कशरी को सूचना मिली कि उसका बेटा किड़ू शहर में महामारी की चपेट में आ गया. सूचना गांव के लड़के भगत ने ही भेजी थी. कशरी ने किड़ू से बात करने के लिए बड़े बेटे हरि को कहा. हरि ने फोन मिलाया तो किड़ू का मोबाइल बंद पड़ा था. हरि ने फिर भगत को फोन मिलाना चाहा तो उसका मोबाइल भी अब बन्द मिला. शायद फोन चार्ज नहीं कर पाया होगा, उसने सोचा. कई बार फोन लगाया तो स्विच ऑफ. कहीं ऐसा तो नहीं कि भगत ने सवाल-जवाब से बचने के लिए ही मोबाइल ऑफ कर दिया हो. ऐसी आशंका होनी भी लाजिमी थी, क्योंकि इस वैश्विक महामारी के दौर में हर कोई अपने को ही बचाने में लगा था. (Corona Days Stories)
किड़ू को शहर गए हुए अभी साल भर ही हुआ था, उस शहर में भगत ही उसका सहारा था. हालांकि वह उनकी बिरादरी का नहीं था परन्तु परदेश में तो लोग ढूंढते हैं कि कोई अपना हो. फिर भगत तो गांव का ही था. भगत कई सालों से वहाँ पर था और उसके बच्चे भी साथ थे. किड़ू ने फोन पर बताया था कि होटल की नौकरी से फुर्सत कम ही मिलती है, रात ग्यारह-साढ़े ग्यारह बजे तक काम निबटा पाते हैं और फिर बिस्तर में जाने तक रात के बारह बज ही जाते हैं. फिर भी वह भगत भाई के यहां दो बार हो आया है.
किड़ू बीच-बीच में भाई और माँ से फोन पर बात कर लेता था. एक दिन फोन पर रुआंसा होकर कह रहा था माँ, गांव में तो हम लोग अन्धेरा होने तक खाना पका लेते हैं और फिर जल्दी खा भी लेते हैं. परन्तु इस नामुराद शहर में लोग रात दस-ग्यारह बजे तक सड़कों पर घूमते रहते हैं. देर में सोते हैं तो सुबह देर से उठते हैं. हमारी दिनचर्या भी वही हो गयी है. उठने के साथ ही हमारा काम शुरू हो जाता है. दोपहर भोजन के बाद तीन घंटे की छुट्टी मिलती है, बस.
भगत ने ही एक दिन फोन पर सूचना दी कि ‘महामारी में संक्रमण से बचने के लिए लॉकडॉउन किया गया है जिसके चलते शहर के सभी होटल बन्द हो चुके हैं. किड़ू जिस होटल में काम करता है वह भी बन्द हो गया है. होटल का मालिक जो स्वयं मैनेजर भी है, माली, धोबी, स्वीपर व नौकरों का हिसाब करके और ताला लगाकर चला गया है. होटल कर्मचारी जिनके घर आसपास थे वे भी किसी प्रकार चले गए हैं. परन्तु किड़ू के साथ उसके दो साथी हैं जो नहीं जा पाए. होटल के सबसे नीचे की कोठरी में उनके रहने खाने की व्यवस्था तो है पर किड़ू गांव लौटने के लिए बेचैन है.’ सुनकर माँ कशरी मायूस हो गई. कहने लगी, हमारी भगवती किड़ू को जरूर घर लाएगी.
चार दिन बाद भगत का फिर फोन आया कि ‘किड़ू संक्रामक बीमारी की चपेट में आ गया है. उसके दोस्तों ने ही बताया कि उसे होटल के ही पुराने गैराज में रखा गया है. दोस्त बांस की लंबी सीढ़ी के छोर पर सुबह शाम खाने का पैकेट और पानी की बोतल बांधकर सीढ़ी उसकी ओर खिसका देते हैं और किड़ू खाकर वहीं पड़ा रहता है. उसके पास कोई नहीं जा रहा है क्योंकि यह बीमारी ही ऐसी है. उसके साथियों ने एक भले आदमी के माध्यम से सरकार को सूचना भिजवा दी है, सरकारी लोग आते ही होंगे और उसे अस्पताल ले जाएंगे.’ उसके बाद भगत से भी बात नहीं हो पाई.
