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हल्द्वानी में ‘देशज’ का कानफोड़ू साउन्ड सिस्टम

हल्द्वानी में ‘देशज’ का कानफोड़ू साउन्ड सिस्टम
-जगमोहन रौतेला

हल्द्वानी में गत 2 अक्टूबर से महात्मा गॉधी की 150वीं जयंती को समर्पित ‘देशज ‘का तीन दिवसीय कार्यक्रम चल रहा है. जिसका आज 4 अक्टूबर को आखिरी दिन है. पर्वतीय सांस्कृतिक उत्थान मंच, हीरानगर में शाम को 6 बजे से हो रहे कार्यक्रम में मैं किसी कारणवश पहले दिन नहीं जा पाया. नहीं जा पाने का मलाल भी रहा कि विभिन्न लोकनृत्यों की प्रस्तुतियॉ नहीं देख पाया. मैं 3 अक्टूबर को हरदा को लेकर कार्यक्रम देखने गया. लोकनृत्यों के कार्यक्रम को देखने की उत्सुकता का कारण चमोली जनपद के ‘रम्माण’ की प्रस्तुति देखना था. पर चमोली जनपद के सलूड़ – डुंग्रा की रम्माण की तीन बहुत ही छोटी प्रस्तुतियॉ ने एक तरह से निराश ही किया. कारण यह कि रम्माण की प्रस्तुति की बजाय दल के लीडर कुशल भंडारी ने रम्माण के बारे में बताने में ज्यादा वक्त लिया और रम्माण की प्रस्तुतियों को बेहद कम वक्त मिला. जिस कारण से रम्माण के असल रंग को देखने का अवसर नहीं मिला.

देशज के पूरे कार्यक्रम में सबसे ज्यादा परेशान करने वाला साउन्ड सिस्टम था. जो बेहद गंदा और कानफोड़ू है. साउन्ड सिस्टम ऐसा था जैसा ‘माता के जगरात्तों’ में होता है. मुझे नृत्य गीतों का आनन्द लेने के लिए अपने दोनों कानों को उंगलियों से बंद करना पड़ा. बड़ी मुश्किल से एक घंटा बैठा पर जब कानफोड़ू साउन्ड सिस्टम को झेलना बस में नहीं रहा तो मैं वहां से भाग खड़ा हुआ. लोकनृत्यों व गीतों का आनन्द लेता कि अपने कान बचाता? मैंने अपने कान बचाने का निर्णय किया.

संगीत-नाटक अकादमी, नई दिल्ली द्वारा प्रस्तुत किए जा रहे ‘देशज’ में दिल्ली से बड़ी भारी भरकम टीम भी कार्यक्रम की बेहतर प्रस्तुति की लिए आई है. जिनमें से दो प्रमुख व्यक्तियों से मैंने कानफोड़ू साउन्ड सिस्टम की शिकायत की और कहा कि इसकी आवाज थोड़ा कम कर दें तो कार्यक्रम का आनन्द लेने में आनन्द आ जाए पर वे महाशय इसे मानने को तैयार नहीं हुए. एक महाशय ने तो बहुत ही लापरवाही के अंदाज में कहा कि पीछे वाले नहीं सुन पाएँगे. पीछे बैठे लोगों के नहीं सुन पाने की बात बिल्कुल सही नहीं थी, क्योंकि हर दस कदम पर साउन्ड सिस्टम लगा हुआ था. जब वे इस अनुरोध के बाद भी साउन्ड सिस्टम की आवाज को कम करने को तैयार नहीं हुए तो मेरे पास अपने कान के ‘साउन्ड सिस्टम ‘को बचाने के लिए वहॉ से भाग खड़े होने के अलावा और कोई चारा बचा नहीं था.

आवाज इतनी तेज थी कि लोकसंगीत आनन्द देने की बजाय कानों को बहुत तेज चुभ रहा था. जिस लोकसंगीत को सुन व देखकर झूमने का मन करता है वह कानों को कर्कश लग रहा था. क्या लोकसंगीत व लोकनृत्यों को इसी तरह से कर्कश साउन्ड सिस्टम से ही बढ़ावा मिलेगा? क्या ऐसी ही लापरवाही से लोग उसे देखने और सुनने आएँगे? संगीत नाटक अकादमी के बड़े-बड़े पदों पर बैठे लोगों का काम क्या विभिन्न लोकसंस्कृतियों को बढ़ावा देने के नाम पर इसी तरह के कानफोड़ू साउन्ड सिस्टम के माध्यम से खानापूर्ति कर देना भर है जिसमें वे प्रस्तुतियों के नाम पर लोकगीत व संगीत से जुड़े लोगों को कुछ हजार रुपए देकर अपनी जिम्मेदारी पूरी कर लेते हैं? क्या इन लोगों को यह देखने, जानने और समझने की कोशिस नहीं करनी चाहिए कि कार्यक्रम देखने आ रहे लोगों को साउन्ड सिस्टम से कोई परेशानी न हो? या कि अपने पद के दम्भ में इस सब को नजरअंदाज कर देना चाहिए? क्या जो भारी-भरकम टीम दिल्ली से आई है उन्हें इस बात की बिल्कुल भी जानकारी नहीं है कि ऐसे कार्यक्रमों में साउन्ड सिस्टम की आवाज कितनी रखनी चाहिए? क्या इससे यह भी पता नहीं चलता है कि इस तरह की सरकारी संस्थाओं में कितनी काबलियत वाले लोग बैठे हैं?

