(पिछली क़िस्त – दिल्ली से तुंगनाथ वाया नागनाथ – 3)
हम बातें करते-करते उतरते रहे. गीता महिला समाख्या की जिला निदेशक हैं. उन्होंने नैनीताल जिले के विभिन्न इलाकों में महिलाओं की स्थिति के बारे में तमाम बातें बताईं. उनके जीवन संघर्ष के अनुभव सुनाए. साथ ही साहस जुटा कर या संगठित होकर अन्याय का विरोध करने के उदाहरण भी दिए. यह सुन कर बहुत अच्छा लगा कि महिलाओं को कापी और कलम देकर उन्हें अपने विचार लिखने के लिए प्रेरित किया जा रहा है. हम लोगों ने चलते-चलते बेबी हालदार और उसकी किताब‘‘आलो आंधारी’ पर भी बातचीत की.
हम लोग बातों में ही खोए थे कि देखा चोपता पहुंच गए हैं. साथी हमारा इंतजार कर रहे थे. वहां चाय पी. कुछ लोगों ने भोजन भी किया और वापसी यात्रा शुरु की. थोड़ा ही आगे आए थे कि एक मोड़ पर से ठीक सामने पहाड़ पर तीन बड़ी-सी गुफाएं दिखाई दीं. उनमें से एक तो बहुत बड़ी थी. वहां कौन रहता होगा? चिड़ियों के अलावा वहां पहुंच भी कौन सकता है? कहीं चिड़िया-खोड़ यही तो नहीं?
चोपता से गोपेश्वर चमोली होते हुए सायं लगभग 6-30 बजे कर्णप्रयाग पहुंचे. तय कर चुके थे कि अधिकतम जहां तक भी जा सकेंगे, जाएंगे और फिर रात्रि विश्राम करके सुबह-सुबह अपने गंतव्य की ओर निकल पड़ेंगे. शेखर रात्रि विश्राम और भोजन की व्यवस्था में जुट गया. लौट कर कहा, “खुशी का समाचार यह है कि गैरसैंण में कुमाऊं मंडल विकास निगम के विश्राम गृह में कमरे बुक हो गए हैं. भोजन का भी आर्डर दे दिया गया है. जब हम वहां पहुंचेंगे तो गर्मा-गरम भोजन मिलेगा. बस, करीब इकत्तीस किलोमीटर और.”
कर्णप्रयाग घाटी में हमारे आसपास ही कहीं किसी पेड़ पर ‘ कुहू….कुहू’ कोयल बोल रही थी हालांकि शाम के 7 बज रहे थे. ठीक सवा सात बजे हम गैरसैंण की ओर रवाना हो गए. हमें 15 किमी. दूर आदिबद्री से होकर जाना था. घाटी में तेजी से अंधेरा घिरने लगा और अंधेरे में पहाड़ों पर बसे गांवों की रोशनियां जगमगाते तारों का अहसास कराने लगीं.