कशरी ने अपने बेटे हरि ही नहीं भतीजे और गांव के कई लोगों से विनती की, हाथ जोड़े कि कोई तो उसके बेटे किड़ू की खोज-खबर करे, उसकी जिन्दगी बचाए. परन्तु लॉक डाउन के चलते सबने हाथ खड़े कर दिए थे तो कशरी आवेश में आ गयी और गुस्से में बोली; ‘हरि, मैं जानती हूँ कि तेरे मन में क्या है, किड़ू की जैदाद (जायदाद) पर तेरी नजर है. जा ला कागज और बुला पंचों को मैं अंगूठा लगा लेती हूँ. यदि तू नहीं जाता तो मैं ही शहर चली जाती हूँ और अपने किड़ू को घर ले आऊंगी. देखती हूँ कैसे रोकेगी सरकार एक माँ को उसके बेटे से मिलने से.’ इतना कहकर वह फूट-फूटकर रो पड़ी. हरि माँ की पीड़ा समझ रहा था पर यह भी जान रहा था कि इस लॉक डाउन में कोई कैसे कहीं जा सकता है. सभी विवश हैं. पूरा जिला, पूरा राज्य क्या, पूरा देश ही नहीं बल्कि पूरा संसार ही.
दो हफ्ते से अधिक समय गुजर गया था परन्तु लॉक डाउन अभी भी जारी था. किड़ू की कहीं से भी कोई सूचना नहीं मिली, गांव में सबकी जुबान पर यही चर्चा थी. सूचना प्रसार के प्रचुर साधन होने के कारण सभी लोग इस बीमारी की भयावहता से भली-भांति परिचित हो चुके थे. किड़ू के बहाने लोग अपनों को भी याद करने लगे जो दूसरे शहरों में रह रहे थे. एक दिन गांव के बहुत से लोग मन्दिर प्रांगण में इकट्ठा हुए और महामारी तथा गांव से बाहर रहने वाले लोगों के बारे में चर्चा करने लगे. बचनू दा, जिनके बेटे-बेटियां संयोग से परदेश में नहीं थे, गांव व आसपास के कस्बों में ही रहकर गुजारा कर लेते थे, ने कहा कि ‘ऐसी स्थिति में शहर गए हुए अपने लोगों को गांव नहीं लौटना चाहिए. जैसे भी है हम लोग रूखा-सूखा खाकर, अभाव में रहकर गांव में सुख चैन से तो हैं. अब शहर गये लोग गांव लौटेंगे तो क्या भरोसा कि वह खतरनाक बीमारी भी साथ लेकर न आये. वे वहीं पर रहे. ईश्वर करे वे राजी-खुशी से रहें और खुदा-न-खास्ता कुछ बात हो भी जाती है तो शहरों में अस्पतााल वगैरा तो हैं ही. कम से कम हमारे पुरखों द्वारा बसाया यह यह गांव तो बचा रहेगा.’ गांव के तीन-चार बदनाम लड़कों ने अति उत्साह दिखाते हुये बचनू दा की बात का समर्थन करते हुये आगे जोड़ दिया कि ‘शहरों से गांव लौट रहे लोगों को वे आने नहीं देंगे. वे संकल्प लेते हैं कि नीचे सड़क से जैसे ही कोई भी गांव की चढ़ाई चढ़ना शुरू करेगा हम लोग ऊपर से पथराव कर देंगे. चाहे अपना भाई ही क्यों न हो. (यह अलग बात थी कि उनमें से किसी का भी कोई भाई-बहन परदेश में नहीं था) हमें तो जिन्दा रहना है भाई. ऐसा थोड़ी होता है कि जब तुम शहरों में पैंसे कमा रहे थे, मजे उड़ा रहे थे तब तुमने हमें मरने के लिए गांव में छोड़ दिया, कभी पलटकर भी नहीं देखा और अब संकट आया है तो गांव याद आने लगा. सामान्य बात होती तो ठीक था पर इस संक्रमण के दौर में? नहीं, नहीं. अरे भाई, तुम लोग तो सारे सुख भोग चुके हो, मर भी जाओगे तो क्या फर्क पड़ता है. परन्तु हमें तो कम से कम लम्बी उमर जीने का सुख भोगने दो.’
