दो दोस्त थे. दोनों में काफी घनिष्ठता थी. दाँत काटी दोस्ती समझ लीजिए. ये बात, इस नजरिए से बखूबी साबित होती थी कि, बेहद नाजुक मौकों पर भी दोनों ने हमेशा एक ही जैसे कदम उठाए. मास्टर डिग्री के दौरान, एक ही विषय में दाखिला लिया. ‘एस्ट्रोनॉमी’ का परचा ऐच्छिक रहता था, कहने की बात नहीं है कि, दोनों ने एस्ट्रोनॉमी पढ़ी. जैसे भी पढ़ी, बस पढ़ी. साल के आखिर-आखिर तक, दोनों का अनुमान था कि, वे इसमें पैंसठ-सत्तर नंबर आसानी से खींच लेंगे. परीक्षा सर पर थी. दोनों अपनी-अपनी हैसियत और समझबूझ के हिसाब से तैयारी को अंतिम रूप देने में जुटे हुए थे.तभी एक शाम, उनमें से एक, जिसका नाम बलराम था, ने कहीं से एक उड़ती-उड़ती खबर सुनी. खबर इतनी जोरदार थी कि, वो खुद को उस खबर के पीछे लगने से नहीं रोक पाया. वैसे भी, वह शांत होकर बैठ ही नहीं सकता था, खुद को शायद ‘ट्रबवशूटर’ या विघ्ननाशक जैसा लगाता आ रहा था.
खबर काफी वजनदार निकली, जो उससे सँभाले नहीं सँभली. भारी उत्साह से लबरेज़ होकर वह दौड़ा-दौड़ा, अपने दोस्त राम से मिलने गया. किसी तरह की भूमिका बाँधे बिना, उसने उसे एक खुफिया बात साझा. उत्तेजना के मारे जुबान लड़खड़ा रही थी, “अपने कैम्पस के थके-थके लौंडे भी निन्यानबे नंबर तक खेंच गए.” फिर उसने आश्चर्य से आँखें फैलाकर कहा, “सुन रहे हो बे. सौ में से निन्यानबे. अबे जानते हो. सौ कम एक. पूरे के पूरे मान लो.” फिर अभिमान के साथ बोला, “क्या हम उनसे भी गए बीते हैं यार. अपन के अभी ऐसे दिन तो नहीं आए.” उसे ज्ञात तो नहीं था, लेकिन आभास जरूर था, कि ऐसा क्यों हुआ होगा. ‘हाउ इज इट पॉसिबल.’ लौंडे ऐसा कौन सा हॉर्लिक्स खा लिए कि, चुटकी बजाते ही हुशियार हो गए. उसका अनुमान था कि, ‘मास्टरजी ही उस पर्चे के ‘पेपर सेटर’ थे. हो-ना- हो, इसके पीछे उनके ‘आशीर्वाद’ का हाथ था. तभी से थके हुए लौंडे भी, लगातार तीन वर्षों से धकाधक नंबर पीट रहे थे.’ उसने राम को आश्वस्त किया कि, उनसे उसकी थोड़ी – बहुत जान-पहचान निकलती है. तो दोनों दोस्तों ने प्लान बनाया कि, ‘मास्टर जी से परचा लपकने में कोई बुराई नहीं. फिर, हम भी ठाठ से निन्यानबे नंबर खींचेंगे.’
