बात शुरू करने से पहले जन्नत नशीन शायर निदा फ़ाज़ली साहब का एक शेर
“हर आदमी में होते हैं दस बीस आदमी
जिसको भी देखना हो कई बार देखना”
आज दशहरा था, पूरी दुनिया में था. अल्मोड़े में भी था. रावण को राम ने आज ही के दिन मार कर इस त्यौहार को जन्म दिया था. पूरे भारत में यह त्यौहार कहीं शोक के रूप में तो कहीं खुशी के रूप में विभिन्न प्रकार की सांस्कृतिक गतिविधियों के साथ समान रूप से मनाया जाता है, पर अल्मोड़े में मसला कुछ अलग तरह से पेश आता है.
अल्मोड़ा शहर में थाना बाजार से नंदा देवी तक विभिन्न प्रकार के पुतले लगभग दो सप्ताह पहले से बनना शुरू हो जाते हैं. घर से कार्यालय आते वक्त इन पुतलों को बनते देखा करता तो सोचता कि सब अपने-अपने टेस्ट और बजट का रावण बना रहे होंगे, पर चौथे-पांचवें दिन पता चलता कि जनाब रावण तो एक ही बनता है, यह शेष सारे पुतले रावण के परिजनों के हैं.
रावण के साथ-साथ मेघनाथ और कुंभकर्ण की मौत का उत्सव तो बचपन से देखते आए थे, पर रावण की पूरी जमात को फूंकने का ठेका जैसे अल्मोड़े को ही मिला हो.
कुल जमा छत्तीस प्रकार के पुतले इस बार दशहरा में शामिल थे. दशहरा, मानो सामूहिक वध का कार्यक्रम बन गया था. यह रावण और उसके खानदान को चारों तरफ से घेरकर मारने का सामूहिक कार्यक्रम था, जो मैंने सिर्फ अल्मोड़े में देखा.
थोड़ी खोज-खबर लेने पर पता चला कि रावण फूंकने की परंपरा अशोका होटल के साह जी के दादाजी ने आरंभ की थी, जो कि खुद रामलीला में रावण का अभिनय करते थे. अभिनय ऐसा असली रावण अभी उन्हें अपना क्लोन समझने की भूल कर बैठे.
रावण अल्मोड़े की संस्कृति का अभिन्न अंग है, न केवल रावण बल्कि उसके अन्य परिजन भी. यह अपसंस्कृति पर सुसंस्कृति की जीत है. यह जीत है अभावों पर प्रयासों की, परिश्रम की, लगन की, साहस की. पुतले तो मात्र प्रतीक हैं. असली चीज जो सामने आती है वह पुतलों के माध्यम से शहर का अपने आपको प्रकट करना.
यहां हर मोहल्ले का अपना रावण है. रावण न सही तो उसका कोई न कोई परिजन. सब बिना किसी पूर्व निर्धारित व्यवस्था के अपना-अपना कैरेक्टर पुतलों के रूप में बनाते हैं. अमूमन पुतलों में प्रयोग होने वाली सामग्री स्थानीय उत्पादों, उपोत्पादों और अवशिष्ट उत्पादों से मिलकर तैयार होती है. जिसका स्थानीय पुतला कमेटी के आकार और उनके द्वारा उगाहे गए चंदे से सीधा-सीधा कनेक्शन होता है. पुतला आरंभ में प्रारंभिक निवेश की दरकार रखता है. कई बार पुतले का बजट कम पड़ जाने पर पुतले की क्वालिटी और थीम में मामूली रद्दोबदल करने पड़ते हैं. कई बार तो पुतले को फाइनल टच मिलते-मिलते कथानक कायापलट कर लेता है. कुछ का कुछ बन जाता है.
पुतले चाहे वह ताड़का का हो, सुबाहु का हो, धूम्राक्ष का हो, मकराक्ष को हो या फिर किसी अन्य खानदानी का, बनता पूरे मनोयोग से है.
नंदादेवी, दुगालखोला, थानाबाजार, लालाबाजार, जौहरीबाजार, धारानौला, टम्टा मुहल्ला, राजपुरा, गुरुरानीखोला, कर्नाटकखोला, सबके अपने-अपने पुतले. सबकी अपनी-अपनी थीम. सबका अपना-अपना बजट. सारा काम एक सैट फार्मूले पर बिना किसी नियंत्रण, निर्देशन, अधीक्षण के स्वतः स्फूर्त भाव से चलता है.
इन दिनों सांस्कृतिक गुप्तचर सेवा अचानक अस्तित्व में आ जाती है जो, घूम-घूम कर यह पता चलाती है कि कौन से मोहल्ले में कौन सा मैटेरियल, पुतले में कहां प्रयोग हो रहा है.
