधेयक,2019 हो गया. इस विधेयक के खिलाफ चार धाम के तीर्थ पुरोहित और अन्य हक-हकूकधारी सड़कों पर उतर आए. दो बार उन्होंने विधानसभा पर प्रदर्शन किया. 18 दिसंबर 2019 को उत्तरकाशी में और 20 दिसंबर 2019 को श्रीनगर(गढ़वाल) में इस विधेयक के खिलाफ बड़ी रैलियां आयोजित की गयीं.

इस मामले में भाजपा के राज्यसभा सांसद सुब्रमण्यम स्वामी ने उत्तराखंड उच्च न्यायालय में याचिका दाखिल की जिसे न्यायालय ने जुलाई 2020 में खारिज कर दिया.

तीर्थों से जुड़े तमाम लोगों की यह आशंका शुरू से रही है कि यह विधेयक न केवल तीर्थ पुरोहितों को बल्कि तीर्थ स्थलों में छोटे-मोटे व्यवसाय करके जीवनयापन करने वाले-घोड़ा-खच्चर, डंडी-कंडी वालों, फूल-प्रसाद बेचने वालों के हितों को भी प्रभावित करेगा. जिस तरह से उत्तराखंड सरकार विधेयक लाने से पहले संबन्धित पक्षों से वार्ता करने से बचती रही, उसने इस आशंका को और बल दिया. विधेयक इतना गुपचुप तरीके से लाया गया कि विधानसभा में पेश किए जाने से पहले सत्ता पक्ष के विधायकों को भी इस बारे में कोई ठोस जानकारी नहीं थी.

भारत के संविधान में यह उल्लिखित है कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है. यहाँ नागरिकों का तो धर्म है, अनुच्छेद 25 में नागरिकों को पूजा का अधिकार भी दिया गया है. लेकिन राज्य धर्मनिरपेक्ष है. जो श्राइन बोर्ड विधेयक सरकार उत्तराखंड की भाजपा सरकार ने पारित किया, उसमें श्राइन बोर्ड का अध्यक्ष ही मुख्यमंत्री होगा. इतना ही नहीं, यह शर्त भी रखी गयी है कि श्राइन बोर्ड का अध्यक्ष मुख्यमंत्री तभी होगा, जब वह हिन्दू हो. यदि वह हिन्दू नहीं होगा तो वह हिन्दू धर्म को मनाने वाले वरिष्ठ मंत्री को बोर्ड का अध्यक्ष नामित करेगा.
(Devasthanam Board Controversy Uttarakhand)

नामित किए जाने वाले 3 सांसदों और 6 विधायकों के लिए भी हिन्दू धर्म का अनुसरण अनिवार्य शर्त रखी गयी है. संविधान का अनुच्छेद 15 तो कहता है कि किसी नागरिक के साथ धर्म, नस्ल, जाति, लिंग या जन्मस्थान के आधार पर भेदभाव नहीं किया जा सकता. उत्तराखंड की भाजपा सरकार ने जो कानून पास किया, उसमें मुख्यमंत्री, सांसद, विधायकों के साथ ही धार्मिक आधार पर भेदभाव की व्यवस्था कर दी.

देवस्थानम बोर्ड क्या है, एक जम्बो-जेट समिति है. इसमें मुख्यमंत्री के अलावा धर्म-संस्कृति के मंत्री होंगे, मुख्य सचिव, पर्यटन सचिव, धर्म, संस्कृति के सचिव, वित्त सचिव के अलावा भारत सरकार के पर्यटन एवं संस्कृति मंत्रालय के संयुक्त सचिव या उससे ऊपर पद के व्यक्ति, विशेष आमंत्रित सदस्य होंगे. उपरोक्त सभी शासकीय सदस्यों की श्रेणी में रखे गए हैं. इसके अलावा नामांकित सदस्यों की भी एक लंबी चौड़ी श्रृंखला है. इस लंबी चौड़ी श्रृंखला में से नामांकित सदस्यों की दो श्रेणियों का उल्लेख करना समीचीन होगा.