हम अंधेरे में कर्णप्रयाग-गैरसैंण मार्ग पर आगे बढ़ रहे थे. दिन भर की यात्रा से थक चुके थे. बाहर कुछ दिखाई नहीं दे रहा था. इसलिए गाड़ी के भीतर बैठे-बैठे यों ही इधर-उधर की चर्चा करने लगे. मैं साथियों को पहले ही बता चुका था कि इस मार्ग से मैं पहले भी जा चुका हूं और यह हमें नीचे पिंडर घाटी से पहाड़ पर ऊपर और ऊपर ले जाकर बांज-बुरांश के जंगल से होता हुआ दिवालीखाल पहुंचा देगा. रामू बहुगुणा काफी उत्सुक होकर प्रकाश से पूछते जा रहे थे, “अच्छा, यहां से यह रास्ता कहां-कहां होकर जाएगा? प्रकाश अपनी याददाश्त के आधार पर जगहों के नाम बता रहे थे. बता रहे थे कि आदिबद्री में थोड़ी देर जरूर रुकेंगे. उस स्थान का ऐतिहासिक महत्व है. वहां प्राचीन मंदिर हैं, उनका वास्तु- शिल्प देखेंगे.” लेकिन, जब वे यह चर्चा कर रहे थे, उससे काफी देर पहले आदिबद्री पीछे छूट चुका था. अंधेरे में अंदाज नहीं आया या शायद यह चर्चा ही देर में शुरु हुई. हां, हम वहां रुकते तो सोलह प्राचीन मंदिरों का वर्तमान जरूर देख सकते थे. वहां बद्रीनारायण का मंदिर भी देखते. शायद वहां कोई उस किंवदंती के बारे में भी बताता कि एक समय आएगा जब पहाड़ों के आपस में मिल जाने के कारण जोशीमठ-बद्रीनाथ मार्ग बंद हो जाएगा और तब यही बद्रीनारायण मुख्य मंदिर हो जाएगा. लेकिन, कौन किसे बताता? हम तो गैरसैंण मार्ग पर घूम-पर-घूम पार करते हुए पहाड़ में ऊपर जा रहे थे. नीचे पिंडर घाटी में अब रोशनियों के बिंदु छोटे और छोटे होते जा रहे थे.
रामू बार-बार शीशे से बाहर देखने की कोशिश करते हुए बुदबुदा रहे थे, ‘‘शेखरदा ने कहा था वहां बांज और देवदार के पेड़ हैं. घना जंगल है. शायद आपने भी कहा था?’ उन्होंने मेरा नाम लेकर पूछा.
“हां, मैंने कहा था. कहा था, यहां बांज-बुरांश का घना वन था. घाटी के पार भी पूरे पहाड़ पर बांज का घना वन था. अब भी होगा. शीशे पर आंख लगा कर देखिए, वहां घुप्प अंधेरा दिखाई दे रहा है. इसका मतलब वहां आज भी वन मौजूद हैं. अन्यथा, पहले देखे हुए कई पहाड़ तो नंगे हो चुके हैं.”
अंधेरे में चले जा रहे थे. देखने को कुछ था नहीं, इसलिए काफी देर तक चुप्पी छाई रही. उस चुप्पी को तोड़ने के लिए मैं एक अलग विषय छेड़ बैठा, “कहते हैं, नैनीताल में भी अंग्रेजों के जमाने में ऐसे सेठ थे जो नवाबों की जैसी शान-शौकत दिखाते थे. एक बार ऐसे ही एक सेठजी रेल से काठगोदाम आ रहे थे. लाव-लश्कर साथ था. चाय की तलब लगी. बोले, ‘‘हम चाय पीएंगे.’ सेवकों ने कहा,‘‘हुजूर चाय का सामान तो है मगर कोच में अंगीठी नहीं जला सकते.’ सेठ जी ने नोटों की एक मोटी गड्डी सामने डालते हुए कहा, ‘ये तो जला सकते हो? इसे जला कर चाय उबालो.’ चाय बनी और उनकी चहेती ने उन्हें पेश की.”
“ये सब गढ़े हुए किस्से हैं. हम लोग मिथ बनाने में माहिर हैं. मैं नहीं मानता कि इस तरह नोट जलाए गए होंगे,” प्रकाश की तल्ख आवाज आई.
“वरिष्ठ पत्रकार और लेखक थे कैलाश साह जी. भुवाली के. कभी उन्होंने सुनाया था यह किस्सा. नैनीताल के अतीत पर उपन्यास या संस्मरण लिखने का उनका बड़ा मन था. कहते थे, शुरू यहां से करूंगा- जून की भीषण गर्मी. दिल्ली के एक मकान की बरसाती में बैठा लेखक अपने शहर नैनीताल के अतीत को याद करता हुआ लिख रहा है कि…..”