सबसे महत्वपूर्ण यह कि पुतले बनाने में किशोर, बच्चे और आरंभिक नौजवान ही शामिल रहते हैं. कहीं किसी वृद्ध को अपनी मूछों पर ताव देते हुए पुतला बनाते नहीं देखा. बूढ़ों का काम सिर्फ पुतलों का दूर से निरीक्षण करना भर है, फिर चाय की दुकान पर बैठकर नौजवान पीढ़ी को सांस्कृतिक रूप से गरियाना कि यह भी कोई पुतला ठहरा. पुतला तो हम बनाते थे दाज्यू. पुतला ऐसा कि स्वयं कैरेक्टर पुतला देख ले तो डर के मारे भाग जाये. एक से बढ़कर एक लफ्फाजी. एक से बढ़कर एक सांस्कृतिक आलोचना. मगर एक दायरे में और वह दायरा होता है अल्मोड़ियापन का जो स्वयं में सारे दायरों के ऊपर होता है.
हर पुतला कमेटी का लक्ष्य होता है अपने पुतले को इक्यावन हजार का इनाम दिलवाना, क्योंकि जब सारे पुतले जब शिखर होटल के पास नए रंगरूटों की तरह खड़े कर दिए जाते हैं तो तमाम बूढ़ी पारखी आंखे, जो कि निर्णायक मंडल का अंग होती हैं, पुतले को चारों तरफ से नापती हैं.
शरीर के गठन के अंक, कपड़ों के अंक, भाव के अंक, गहनों के अंक, आकार-प्रकार के अंक, ओवरऑल अपीयरेंस के अंक अलग. जो टॉप करेगा वह इक्यावन हजार ले पाएगा, शील्ड प्रशस्ति पत्र अलग. इसके साथ मिलती है पूरे साल भर दिखाई जाने वाली न दिखने वाली ठसक.
पुतला निर्माण कला सांस्कृतिक आदान-प्रदान की वाहक है, संस्कारों की संवाहक है, संस्कार रावणत्व के नहीं संस्कार अल्मोड़त्व के. बच्चे जिस भाव से पुतला बनाते हैं उसे देखकर लगता है कि पता नहीं इन नन्हे कलाकारों के मन में क्या-क्या चल रहा होगा.
पुतले तो प्रतीक मात्र है पुतले के पीछे का भाव ही प्रधान है. यह भाव है जातीय, क्षेत्रीय, भाषाई, आर्थिक, सांस्कृतिक बेड़ियों को तोड़ने का, पुतलों के स्तर पर सब समान हो जाते हैं, न कोई लिंग, भाषा, धर्म, जाति, रंग की असमानता और न कोई कला, कलाकार, कृति की असमानता. सब समरस भाव से लहराते अल्मोड़त्व के सागर में डूब जाते हैं एक ऐसा सागर जो शहर की पहचान है. अल्मोड़े का आधार है, अल्मोड़े की जान है. यदि इस अल्मुड़ियापन को जो गाहे-बगाहे पुतलों, रामलीला, दुर्गा पूजा और विभिन्न रंगों के माध्यम से अपने आप को प्रकट करता है को अल्मोड़े से हटा दिया जाए तो फिर अल्मोड़े में शायद ही कुछ बचे.
यह लाइन है, वाइब्रेटिंग है, एक स्पंदन है, एक स्पार्क है, एक प्राणवायु है जो अपने आप को प्रकट ही नहीं करती बल्कि यह भी बताती चलती है कि यदि यह ना होगा तो कुछ ना होगा
शिखर होटल से स्टेडियम का रास्ता यूं तो बमुश्किल आधे घंटे का होता है पर एक पुतला अपने संघार का यह सफर छः से आठ घंटे में पूरा करता है. ढोल दमाऊ, रणसिंघा जैसे पारंपरिक वाद्ययंत्रों की धुन पर थिरकते सभी वर्ग के स्त्री-पुरुष बच्चे अपने जीवन के असामान्य आनंद को बड़े ही सामान्य और सहज तरीके से उठाते हुए आगे बढ़ते चले जाते हैं जैसे यही गति अल्मोड़े की पहचान हो, यही सहजता, सरलता, स्वाभाविकता, संप्रेषणीयता, समानधर्मिता संस्कृति के रूप में पुतलों के माध्यम से प्रकट होती है.
कहने को तो ये पुतले भर हैं. पर वास्तव में पुतले मात्र पुतले नहीं हैं. जीवन है, सपने हैं, भाव है, अभाव है, कुभाव है, आदत है, नशा है, शौक है, जिम्मेदारी भी है, अल्मोड़ा है और उस अल्मोड़े के रूप में एक सांस्कृतिक पहचान है जो जीवन का आधार है. यह अपनी विशिष्ट सोच का भी आधार है उन तमाम भावों का आधार भी है जिसे देवत्व और दानवता से परे अल्मोड़त्व कहा जाता है.
यह एक परम निनाद है, परम सत्ता को सामीप्य का सुख है, यह प्रतीक है देवताओं के आशीर्वाद का, यह सुख है सांस्कृतिक आदान-प्रदान का, यह सुख है भाषाई बंधनों से ऊपर उठने का, यह सुख है गरीबी, अशिक्षा, अज्ञान, अंधकार से मुक्ति प्राप्त करने का.