नामांकित सदस्यों में सबसे पहले रखे गए हैं- पूर्व टिहरी रियासत के राजपरिवार के सदस्य. सवाल यह है कि जब राजशाही खत्म हो गयी, भारत लोकतन्त्र हो गया तो राजपरिवार को श्राइन बोर्ड में रखने का क्या औचित्य है?

चार दान दाताओं को भी नामित करने की व्यवस्था है. दान दाताओं की श्रेणी बड़ी रोचक है. भूत, वर्तमान और भविष्य के दान दाता नामित किए जाएँगे. भविष्य के दान दाता, ऐसी अद्भुत श्रेणी तो आज तक देश के किसी कानून ने नहीं देखी होगी. कैसे और कौन तय करेगा कि अमुक-अमुक व्यक्ति भविष्य का दान दाता है? अनंत अंबानी की नियुक्ति इसी श्रेणी में की गयी है.
(Devasthanam Board Controversy Uttarakhand)

इस जम्बो जेट बोर्ड के अंदर ही प्रबंधन के लिए उच्च स्तरीय समिति का प्रावधान है. यह समिति भी खूब लंबी चौड़ी है. इसमें मुख्य सचिव, पर्यटन, संस्कृति, वित्त, राजस्व, लोक निर्माण, शहरी विकास, ग्रामीण विकास, स्वास्थ्य, नागरिक उड्डयन के सचिव होंगे. इस तरह देखें तो मुख्य सचिव और कतिपय सचिव बोर्ड के साथ बोर्ड की एक समिति में भी होंगे. व्यक्ति एक, पर देवस्थानम बोर्ड में वह दो बार होगा! बोर्ड के सदस्य की हैसियत से मुख्य सचिव, उच्च स्तरीय समिति के अध्यक्ष यानि कि मुख्य सचिव को निर्देश जारी करेंगे कि यात्रा का प्रबंध और समन्वय ठीक तरीके से होना चाहिए.

बोर्ड के पूरे ढांचे को देख कर राज्य में नौकरशाही प्रभुत्व को भली-भांति समझा जा सकता है. श्राइन बोर्ड में सर्वाधिक संख्या नौकरशाहों की है. बोर्ड का मुख्य कार्यकारी अधिकारी अखिल भारतीय सेवा का उच्चतम वेतनमान के ग्रेड वेतन वाला अफसर होगा. एक्ट के विभिन्न भागों में मुख्य कार्यकारी अधिकारी को प्राप्त अधिकारों को देखें तो ऐसा लगता है कि वह बोर्ड के अंदर असीमित अधिकारों का स्वामी होगा. उच्च अधिकार प्राप्त समिति के बारे में एक्ट की धारा 11(2) में कहा गया है कि “समिति समय-समय पर बोर्ड द्वारा प्रत्यायोजित सभी शक्तियों का प्रयोग करेगी.” इससे स्पष्ट है कि बोर्ड में बहुमत और सारी शक्तियों के स्वामी अंततः नौकरशाह ही होंगे. नौकरशाही के वर्तमान तौर-तरीकों को देखते हुए सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि हक-हकूक, अधिकार के प्रति उनका रवैया कितना संवेदनशील और सकारात्मक होगा.

नौकरशाहों के प्रभुत्व वाला इस बोर्ड को शक्ति संपन्न बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी गयी है. यहाँ तक प्रावधान कर दिया गया है कि धार्मिक स्थलों से संबन्धित संपत्तियाँ यदि सरकार, जिला पंचायत या नगरपालिकाओं के देख-रेख में हों तो वे सब बोर्ड को हस्तांतरित हो जाएंगी. जाहिर सी बात है कि ऐसी जो भी संपत्ति होंगी, वे जिला पंचायत या नगरपालिकाओं के लिए आय का स्रोत भी होंगी. तो इन निकायों को आय से महरूम करके, विकास का किस तरह की रेखा खींची जा रही है, यह समझना थोड़ा मुश्किल है.