भारत की लोक, जनजातीय एवं पारम्परिक अभिव्यक्तियों के उत्सव ‘देशज’ में पहले दिन 2 अक्टूबर को नत्थीलाल नौटियाल (टिहरी गढ़वाल) की टीम द्वारा टिहरी का घस्यारी नृत्य, जयपुर के मीना सपेरा और दल द्वारा राजस्थान का कालबेलिया नृत्य, पटियाला के रवि कुनर व दल द्वारा पंजाब का भांगड़ा नृत्य, इम्फाल के प्रदीप सिंह व दल द्वारा मणिपुर का थांग-टा एवं ढोल चोलम, रोहतक के सलीम कुमार एवं दल द्वारा हरियाणा का फाग नृत्य, पीरुमदारा (रामनगर) के नरेन्द्र पांथरी एवं दल द्वारा कुमाऊं का झोड़ा नृत्य पेश किए गए. दूसरे दिन 3 अक्टूबर को चमोली के सलूड़-डूंग्रा गाँव के कुशल भंडारी एवं दल द्वारा चमोली (उत्तराखण्ड) का रम्माण लोक नाट्य, आजमगढ़ के राजकुमार शाह एवं दल द्वारा उत्तर प्रदेश का फरवाई नृत्य, सागर के मनीष यादव एवं दल द्वारा मध्य प्रदेश का बरेदी नृत्य, गुवाहाटी के निलिकान्त दत्ता एवं दल द्वारा असम का बीहू नृत्य, हैदराबाद के राम चन्द्रुडडू एवं दल द्वारा तेलंगाना का माधुरी नृत्य और सिरमौर के जोगिन्दर हबबी एवं दल द्वारा हिमाचल प्रदेश का सिरमौरी नाटी प्रस्तुत किए गए.

4 अक्टूबर को तीसरे व आखिरी दिन अल्मोड़ा के प्रकाश बिष्ट एवं दल द्वारा कुमाऊँ का छपेली नृत्य, लेह – लद्दाख के लुंडुब दौर्जे एवं दल आर्यन घाटी द्वारा लद्दाख का बोनोना लोकगीत एवं नृत्य, हल्द्वानी के देबू पांगती एवं दल द्वारा कुमॉऊ का ढुस्का लोकनृत्य, अगरतला के संतोष सूत्रधार एवं दल द्वारा त्रिपुरा का घमाइल एवं बीजू नृत्य, बगालकोट (कर्नाटक) के महालिंगप्पा एम करडी एवं दल द्वारा कर्नाटक का करडी मजलू और अंत में दिल्ली के शिवदत्त पंत एवं दल उत्तराखण्ड के नंदा राजजात की प्रस्तुतियॉ पेश की जाएँगी.

पर उस दिन के कर्कश अनुभव के बाद मेरी हिम्मत आखिरी दिन कार्यक्रम को देख पाने की बिल्कुल भी नहीं हुई. ऐसा नहीं है कि साउन्ड सिस्टम का कानफोड़ू होना मुझे ही लगा हो, वहां बैठे अधिकतर लोग इसकी शिकायत कर रहे थे, पर किसी ने भी आयोजकों को शिकायत नहीं की. शायद यही कारण रहा है कि आयोजकों को अपनी लापरवाही का कोई भान नहीं है. शिक्षक विनोद जीना का कहना है कि कल रात के कानफोड़ू साउन्ड सिस्टम के कारण हुआ सिरदर्द आज सवेरे तक बना हुआ है. कानफोड़ू साउन्ड सिस्टम से परेशान होने के बाद भी लोग चुप क्यों थे यह मेरी समझ से बाहर है? मेरी तरह अगर दस-बीस और लोगों ने भी दिल्ली वालों से तेज साउन्ड सिस्टम की शिकायत की होती तो शायद उन्हें अपनी लापरवाही का अहसास होता.

खैर! सरकारों के ऐसे कार्यक्रम भारी-भरकम बजट के बावजूद खानापूर्ति कर कागज भर देने वाले ही होते हैं, जिसमें ‘देशज ‘के कर्ताधर्ता पूरी तरह से सफल हो रहे हैं.

[फोटो : डॉ. पंकज उप्रेती की वॉल से]

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