“नहीं, नहीं ये मैं तो ऐसे किस्सों पर विश्वास नहीं करता.”
मैं सतर्क हो गया. बाकी बात मन में ही समेट ली. सुनाता तो उनके उखड़ने का डर था. फौरन विषय बदलना जरूरी था. बदला, अपने डी एन ए परीक्षण के बारे में बताने के लिए अंतरराष्ट्रीय जीनोग्रेफिक परियोजना का जिक्र कर बैठा, “विश्व भर में आधुनिक मानव के माइग्रेशन का अध्ययन करने के लिए एक अंतरराष्ट्रीय प्राॅजेक्ट चल रही है- जीनोग्रेफिक प्राॅजेक्ट. इसमें एक लाख लोगों के डी एन ए का परीक्षण करके पता लगाया जा रहा है कि मानव के पुरखे अफ्रीका से कहां-कहां और कैसे पहुंचे. इस परियोजना में मैंने भी अपने वाई-क्रोमोसोम के डी एन ए का परीक्षण कराया है.”
“क्या पता लगा?” शायद कमल ने पूछा.
“यही कि मेरे आदि पुरखे के अधिकांश वंशज आज स्केंडेनेविया के दक्षिणी भागों और उत्तर-पूर्वी एशिया में रह रहे हैं. खानाबदोश सामी जनजाति के लोग भी उसी के वंशज हैं. आधुनिक मानव का विकास करीब दो लाख वर्ष पहले अफ्रीका में हुआ था और लगभग 60,000 वर्ष पहले हमारे पूर्वज ने वहां से बाहर कदम रखे, ”मैं उत्साह में बोलता जा रहा था.
“दो लाख वर्ष पहले नहीं. मानव का विकास उससे भी बहुत पहले हो चुका था,” प्रकाश ने असहमत होते हुए कहा.
मैं बोला, “लूसी का कंकाल सबसे पुराना माना जाता है. वह 32 लाख वर्ष पुराना है.”
“उस पर बहुत विवाद है.”
“अब इथियोपिया में 44 लाख वर्ष पुराना कंकाल मिला है. उसे आर्डी नाम दिया गया है.”
“उसकी क्या विश्वसनीयता है?”
“यह खोज अठारह देशों के करीब 70 वैज्ञानिकों ने लगभग पंद्रह वर्षों में की है. इसका शोधपत्र 2 अक्टूबर 2009 की ‘‘साइंस’ पत्रिका में छपा है.”
“कई जेनेटिसिस्ट मानव के विकास की ऐसी तारीखों से सहमत नहीं हैं. इन खोजों में कई तरह के हेर-फेर किए जाते हैं…..” प्रकाश जिरह कर रहे थे.
मेरा माथा ठनका. मैं भूल रहा था कि हम सब बहुत थक चुके हैं. फिर भी यह मैं क्या विषय छेड़ बैठा? हम मुंह-जुबानी तारीखों का हिसाब किए जा रहे हैं. इस तरह तो जिरह बढ़ती जाएगी. इसलिए मैंने तुरंत कहा, “मैं इस बहस से अपने आपको अलग करता हूं.”
“यही ठीक रहेगा,” प्रकाश ने भी शांति से कहा.
फिर चुप्पी छा गई. गाड़ी दिवालीखाल को पार करने लगी तो सामने वे चंद चाय-पानी की दूकानें दिखाई दीं जिनमें से किसी एक दूकान में कभी मैंने और नवीन ने गरमा-गरम चटपटे काले चने खाए थे. इस समय अंधेरे में वे दूकानें बंद हो चुकी थीं.
दिवालीखाल से कुछ देर उतराई में चलने के बाद गाड़ी गैरसैंण पहुंच गई. गैरसैंण! लोगों की आशाओं की भावी राजधानी. वही गैरसैंण जहां से कभी राजा कल्याण चंद और गढ़वाल के राजा की सेनाओं ने एक होकर दुश्मन से लोहा लेने के लिए कैड़ारौ की ओर कूच किया था. और, वही गैरसैंण जो गढ़वाल और कुमाऊं की सीमाओं का मिलन स्थल है.