इस विधेयक को लेकर एक बड़ा तर्क सरकार और विधेयक के समर्थकों द्वारा दिया गया कि बोर्ड के बन जाने के बाद इन धार्मिक स्थलों का विकास होगा. सत्ता पक्ष के एक विधायक का कहना था कि सरकार को सड़क, पुल, रास्ते आदि बनाने में सहूलियत होगी. क्या राज्य के किसी इलाके में विकास करने के लिए या सड़क, पुल, रास्ते आदि बनाने के लिए एक्ट बना कर वहाँ घुसना आवश्यक है? क्या अभी ये धार्मिक स्थल, सरकार के शासन क्षेत्र से बाहर हैं जो वहाँ सड़क, पुल, रास्ते आदि बनाने में सरकार को बाधा महसूस हो रही है? अगर वाकई सरकार चलाने वालों की यही समझ है तो उनकी समझ पर तरस ही खाया जा सकता है.
(Devasthanam Board Controversy Uttarakhand)

लेकिन क्या विधेयक में धर्म स्थलों में जन सुविधाओं के विकास के लिए सरकार द्वारा निवेश की बात कही गयी है? विधेयक की धारा 32(6) में तो कहा गया है कि बोर्ड किसी धार्मिक स्थल को बजट आवंटित करते हुए, उसकी वार्षिक आय को ध्यान में रखेगा. इसका आशय यह है कि जिस धार्मिक स्थल से जितनी आय होगी, उसे उतना ही बजट आवंटित होगा. जब बजट आय के अनुरूप ही मिलना है तो फिर सरकार के धार्मिक स्थलों को अपने हाथ में लेने से क्या फर्क पड़ने वाला है?

उत्तराखंड सरकार द्वारा पास कराया गया देवस्थानम बोर्ड विधेयक, तीर्थ स्थलों की जमीनें खुर्द-बुर्द करने को कानूनी जामा पहनाने के लिए पास कराया गया विधेयक है. बद्रीनाथ-केदारनाथ मंदिर समिति के पास ही उत्तराखंड के बाहर भी देश के विभिन्न हिस्सों में काफी ज़मीनें हैं. विधेयक कहता है कि चार धाम की किसी संपत्ति का विनिमय, विक्रय, गिरवी रखने या पट्टे पर देने की कार्यवाही, बिना बोर्ड की सहमति के नहीं की जा सकती. इसका स्पष्ट आशय है कि बोर्ड की सहमति के साथ उक्त अचल संपत्तियाँ बेची जा सकती हैं और पट्टे पर भी दी जा सकती हैं. उत्तराखंड की भाजपा सरकार ने त्रिवेंद्र रावत के ही मुख्यमंत्रित्व में प्रदेश की ज़मीनें बेचने की सारी बन्दिशों को विधानसभा में कानून बना कर हटा दिया है.

अब प्रदेश के पर्वतीय क्षेत्रों में औद्योगिक प्रयोजन के नाम पर कोई भी, कितनी भी जमीन खरीद सकता है. जो सरकार प्रदेश की ज़मीनें बचाने के लिए नहीं बल्कि उनकी बेरोकटोक बिक्री का कानून ला सकती है, वह धार्मिक स्थलों की ज़मीनों के मामले में ऐसा क्यूँ नहीं करेगी?

इस संदर्भ में यह भी ध्यान देना होगा कि धार्मिक स्थलों की अचल संपत्ति को बेचने या उसे पट्टे पर देने के लिए जिस बोर्ड की सहमति को हासिल करने की बात कही गयी है, उसे हासिल करना कतई मुश्किल नहीं है. बोर्ड के सदस्यों की संख्या भले ही भारी-भरकम हो, लेकिन कोरम पूरा करने के लिए अध्यक्ष और उपाध्यक्ष के अलावा केवल छह सदस्य ही और चाहिए.
(Devasthanam Board Controversy Uttarakhand)