बदनाम युवकों की बात सुनकर गांव के आठ-दस मर्द औरतें निकलकर आगे आए और उनके सुर में सुर मिलाने लगे, जबकि भले लोग बैठक छोड़कर चले गए. बेटे किड़ू के गम में डूबी कशरी के कानों में यह बात पड़ी तो वह गाली देने लगी. ‘तुम्हारे बाप-दादाओं का ही तो है यह गांव, जो तुम बाहर से आने वालों पर पथराव करोगे. तुमने ही तो इन खेतों, धारे-मंगरों के पुश्तों चिनाई की है सालों? खुद किसी काबिल नहीं हुए और परदेश जाकर कमाने वालों से ईर्ष्या करते हो.’ थोड़ी देर गहरी-गहरी सांसे लेने के बाद माथे पर दुहत्थी मारकर कशरी विलाप करने लगी ‘अरे, तुम ही अगर बाहर चले जाते तो हमारे खेतों से काखड़ी, मुंगरी, लौकी, कद्दू, मटर, टमाटर कौन चुराता. गरीबों के छौने ही नहीं आये दिन पूरे के पूरे बकरे गायब कैसे हो जाते. गांव की बहू-बेटियों पर बुरी नजर कौन डालता. डूब मरो स्सालों…’
कुछ दिनों बाद की बात है. अन्धेरा अभी ज्यादा नहीं हुआ था कि एक रोज एक साया गांव के नीचे सड़क पर रेंगता हुआ दिखाई दिया, जो शहर से आने वाली पगडण्डी से चलकर आया था और थोड़ी देर के लिए सड़क पर रुक गया था. शायद मंजिल पर पहुंचने की भावना से खड़े-खड़े सुस्ता रहा था. धीरे-धीरे वह गांव की पगडण्डी पर चढ़ने लगा. वह नशे में था या फिर बहुत थका हुआ, उसके पैर लड़खड़ा रहे थे.
संयोग कहें या दुर्योग कि बदनाम और उग्रवादी विचार रखने वाले उन चार लड़कों की नजर उस साये पर पड़ी तो उन्हें वह महामारी का साक्षात दूत दिखाई दिया. वे चारों एक साथ चिल्लाए ; ‘अरे, आ गया रे शहर से बीमारी की पुड़िया. भगाओ इसे.’’ वह कुछ कदम ही चढ़ पाया था कि लड़कों ने उस पर पत्थर बरसाने शुरू कर दिये. वह गिड़गिड़ाया,‘रुको, पागल हो गए हो क्या? अरे, मैं इसी गांव का हूँ भाई, किड़ू. इसी गांव का खाद-पानी मेरी रगों में भी है. पाँच दिन से लगातार भूखा-प्यासा चलकर आज अपनी धरती पर पहुँचा तो तुम लोग मुझे भगा रहे हो. मेरी पीड़ा तुम क्या जानो नामुरादों? जंगली जानवरों की परवाह किये बिना मैं रात में चलता था और दिन में पुलिस की डर से झाड़ियों में छिपा रहता. लॉक डाउन के चलते कहीं एक बिस्कुट का पैकेट तक नहीं मिला. नदी नालों के पानी से प्यास बुझाता रहा. सोचा माँ, भाई-भाभी के दर्शन करूंगा और गांव के अपने बड़े-छोटों के बीच कुछ दिन रहूंगा. परन्तु तुम लोग तो रिश्ते ही भूल गए हो. इंसानियत ही भूल गए. जाने किस आदिम युग में जी रहे हो. मेरे भाई, मेरा कसूर तो बताओ.’ परन्तु कुत्तों को जैसे कमजोर पशु का शिकार करने में आनन्द मिलता है ठीक उसी प्रकार बिना कुछ कहे-सुने वे पत्थर बरसाते रहे. इस अप्रत्याशित हमले से किड़ू लहूलुहान हो गया, कपड़े खून से लथपथ हो गये थे और अब अधिक देर तक खड़े रहने की ताकत उसके अन्दर नहीं बची थी. चुपचाप वापस मुड़ा और थोड़ी दूर जाकर झाड़ियों में कटे पेड़ सा गिर पड़ा.
होश आया तो देखा रात आधी से अधिक बीत चुकी थी. किड़ू ने उठने की कोशिश की तो उठ नहीं पाया. शरीर असमर्थ हो गया था पर मन में अनेक खयाल आते रहे. सोचता किसी ऊंची चट्टान से कूदकर आत्महत्या कर लेता हूँ. फिर सोचा जब इतनी दूर से आ गया हूँ तो माँ से तो मिलना जरूरी है.