हम रात 9-30 बजे पर्यटक विश्राम गृह में पहुंचे. तय हुआ, एक-एक कमरे में दो-दो साथी रहेंगे. मैंने भी पिट्ठू लादा और एक कमरे में जाकर टिका दिया. नहाने-धोने की तैयारी कर ही रहा था कि बाहर कहीं से शेखर की आवाज सुनाई दी, “साथियो, पानी की यहां भारी कमी है. इसलिए यह तय हुआ कि जो लोग अभी नहा लेंगे, वे सुबह नहीं नहाएंगे. जो अभी नहीं नहाएंगे, वे सुबह नहा लेंगे. इस तरह सबको पानी मिल जाएगा.” मैंने एक बाल्टी पानी भरा और उसकी एक-एक बूंद से आनंद लेकर नहाया.
कमरे में बैठा ही था कि कमल ने भीतर आकर पूछा, “अरे, आप अकेले हैं ?”
“हां, अभी तो अकेला हूं. आप आ रहे हैं? ”
“मैं देखता हूं.”
रुका रहा, लेकिन कोई नहीं आया. कमल बाद में एक रजाई ले गए. मैं भोजन करने के बाद चुपचाप सो गया.
सुबह 4-45 पर नींद खुली तो खिड़की का परदा हटा कर बाहर देखा. अंधेरा छंटने को था. सामने स्याह, धीर-गंभीर पहाड़ खड़ा था. उसके माथे के ऊपर हंसियाकार चांद टिका हुआ था और चांद के बाईं और कुछ दूर कोई तारा हीरे की तरह चमक रहा था. रात ब्याने की खबर देने के लिए दो-एक चिड़ियां तेजी से चहचहा रही थीं. मैंने नहाने-धोने का उपक्रम किया और नहा-धोकर बाहर निकल आया. गौरेयां और कुछ दूसरी छोटी-छोटी चिड़ियां सुबह के सगुन गीत गा रही थीं.
रात ब्या चुकी थी. पहाड़ों के पार से सुनहरी उजास फैलने लगी थी. चारों ओर घूम कर देखा. गैरसैंण पर्वमालाओं से घिरा था. लगता था जैसे किसी विशाल कटोरे के बीच में खड़ा हूं. बेहद सुंदर भूदृश्य था. तभी, पहाड़ों से बने उस विशाल प्राकृतिक कटोरे में सूरज अपनी किरणों से सुनहरी धूप भरने लगा. चाय बन चुकी थी. मैं चाय की प्याली लेकर विश्राम गृह की छत पर चला गया जहां तीन-चार कव्वे मौके का मुआयना कर रहे थे. उनमें से एक उड़ कर सामने खड़े चीड़ के विशाल वृक्ष की सूखी टहनी पर जाकर बैठ गया और कांव-कांव की भाषा में अपने साथियों से कुछ कहा. कौन जाने क्या कहा? हो सकता है, कह रहा हो- इस आदमी के पास बिस्किट नहीं हैं. खग की भाषा तो खग ही जाने ना?
सभी साथी चलने के लिए तैयार होकर बाहर आए तो शेखर ने सामने पश्चिम में सुबह की सुनहरी धूप से रंगे पहाड़ों की ओर इशारा करके कहा, “वह है दूधातोली और इधर देवली पर्वतमाला. इन पहाड़ों के उस पार पिंडर बहती है और इस ओर रामगंगा. इनसे इस ओर सारा पानी बह कर, निथर कर आता है और उससे बने गाड़-गधेरे रामगंगा में आकर मिल जाते हैं.”