कोढ़ में खाज यह कि विधेयक की धारा 9(1) में कहा गया है कि बोर्ड की किसी कार्यवाही को, बोर्ड में रिक्ति या बोर्ड के गठन में त्रुटि के आधार पर प्रश्नांकित या अमान्य नहीं किया जा सकता. इसका सीधा अर्थ यह है कि सरकार आधा-अधूरा बोर्ड बना कर या उसे विधेयक के अनुरूप न बना कर भी यदि उसके जरिये कोई फैसला ले ले तो उस फैसले को अमान्य नहीं किया जा सकेगा. बोर्ड अमान्य लेकिन उसका निर्णय मान्य – ऐसा कैसे संभव है? अगर तत्कालीन मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र रावत और उनकी सरकार की नीयत में खोट नहीं थी तो इस तरह का प्रावधान करने की जरूरत उन्हें क्यूँ पड़ी, जिसकी भाषा में ही मनमानी और तानाशाही की झलक है?

उत्तराखंड में सरकार द्वारा बनाए जाने वाले श्राइन बोर्ड या देवस्थानम बोर्ड के खिलाफ जो लोग सड़क पर उतरे, वे कोई भाजपा विरोधी लोग नहीं थे. बल्कि वे तो परंपरागत रूप से भाजपा समर्थक हैं, उनमें से कुछ तो भाजपा के पदाधिकारी भी हैं. इसके बावजूद भाजपा की सरकार ऐसा विधेयक लाई, जिससे ये लोग अपने परंपरागत धार्मिक अधिकारों पर हमला महसूस कर रहे हैं.

मार्च 2021 में जब उत्तराखंड में भाजपा के भीतर के अंतर कलह के बाद तीरथ सिंह रावत मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने देवस्थानम बोर्ड कानून पर पुनर्विचार और तब तक इसे स्थगित रखने का ऐलान किया. लेकिन इस बयान से आगे कोई कार्यवाही नहीं हुई. चार धाम यात्रा शुरू हुई तो उसके प्रबंधन का जिम्मा उसी देवस्थानम बोर्ड का था, जिसे स्थगित करने की घोषणा मुख्यमंत्री बनने के बाद तीरथ सिंह रावत कर चुके थे. और अब मुख्यमंत्री की घोषणा के अनुसार स्थगित किए गए उसी बोर्ड में नियुक्तियों का सिलसिला भी शुरू हो चुका है. रोचक यह भी है कि वे तीर्थ पुरोहित जो इस कानून के खिलाफ सड़कों पर उतरे, उनमें से भी मुट्ठीभर देवस्थानम बोर्ड में नियुक्त किए जा चुके हैं. यानि उत्तराखंड सरकार- फूट डालो, राज करो-का दांव चल चुकी है.

दरअसल जिस हिन्दू राष्ट्र का नारा दे कर भाजपा वोटों की फसल काटती रही है, यह विधेयक उसकी एक झांकी भर है. इस विधेयक के आइने में देखें तो भाजपा का वह प्रोजेक्टेड हिन्दू राष्ट्र, जिनके खिलाफ है, उन पर तो हमला करेगा ही, लेकिन उनके अधिकार भी सुरक्षित नहीं रहेंगे, जो उसके ध्वजवाहक होंगे. धार्मिक स्वतन्त्रता तभी तक सुरक्षित है, जब तक कि धर्म निजी विषय है. धर्म जैसे ही सत्ता के नियंत्रण में जाएगा तो वह धार्मिक स्वतन्त्रता को बढ़ाएगा नहीं बल्कि उसे बाधित ही करेगा. इसीलिए धर्म का निजी विषय बना रहना ही उचित है.
(Devasthanam Board Controversy Uttarakhand)

न्द्रेश मैखुरी 

इन्द्रेश मैखुरी 

इन्द्रेश मैखुरी का यह लेख नुक़्ता-ए-नज़र से साभार लिया गया है. नुक़्ता-ए-नज़र इंद्रेश मैखुरी का ब्लॉग है..

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