हिन्दी सिनेमा में आज दीपक डोबरियाल एक बड़ा नाम हैं. ‘मकबूल'(2003), ‘चरस-डी जॉइन्ट ऑपरेशन’ (2004), ‘ब्लू अम्ब्रेला’ (2005) , ‘ओमकारा’ (2005), ‘दिल्ली 6’, ‘1971’, ‘दाएं या बाएं’, ‘तनु वेड्स मनु’, दबंग, हिन्दी मीडियम उनकी कुछ प्रमुख फ़िल्में हैं. 1 सितम्बर 1975 को पौढ़ी जिले के काबरा गांव में जन्में दीपक ने अपनी फिल्मों में सपोर्टिंग रोल को भी इतनी लगन से निभाया है कि उनकी परफॉर्मेंस अधिकतर बार लीड एक्टर्स पर भारी पड़ती नजर आई है. उनके जीवन के संघर्षों और फिल्मों को लेकर उनके विचारों पर राज्यसभा टीवी के कार्यक्रम ‘गुफ्तगू’ के लिए सैयद मोहम्मद इरफ़ान ने उनका इंटरव्यू किया था. आज उनके जन्मदिन पर पढ़िए उस इंटरव्यू के कुछ हिस्से :
इरफ़ान : करीब तेरह चौदह साल पहले आप मुम्बई पहुंचे होंगे फिल्मों में अपनी किस्मत आजमाने. और अपने साथ आप दिल्ली से थियेटर का एक्सपीरियंस लेकर पहुंचे थे तो जो शुरूआती बसर थे जब आप मुम्बई पहुंचे तो क्या सपने थे कि क्या करना है
दीपक डोबरियाल : पहले तो ये था सर मैंने यहाँ पर जितने भी क्लासिकल प्ले हैं वो सब किये हुए हैं शेक्सपियर, डारियो फो, यूजिन ओ नील ब्रेख्त, धर्मवीर भारती, गिरीश कर्नाड जितने भी नाटक हैं वो सब किये हुए हैं. उसके बाद जब वहां पहुंचा तो मुझे लगा यहां तो बड़ा ही आसानी से सारा काम हो जायेगा. यहाँ तो लोग मेरे लिए वेट कर रहे हैं इंतजार कर रहे हैं और लेकिन जैसे ही गया तो कहीं भी फिट नहीं हूँ. सब लोग बोलते थे यार कि बड़ा स्किनी सा बन्दा है, पतला सा है, ये है, वो है. तो एक भ्रम टूटा कि थियेटर में आप किसी भी फिजिकलेटी के हो आप कुछ भी रोल कर सकते हो. मेरे को राजा का रोल भी किया हुआ है मैंने. मैंने बिल्डर का रोल भी किया है सब चीज. वो थियेटर में चल जाता है लेकिन यहां एपिरियन्स एक बहुत बड़ा… भूमिका प्ले करती है इसमें. तो वहां पर कहीं भी फिट नहीं था. जहाँ भी जा रहा हूं रिजेक्ट हुये जा रहा हूं जहां भी जा रहा हूं रिजेक्ट हुए जा रहा हूं तो थोड़ा सा कांफिफेन्स डाउन होता है उस दौरान कि यार कहीं भी फिट नहीं हूं. कई जगह मैं ऑडिशन देने गया मेन लीड के लिये, पता चला मुझे वहां से कॉल आ रहा है सर्वेन्ट के लिये है ना. कुछ अलग रोल के लिये. मैंने कहा इसके लिये तो मैंने नहीं दिया था. तो कह रहे कि आपका ऑडिशन बहुत बढ़िया था एंड तक फ़ाइनल में चार सौ लोगों में शार्ट लिस्ट होते हुए तीन में पहुँच गए आप. तीन में भी आप बेस्ट कर रहे हो. लेकिन वहां से कोई में मेन लीड नहीं दे रहा है कोई और किसी ने नौकर के रोल के लिये बुलाया. तो कई बार गुस्सा आता है, यार मैं ये क्या बकवास है मतलब, मैंने उसके लिए ऑडिशन ही नहीं दिया है तो आप कैसे जज कर सकते हो. आपको वहां पर कहां फिट लग रहा है. वहां आपने इस पर्फोमेन्स से उस पर्फोमेन्स को मान लिया की वहां अच्छा करेगा तो इससे भी मान लो कि वो भी अच्छा करेगा. बट यहां मानते नहीं हैं बहुत सारे. लुक्स मैटर करते थे तो ऐसे कर-करके कई बार जहनियत भी हो जाती है कि ऐसे ही साइड रोल मिलेंगे ये हैं वो है. और तीन चार-साल इसी जद्दोजहद में लग गये की मिलेंगे नहीं मिलेंगे. घर भी चलाना है अपने आप रह रहे हैं वहां पे रेंट देना है राशन का करना है सब चीजें थी. फिर इत्तफाक से क्या हुआ कि मेरा एक दोस्त है एफटीआईआई से. वो एक शार्ट फिल्म बना रहा था. बारह-तेरह मिनट की जो उनकी एक डिप्लोमा फिल्म होती है तो उसने