पूरा गांव सुनसान था, किड़ू कुहनियों और घुटनों के बल रेंगता हुआ एक मील की चढ़ाई चढ़कर अपने घर के आंगन तक पहुंच गया. चारों ओर घनघोर अन्धेरा था. सभी दरवाजे खिड़कियां बन्द थी. भूख, थकान और चोटों से उसकी आवाज भर्रा गयी थी. उसने दरवाजे पर पहुंचकर माँ को पुकारा, तो भीतर माँ कशरी बेचैन हो उठी. उसने हरि से कहा, ‘देख, किड़ू की आवाज सी सुनी मैंने.’ परन्तु माँ को हरि ने यह कहकर रोक दिया कि ‘माँ तुम्हारा भ्रम है. जब लॉक डाउन में चिड़िया तक नहीं उड़ रही है तो सौ मील दूर से बीमार किड़ू कैसे आ सकता है. लॉक डाउन जैसे ही खुलेगा मैं खुद ही चला जाऊंगा उसे लेने.’ जबकि सच्चाई यह थी कि हरि ने रात में ही उड़ते-उड़ते सुन लिया था कि किड़ू गांव पहुँच चुका है और हरि तब से ही भयभीत था, वह किसी भी कीमत पर नहीं चाहता था कि किड़़ू के कारण वह अपना परिवार खो बैठे. यह बीमारी है ही ऐसी. देर तक किड़ू पुकारता रहा पर किसी ने नहीं सुना. कुदरत को कुछ और ही जो मंजूर था.
सुबह हरि ने दरवाजा खोला तो देखा कि किड़ू हाथों में एक छोटा सा बैग पकड़े हुए आंगन में औंधा लेटा हुआ था. हरि ने दरवाजे पर ही खड़े होकर गौर से देखा तो किड़ू की सांसे नहीं चल रही थी तो उसकी रुलाई फूट पड़ी. सुनकर माँ भी दरवाजे पर आ गयी और बाहर का नजारा देखकर वह दहाड़ मारकर किड़ू की ओर लपकने लगी. पर हरि ने अपने मजबूत हाथों से माँ को दरवाजे पर ही रोक दिया. अब हरि व उसकी पत्नी असमंजस में थे कि किड़ू के पास कौन जाएगा. संयोग से ठीक उसी समय वहाँ पर गांव के बुजुर्ग मकान सिंह आ धमके, वे शायद गांव में किसी को मिलने जा रहे थे. उन्होंने कुछ देर जमीन पर पड़े किड़ू को देखा, सामने माँ को जबरन द्वार पर रोके हरि की ओर देखा तो माजरा समझ गया.
मकान सिंह ने दुनिया देखी थी और कई नामी सन्तों के सम्पर्क में आश्रमों में रह चुका था. मकान सिंह ने ‘मृत्यु तो निश्चित् है और दिन भी पहले से ही तय है तो फिर मौत से क्या घबराना’ कहते-कहते किड़ू को पलटकर सीधा किया तो देखा उसके प्राण पखेरू उड़ चुके थे. दुखी होकर उन्होंने उसका बैग टटोला, बैग में एक जोड़ी कपड़े थे, पचास-साठ हजार की नकदी थी- जो किड़ू ने पाई-पाई कर जोड़ी होगी और बैग में सरकारी अस्पताल द्वारा जारी एक प्रमाणपत्र भी था, जिसमें ‘‘पन्द्रह दिन तक क्वारंटाइन में रखकर किशोर सिंह (अर्थात किड़ू) की जांच निरन्तर की गई परन्तु जांच में कुछ नहीं पाया गया. अतः उन्हें अस्पताल से मुक्त कर दिया गया है.’’ स्पष्ट लिखा हुआ था. मकान सिंह ने हरि को धिक्कारते हुये वह प्रमाणपत्र और बैग उसकी ओर फेंका और स्वयं आगे बढ़ गया.
हरि की पकड़ कुछ ढीली हुयी तो कशरी दौड़ते हुये दहाड़ मारकर बेटे किड़ू के शरीर के ऊपर गिर पड़ी. हरि ने सुबकते हुये नगदी वाला बैग पास खड़ी पत्नी को पकड़ाया और माँ को किड़ू के मृत शरीर से अलग करने लगा. परन्तु माँ तो किड़ू के साथ ही परलोक सिधार चुकी थी.
शमशान घाट पर दो चितायें सजायी गयी और दोनो शव चिता पर रखे गये तो गांव के लोग एक-दूसरे से पूछने लगे यार, कशरी तो बेटे के गम में मरी, साफ है. पर, किड़ू इतनी बड़ी जंग जीतने के बाद घर पहुँच गया था. तो फिर उसकी मौत थकान के कारण हुयी या भूख के कारण या गांव के लड़कों द्वारा लहूलुहान करने से या फिर बार-बार पुकारने पर भी भाई और माँ द्वारा दरवाजा न खोलने के सदमें से?
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देहरादून में रहने वाले शूरवीर रावत मूल रूप से प्रतापनगर, टिहरी गढ़वाल के हैं. शूरवीर की आधा दर्जन से ज्यादा किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं. विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लगातार छपते रहते हैं.
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