हम आगरचट्टी गांव से नीचे उतर रहे थे. गांव के किनारे-किनारे मयगाड़ मेहलचौरी में रामगंगा से मिलने चली जा रही थी. हम फरसों गांव को पीछे छोड़ कर मेहलचौरी पहुंच गए. वर्षा हो चुकी थी और मेहलचौरी गांव के निवासी खेतों में जुताई, बुआई के काम में जुटे हुए थे. दूर से देखने पर काले, मटमैले खेत काफी उपजाऊ लग रहे थे. सामने पुराना पुल दिखाई दे रहा था जो सड़क से गांव को जोड़ता था. पहाड़ों की गोद से आकर रामगंगा मेहलचौरी से पूर्व की ओर बह रही थी, लेकिन गनाई पहुंचे तो देखा वह पश्चिम की ओर बह रही है. यानी, घूम कर इस ओर आ गई है.
घाटी पार करके चढ़ाई में कुछ दूर पहंुचे ही थे कि शेखर ने रुकने का इशारा किया. रुके. गांव की दो-तीन महिलाएं हाथ में दातुली और प्लास्टिक की रस्सी लेकर घास काटने जा रही थीं. शेखर ने वहां रुक कर हमें बताया कि हम लोग रामगंगा जलागम क्षेत्र में खड़े हैं. आसपास की पर्वमालाओं से सहायक नदियां निकल कर रामगंगा में मिल जाती हैं और उसकी जलराशि को बढ़ा देती हैं. उसने कहा, द्वाराहाट के उस तरफ पहुंचेंगे तो वहां परिदृश्य बदल जाएगा और हमारे सामने गगास नदी का जलागम फैला होगा.
रास्ते में कई जगह झाड़ियों और पत्थरों के आसपास दोनों पंजों पर एक साथ फुदकती, खजबज करती भूरी मुसिया चिड़ियां दिखाई दीं. सड़क के किनारे खिले नीली गुलमोहर के पेड़ भी वहां दिखाई दे रहे थे. द्वाराहाट से पहले तो पहाड़ों पर चीड़ ही चीड़ के वन थे, ऊपर चोटी से नीचे पैताने तक. द्वाराहाट बाजार में प्रवेश करते समय खूब खिले हुए नीली गुलमोहर के पेड़ ने स्वागत किया. सुबह सवा नौ बजे की धूप में उसके नीले-जामुनी रंग के फूल स्वप्निल सौंदर्य बिखेर रहे थे. बाजार के अंत में भी नीली गुलमोहर के पेड़ पर बहार आई हुई थी.
हम द्वाराहाट की दूसरी तरफ पहुंचे तो शेखर के इशारे पर फिर रुके. चारों ओर देखा. सचमुच अब हम किसी दूसरे ही लोक में आ गए थे. जो कुछ अब तक देखा था, वह उत्तर में पीछे छूट चुका था- पहाड़, पेड़, गांव, नदी सब कुछ. यहां दूर पूर्व से लेकर दक्षिण और वहां से पश्चिम तक नई पर्वतमालाएं फैली हुई थीं. पूर्व में ऐड़ादेव की चोटियां, पश्चिम में मानीला पर्वतमाला और दक्षिण में रानीखेत व चिलियानौला की पहाड़ियां. शेखर ने बताया, “सामने यह गगास नदी का जलागम क्षेत्र है. गगास हमें आगे जाकर मिलेगी.”
(अगली क़िस्त में समाप्त)
लोकप्रिय विज्ञान की दर्ज़नों किताबें लिख चुके देवेन मेवाड़ी देश के वरिष्ठतम विज्ञान लेखकों में गिने जाते हैं. अनेक राष्ट्रीय पुरुस्कारों से सम्मानित देवेन मेवाड़ी मूलतः उत्तराखण्ड के निवासी हैं और ‘मेरी यादों का पहाड़’ शीर्षक उनकी आत्मकथात्मक रचना हाल के वर्षों में बहुत लोकप्रिय रही है.
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