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बूढ़े कारीगर की मौत

बूढ़े कारीगर की मौत

हमारा यह कारीगर एक सामान्य आदमी था. 1930 के दशक में कभी बनारस में पैदा हुआ. मुल्क आज़ाद हुआ तो पाकिस्तान जाने का मौका था लेकिन उसने यहीं रहने की सोची. पुरखों की जमीन छोड़कर कोई कहाँ जाए, यही सोचा उसने. सियासी समझ बहुत न थी लेकिन गाँधी को मानता था, हाँ, नेहरू के खिलाफ एक शब्द नहीं सुन सकता था. लोहे का कारीगर था. उसे मशीन पर लोहा तपाकर उन्हें अलग-अलग शक्लों में ढालने का जुनून की हद तक शौक था. मुहल्ले में ही एक जमीन पर भट्ठी लगा ली और कुछ दिन में अपने साथी कारीगरों के बीच कारखानेदार कहा जाने लगा. हालांकि माली हालत से वह कहीं से भी कारखानेदार जैसा न था. शादी की, बच्चे हुए. इतवार को ट्रांजिस्टर पर गाने बजाता. बीबी से अच्छा गोश्त पकवाता, नमाज पढ़ता, बच्चों को बाजार घुमाने ले जाता. कभी पटरी न बैठी तो बीबी को थप्पड़ भी जड़ता. यही सब करता वह शानदार कारीगर बना कैंचियों का. शहर के सबसे बड़े साब जी उसका माल लेने को हमेशा तैयार रहते. वक्त जरूरत पेशगी और उधार भी देते. फिर भी परिवार कभी-कभी फाकाकशी का शिकार होता था, हफ्तों कम से कम खाकर गुजारा करता. बच्चे पैबंद लगे कपड़ों में स्कूल जाते. दंगे हुए, सियासी अंधड़ आए-गए मगर कारीगर डटा रहा.

अपने बेटों को कारीगरी सिखाई. पढ़े लिखे बेटे भी साथ काम करने लगे. फिर कोई 70 साल की उमर में सारा काम बेटे को सौंप कर हज कर आया. सोचा दीन में मन लगा ले. लेकिन हुआ नहीं. वो जब भी बातें करता, कारीगरी उसके केंद्र में आ जाती.
इधर वह परेशान सा रहने लगा था. उसे समझ में ही नहीं आ रहा था कि बेटों का खर्चा इस कारीगरी से क्यों नहीं चल पाता जबकि कारखाना बड़ा हो गया, काम करने वाले हाथ ज्यादा हो गए. अब कैंचियां बोरों में नहीं बल्कि रंगीन डिब्बों में पैक होकर जाती हैं. वह नई नई योजनाएं सोचता लेकिन हर बार योजना फेल हो जाती. इस बीच देश के बाजार चकाचौंध से भरते जा रहे थे और किसिम-किसिम की चमचमाती कैंचियां भी. कई बार उसे लगता कि वे उसे मुंह चिढ़ाती हैं. वो एक नया फरमा ढालने मशीन पर जाकर बैठ जाता. खैर, कारीगर की उम्र हो चली थी, वो बीमार भी रहने लगा था. बच्चों ने कुछ नए पेशे भी अपना लिए थे. इन सब पर वह कहता कि चलो ठीक है, अपना कमा खा रहे हैं. अपने कमरे में पड़ा-पड़ा वह उठ कर अपनी खटके वाली अटैची खोलता और उसमें से अपना कारीगर वाला आई कार्ड ध्यान से देखकर फिर उसे सहेज कर अटैची में रख देता.

इस बार वो जब बीमार हुआ तो कभी न ठीक होने के लिए. फिर भी उसे लगता था कि ठीक होकर फिर कोई नया फरमा ढलेगा जिसका मुकाबला कोई नहीं कर पाएगा. इस बात को बताने के लिए उसने कारीगर बनी अपनी बेटी को बुलावा भेजा. बेटी गई. बेटी से उसने अपनी बातें कीं. हालांकि बेटी जानती थी कि ये न पूरा होने वाला सपना है फिर भी इस बार उसने कारीगर की बात नहीं काटी. कई रोज बाद जब बेटी वापस जाने को हुई तो कारीगर ने कहा – “तुम चली जाओगी तो हमें कौन देखेगा?” हालांकि उसे देखने को पत्नी, बेटे, बहू, नाती-पोतों से भरा परिवार था और सब उसकी देखभाल में लगे ही थे.

बेटी उस शाम रुक गई और रात में बूढ़ा कारीगर अपने सपने के साथ हमेशा के लिए सो गया. उसका हाथ अपने हाथ में लिए बेटी कारीगर बुदबुदाई – “कारीगर तुम हमेशा रहोगे.” और मैंने सुना-“कारीगर जब मैं भी जाऊंगी अपने अंतिम सफर पर तो मेरा बगलगीर भी कोई कारीगर ही होगा.” हालांकि बेटी कारीगर ने नहीं पैदा की थी अपने पेट से कोई औलाद.

कृष्ण कुमार पाण्डेय


(इलाहाबाद में रहनेवाले कृष्ण कुमार पाण्डेय मित्रों के बीच केके के नाम से जाने जाते हैं. ‘समकालीन जनमत’ के प्रकाशन की शुरुआत से ही उसके सम्पादन विभाग से जुड़े हुए हैं)

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