यह अलग है यह मुक्ति का भाव मात्र है, असली मुक्ति नहीं परंतु यदि भाव ही नहीं होगा तो सपने नहीं होंगे, सपने नहीं होंगे तो मुक्ति कहां से होगी. इन सबसे परे है यह भाव है ठोस अल्मुड़ियेपन का जिसमें सबको समेटने की और पचाने की शक्ति है. यही शक्ति अल्मोड़े की पहचान है, आधार है और अल्मोड़े के लिये अल्मोड़े होने का एकमात्र कारण भी है.
दशहरे में पुतलों की विविधता को देखकर लगता है कि शहर पर रावण और उसके परिजनों की एक विशिष्ट प्रभाव है. शहर को रावण और उसके संबंधियों से एक विशेष लगाव है. उनके प्रति सम्मान है, उनके प्रति एक भाव है जो भले ही बुराई को समाप्त करने वाली फोर्स की पैदाइश हो पर यह है तो एक भाव ही.
दशहरे के रूप में शहर का असली टेस्ट दिखता है. शहर क्या सोचता है, क्या करता है, क्यों करता है, सब कुछ करने के पीछे कारण क्या है, सबकुछ दशहरा मेला में स्पष्ट दिखता है. वह अटूट उत्सवधर्मिता जो दशहरे के रूप में प्रकट होती है, वहीं शहर को लाइव बनाती है. यह शहर है ही अपने आप में लाइव रोमांस, एक ऐसा रोमांस जिसका नशा कभी कम नहीं होता.
पुतले स्टेडियम तक का सफर हिलते दुलते गिरते पड़ते कर ही लेते हैं, फिर बारी आती है उनके दहन की, संघार कि, उनके अस्तित्व की समाप्ति की. लाइन से एक-एक करके सारे पुतले जलते हैं. कुछ जलने में हेकड़ी दिखाते हैं तो उन्हें सामूहिक प्रयास से अपनी अंतिम स्थिति के हवाले कर दिया जाता है, और फिर जल जाते हैं सारे कष्ट, सारे दुख, सारे अभाव, सारे शोक और धुल जाती है सारी कालिमा जो रावण के रूप में छाई हुई थी.
अल्मोड़ा अपने आपको तैयार करता है नये और, अधिक मजबूत अल्मोड़ा के लिए, नए देवत्व के लिए, नए स्वरूप के लिए. यह ऑटोअपग्रेडेशन, सिस्टम फॉरमेशन की प्रक्रिया है, नया प्रोग्राम इंस्टॉल करने की कवायद है. जीने की, जिंदा रहने की, और जिंदगी के साथ निरे अल्मुड़िया अंदाज में दो-दो हाथ करने की.
दशहरे पर यहां विवाह भी जमकर होते हैं. जिन जातकों की कुंडली में विवाह ग्रह अनुसार विवाहयोग नहीं बन पाता, उन्हें भी दशहरे मेले में निपटा दिया जाता है. इस बात के साथ कि नई शुरुआत करो, अब तो रावण भी मर गया. जिंदगी स्वागत कर रही है अल्मोड़े में और अल्मोड़ा स्वागत कर रहा है नई जिंदगी का.
विवेक सौनकिया युवा लेखक हैं, सरकारी नौकरी करते हैं और फिलहाल कुमाऊँ के बागेश्वर नगर में तैनात हैं. विवेक इसके पहले अल्मोड़ा में थे. अल्मोड़ा शहर और उसकी अल्मोड़िया चाल का ऐसा महात्म्य बताया गया है कि वहां जाने वाले हर दिल-दिमाग वाले इंसान पर उसकी रगड़ के निशान पड़ना लाजिमी है. विवेक पर पड़े ये निशान रगड़ से कुछ ज़्यादा गिने जाने चाहिए क्योंकि अल्मोड़ा में कुछ ही माह रहकर वे तकरीबन अल्मोड़िया हो गए हैं. वे अपने अल्मोड़ा-मेमोयर्स लिख रहे हैं.
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बेहतरीन! अगर इसे मैंने दशहरा के पहले पढ़ा होता तो अल्मोड़ा भाग जाता।
बहुत सुन्दर...सभी को विजयादशमी की हार्दिक शुभकामनायें। मै स्वयं बागेश्वर का निवासी हूँ और इस लेख को पढने के बाद विवेक जी से मिलना चाहता हूं
My Mob no is 9758216216. Thanks #Umesh_Upadhyay@bgr
मि बागेश्वर बै छूं..
Bahut shaandar varnan .ek almoriye se jyada almoriya hai vivek jee ...sadhuwaad. .
विवेक जी,
आप के अल्मोड़ा संस्मरण रोचक तथा दिलचस्प हैं। मैने अपने ब्लौग https://middlebranch.wordpress.com/2019/12/06/death-of-a-town/ में इसका जिक्र करते हुए आपके संस्मरणों को hyperlink किया है।
शुभेच्छाएं एवं धन्यवाद।