बोला कि यार आपको कास्ट करना है एक दम फिट हो आप. तो मैंने कहा कि क्या है ये. तो उसने कहा कि लीड रोल है और ऐसा है इसमें कहानी ये है कि एक बन्दा बिहार से आता है पेंटर है ऐसे. तो मैंने कहा ओके और कौन है तो एक एक्ट्रेस का नाम बताया उन्होंने, सादिया सिद्दीकी वो मेरी दोस्त थी. तो हां फिर तो आप दोनों लीड रोल हैं. मैंने कहा तो कितने, वाह-वाह क्या बात कर रहे हो लीड रोल हमें कैसे मिल सकता है. एण्ड फिर उसने बताया कि नहीं बारह मिनट की है. तो मुझे लगा कि यार अगर फिल्म बनानी थी तो पूरी बना लो ये बारह मिनट में क्या कौन सा ऐसे ये. तो उन्होंने मुझे बताया कि न ये डिप्लोमा होती है हम जब पास आउट होते हैं तो इंडस्ट्री में जाते हैं तो ये हमारा शो रील होता है तो उस शो रील के जरिये आप भी ट्रेवल करते हो. ये मुझे बड़ा इंट्रेस्टिंग लगा की चले यार एक और स्क्रीन टेस्ट वो भी एक काम के थ्रू. तो फिर मजा आयेगा. तो उस चीज ने वो मेन्टलिटी बदल दी कि हम सिर्फ साइड किक हैं और ये वो रोल करने आये हैं. वहां पे मुझे लगा कि हर आदमी की एक कहानी है, हर आदमी के ऊपर एक कहानी बन सकती है. और बस फिर एक दो साल और स्ट्रगल करने का माद्दा आ गया था कि हां यार वो करते हैं हिम्मत आ गयी थी कि कुछ करते हैं कुछ बड़ा सोचते हैं. तो फिर दुबारा कनेक्ट किया मैंने थियेटर से की जो यहां पर मैंने जो जो रोल किये थे वो किये थे लेकिन इस इंडस्ट्री का ग्रामर समझना भी जरूरी है. तो वो समझा और वो समझते समझते चीजें बदलती चली गयी.
इरफ़ान : आप अपनी शुरुआती जर्नी में अपने एक दोस्त राजेश डोबरियाल को याद करते हैं, इसके अलावा आप अपने एक चाचा को याद करते हैं जो मौसम विभाग में कहीं नौकरी करते हैं.
दीपक डोबरियाल : जी ताऊजी हैं मेरे
इरफ़ान : जी ताऊ आपके हां, जिन्होंने कम से कम इस बात को समझा कि जो रास्ता आपने चुना है उस पर आपको विश्वास करना चाहिये, उन्होंने उस पर विश्वास जताया और बहुत मनोबल बढ़ाया. अगर उस शुरुआती दौर की याद करें तो आप किन परिस्थितियों में नाटक करने लग गये होंगे, क्या स्कूल के दिनों में भी आप के अन्दर कोई नाटक की कोई क्षमता आपको समझ में आई थी क्या
दीपक डोबरियाल : जी. स्कूल के टाइम पे ये था कि हमारा गवर्नमेंट स्कूल था ये बेगमपुर एसटीसी कलोनी के वहां पर. तो वहां पे क्या होता था कि एक सीनियर होता था, वो एटेंडेंस लेता था. तो सारी क्लासेज जो हैं बैठी हुई है, छठी से लेकर बारहवीं तक के सारे सेक्शन बैठे हुये हैं. तो वो बोलता था रोल नंबर एक और हर क्लास का एक खड़ा होता था और मॉनिटर एटेंडेंस लगाता था. तो वो आया नहीं एक दिन तो जो हमारे पीटीआई सर थे, उन्होंने कहा कि एटेंडेंस कौन लेगा? तो मैं थोड़ी बहुत मस्तियां करता रहता था तो दोस्तों ने कहा ये लेगा सर ये लेगा और हाथ खड़ा कर दिया तो मैंने कहा ठीक है और मैं खड़ा हो गया तो जैसे ही मैंने पब्लिक को देखा तो हालत ख़राब हो गयी. तो वहां से मैंने एटेंडेस लेनी शुरु की और फिर थोड़े दिनों में स्टाइल भी आ गया. रोल नंबर एक, दो, तीन ये सब चलने लग गया. बात करते हुये भी करने लगा. तो पब्लिक फेयर हट गया. तो वो जो दोस्त हैं, राजेश भी मेरी क्लास में पढ़ता था. बारहवीं के टाईम पर ये था कि अब क्या करें तो कालेज तो जायेंगे. कालेज के साथ भी कुछ करेंगे तो वो पत्रकारिता में चले गये दो तीन दोस्त मेरे. कुछ जर्मन भाषा सीखने लग गये. कोई एक कार्गो का काम करता है, एक सीए बन गया है. मुझे फिल्ड समझ नहीं आ रही थी कि कहां जाऊं. तो मैं अकेला सा रह गया था उस दौरान. फिर मुझे अचानक से थियेटर के बारे में कुछ पता चल गया कि आर.