बीती 22 जून से 25 जून इंदौर की प्रतिष्ठित सांस्कृतिक संस्था ‘सूत्रधार’ ने इंदौर के होटल अपना व्यू के सबरंग सभागार में फ़िल्म आस्वाद की कार्यशाला आयोजित की जिसमें आस-पास के इलाके और इंदौर से कुल जमा 45 प्रतिभागी शामिल हुए. हरेक प्रतिभागी से एक न्यूनतम शुल्क भी लिया गया. कार्यशाला हर रोज दुपहर 2 से रात 8 बजे तक चली और हर शाम एक फ़ीचर फ़िल्म की स्क्रीनिंग भी की गई.
कार्यशाला में सिनेमा के इतिहास, संगीत, प्रमुख फिल्मकारों से लेकर फ़िल्म आस्वाद क्यों और कैसे जैसे विषयों पर बोलने के लिए देश के अलग –अलग कोने से विशेषज्ञ बुलाये गए. तीसरे और चौथे दिन मुझे भी दो थीम पर अपनी बात रखनी थी. हर थीम के लिए तीन घंटे का समय नियत था. मेरी पहली थीम थी ‘तकनीक के नए दौर में नया भारतीय सिनेमा: चुनौती व संभावनायें’ और दूसरी ‘ईरानी सिनेमा की विविधता’.
मैंने पहली थीम को तकनीक के सस्ते होने और इस वजह से बन रहे नए हिन्दुस्तानी सिनेमा को अपना केन्द्रीय बिंदु बनाया. इसी क्रम में नयी तकनीक की वजह से तेजी से प्रसारित हुए अपने सिनेमा अभियान ‘प्रतिरोध का सिनेमा’ को भी परिचित करना था. ट्रेन के लेट होने की वजह से मैं पहले दिन सिर्फ नयी पुरानी तकनीक की तुलना कर नए बन रहे सिनेमा के बहुत थोड़े उदाहरणों से ही प्रतिभागियों को परिचित करवा सका. शाम होते- होते फीचर फिल्म दिखाने के समय तक मैं 90 मिनट ही बोल सका था. अपना सत्र समेटते हुए मैंने अगले दिन बात को पूरा कहने का वायदा किया.
अगले दिन जब ठीक 2 बजे मेरा सत्र शुरू हुआ तो मुझे अगले 180 मिनट में अपनी पहली थीम के तर्कों को और विस्तार देने के साथ –साथ ईरानी सिनेमा की विविधता पर भी बात रखनी थी. मेरी पहली थीम का विषय सर्वथा नया था इसलिए न्यूनतम उदाहरणों के बावजूद मैंने कुछ समय ईरानी सिनेमा के समय से चुरा लिया.
पहली थीम के अंतर्गत दिखाए गए फिल्मों के अंशों से दर्शको के एक समूह में उत्तेजना बनती दिख रही थी लेकिन प्रतिभागियों का एक दूसरा छोटा समूह सिनेमा आस्वाद की क्लासिक परंपरा में अभ्यस्त होने के कारण नए बनते सिनेमा वृत्त को समझने की बजाय ईरानी सिनेमा का समय कम करने की वजह से अपने असंतोष को अलग –अलग तरीके से व्यक्त कर रहा था और एक समय मुखर होकर मेरी प्रस्तुति में हस्तक्षेप करने लगा. मुझे तब बहुत संतोष हुआ जब प्रतिभागियों के एक दूसरे समूह ने उनके असंतोष का विरोध किया और जोर देकर कहा कि नए सिनेमा को समझाना भी फ़िल्म आस्वाद का जरुरी हिस्सा है और हमें कार्यक्रम के व्यतिक्रम से कोई आपत्ति नहीं बल्कि सहमति है.
सहमति का अहसास और गहरा हुआ जब दोनों थीमों की समाप्ति के बाद मेरे अनुरोध करने पर इस कार्यशाला के कुछ प्रतिभागियों ने ‘प्रतिरोध का सिनेमा’ अभियान के लिए आर्थिक मदद भी की. सहयोग और मदद का यह सिलसिला अभी थमा नहीं बल्कि चायपान के दौरान कुछ लोगों ने मुझसे किताबें खरीदीं और बड़े नोट से बची हुई बड़ी राशि को बहुत विनम्रता के साथ सिनेमा अभियान के लिए भेंट कर दिया.
सबसे बड़ा पुरूस्कार नए सिनेमा को तब मिला जब शामिल प्रतिभागियों में से तीन लोगों ने क्रमश रायपुर, खंडवा और इंदौर के एक दूरस्थ इलाके में मुझे ऐसी कार्यशाला और सिनेमा आयोजन शुरू करने का न्योता दिया और दो प्रतिभागियों ने दलित थीम पर बनी फ़िल्म के औचित्य पर सवाल खड़ा किया और प्रतिभागियों के ही दूसरे समूह ने प्रतिवाद स्वरुप उसका प्रतिरोध करते हुए उसके निर्माण को उचित ठहराया.
मुझे लगता है कि फ़िल्म आस्वाद सिर्फ कालजयी फिल्मों को देखने भर का मामला नहीं बल्कि दिखाई जा रही फिल्मों से उपजी बहस से निर्मित वह नया माहौल है जो हर तरह के विचारों को सुनने और उनपर समझदारी के साथ बहस करने की समझ बनाता है.
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