एल.ए. कालेज के कुछ लड़के हैं. राजेश डोबरियाल ने ही बोला कि यार भाई हमारी कलोनी में एक लड़का है मुरली वो एक नाटक कर रहा है तो तुम करोगे. वहां पे रिक्वायरमेंट् है, वो करता रहता है मंडी हाउस में. तो आर.एल.ए कालेज का एक प्ले था मैं उनके साथ जुड़ गया मैंने नमस्ते-वमस्ते किया कि भैय्या मुझे करना है ये वो. तो बारहवीं में ही मैं उनसे जुड़ गया. एंड वो नाटक मंडी हाउस में हुआ. सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का बकरी प्ले कर रहे थे हम. उसमें कर्मवीर की भूमिका थी मेरी. और वहीँ से अरविंद जी ने देख लिया, उन्हें बहुत अच्छा लगा नाटक. पीठ थप-थपाई तो वहां पता चला कि सबसे रेगुलर थियेटर करने वाले कौन हैं तो अरिवन्द गौड़ हैं. तो ऐसे कर-कर ही यही दोस्त का एक हैल्प की उसने ये समझा की यार तुझे परफॉर्म करना चाहिये कुछ. हर टीचर जब पीटाई करता था मेरी तो वहां कुछ परफोर्मेंस होती थी मेरी कुछ हँसाने के लिये या कुछ डाटने के लिये. तो टीचर और मेरा आठवें पीरियड में कुछ न कुछ इंटरेक्शन होता था कुछ फनी सा. तो फन के लिये था सिर्फ स्कूल में. तो वही दोस्त फिर जब ऑफिस से आत- जाते मेरा प्ले देखते थे तो कहते थे यार तुमने तो क्या ग्रोथ की हुई है. तो वो उन्हीं दोस्तों का थैंक्स है.
या मेरे ताऊजी. जैसे पिताजी मना करते थे. कि कहां पता नहीं किस लाइन में पड गया है. अरे ये हम जैसे लोगों का काम नहीं है. ये बहुत मुश्किल है हीरो बनने चला. दाड़ी तो कटाता नहीं है. ये है वो है ऐसे घुमता है. तो वो जो ताउजी हैं उनका सब लोग बहुत ही मानते हैं बहुत ही लम्बे-चौड़े साढ़े छः फीट के हैं. और बहुत ही प्यारी लेंग्वेज में बात करते हैं. नहीं उसे करने दो, बहुत अलग फिल्ड है, हमारे खानदान में कोई सोच भी नहीं सकता इस फिल्ड में जाना, उसे करने दो. तो उनकी बात पर पिताजी चुप हुये कि अच्छा ठीक है. साइंटिस्ट आदमी हैं अंटार्कटिका में रहते हैं. मतलब छः-सात आठ महीने पूरा वहां पे इन्डियन स्टेशन और अमेरिकन और रसियन लोगों के साथ तो वहां पर एक वो रहता है कि हां अगर ये आदमी कुछ बोल रहा है तो बड़ी बात है. ऐसा था. फिर पिताजी के ही ऑफिस के एक दो बॉस थे वो बोलते कि अखबार में पढ़के कि कविता नागपाल जी ने, स्मिता निरुला या रोमेश चंद्रा जी ने कुछ लिखा तो अरे तुम्हारा लड़का तो बहुत अच्छा कर रहा है ये वो. थियेटर में है बताया नहीं अरे वाह वाह. तो वो भी रहा तो ये था कि यार तारीफ़े तो हो रही हैं लेकिन पैसा नहीं आ रहा है. जॉब नहीं कर रहा है खुद को सिक्योर करने वाला इसका वो नहीं चल रहा है लेकिन उनका वो थैंक्स आज भी है कि उनकी बातों ने पिताजी के गुस्से को या उसको थोड़ा नरम रखा.
पूरी बातचीत को इस लिंक पर देखा जा सकता है: दीपक डोबरियाल और इरफ़ान की गुफ्तगू
इरफ़ान बीस से भी अधिक वर्षों से ब्रॉडकास्ट जर्नलिस्ट हैं. राज्यसभा टीवी के आरम्भ के साथी हैं और इस चैनेल के सबसे लोकप्रिय कार्यक्रम ‘गुफ्तगू’ के होस्ट हैं. देश में उनके पाए का दूसरा इंटरव्यूअर खोज सकना मुश्किल होगा. संस्कृति. संगीत और सिनेमा में विशेष दिलचस्पी रखने वाले इरफ़ान काफल ट्री से साथ उसकी शुरुआत से ही जुड़े हुए हैं.
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