एक भौतिकवादी सिद्धांत के अनुसार अगर, लोगों को ‘इंटीग्रिटी’ और ‘वॉल्यूम’ में से एक गुण चुनने की आजादी दी जाए, तो ज्यादा वॉल्यूण्टर ‘वॉल्यूम’ के पक्ष में ही जाकर गिरेंगे. बातें चाहे कितनी भी बड़ी-बड़ी कर लें. यह इंसान की सहज और नैसर्गिक वृत्ति बताई जाती है कि दोनों में से अगर चुनने की बात आती है तो, कमोबेश वह मात्रा की ओर आकर्षित हो जाता है. तो परीक्षाएँ सर पर थी. अंधेरा होते ही दोनों ‘गुरुदर्शन’ के लिए उनके द्वार पर जाकर गिरे. ‘डबल जीरो पान’ के दो-दो जोड़े भेंट के तौर पर लेकर गए थे. गुरु ने उन्हें देखा, तो छूटते ही उन्हें संदेह हुआ. दोनों ने कोहनी से हाथ जोड़ते हुए, लंबे हाथ करके गुरु को प्रणाम किया. गुरु ने उन्हें देखते ही कड़वी बातें कहनी शुरू कर दीं. पहले से ही उनंके बारे में कोई ठोस धारणा पाले हुए थे. भारी और कड़वा सा लेक्चर दिया. गुरुद्रोही, उच्छृंखल, आवारा और न जाने क्या-क्या कहा. गुरु वचनों को दोनों ने समभाव से सुना. एकदम निर्विकार भाव से. इतनी-इतनी बातें सुनकर भी दोनों शांतभाव से खड़े रहे. शायद मन-ही-मन ‘शांतम् पापम्, शांतम् पापम्’ मंत्र का जाप करते रहे. गुरुकोप शांत होते ही, एक ने मौका देखकर पत्ता फेंका, “आप तो भक्तवत्सल हैं, सर. आपके लिए हमारे मन में कितनी श्रद्धा है, हम जता नहीं सकते. हम आपके शरणागत हैं. अब आप चाहे दुत्कारो, चाहे पुचकारो. शिष्य तो हम आपके ही रहेंगे.”
गुरुजी अप्रभावित से बने रहे. थोड़ी देर उन्होंने भाव खाए, थोड़े से तेवर दिखाए. तो दूसरे ने अचानक उनके चरणों में छलांग लगा दी. गुरू अचकचा कर रह गए. चेला दंडवत् होकर बोला, “हमें अभय चाहिए गुरुजी. आपके होते हुए हम रोयें-कलपें, ये कहाँ का इंसाफ है. हम दर- दर भटकें, ये तो आपको भी अच्छा नहीं लगेगा.” देखते-देखते सीन इम्मोशनल होने लगा. शिष्यों की आर्त पुकार सुनकर, गुरु जी उनकी अनदेखी भी नहीं कर सकते थे. मन के भाव पहचानते ही वे पिघल गए. थोड़े असहाय से दिखे. बोले, “शरीफों के लिए हम महाशरीफ हूँ और गुण्डों के लिए महागुण्डा.”
इतना कहकर वे स्वयं को निर्लिप्त नहीं रख सके. अंततः उन्हें लिप्त होना ही पड़ा. घोर वात्सल्य का सा वातावरण बन आया. उनके मन में दया, ममता और सहानुभूति एकसाथ उमड़ पड़ी. मुँह में पान का बीड़ा दबाकर बोले, “ठीक है फिर, नोट करो.” वे सवाल पे सवाल बताते गए और लड़के नोट करते चले गए. वे छह सवाल बता चुके थे. तभी उन्हें न जाने क्या सूझा कि, वे अचानक मुँह फुलाकर रूठ गए. अकस्मात् उन्होंने सवाल बताना बंद कर दिया और लड़कों की तरफ पीठ फेरकर बैठ गए. सीधे आनाकानी पे उतर आए. लड़कों ने कहा, “गुरुजी आगे.” गुरु अनमने भाव से बोले, “अब हम नहीं बताऊँगा.”
शिष्य अवाक् से होकर रह गए. गुरू को आखिर हो क्या गया है. अभी तक तो सब ठीकठाक था. बड़े प्रेम से सबकुछ बताते जा रहे थे. इन्हें मतिभ्रम होना था, तो अभी होना था. राम तो सीधे गिड़गिड़ाने पे उतर आया, “हमें मझधार में तो मत छोड़िए सर. ऐसे में तो हम कहीं के नहीं रहेंगे. आधा तो पार लगा ही लिया है, थोड़ा सा धक्का और लगा दो सर. प्लीज सर. बड़ी कृपा होगी. आप के गुण गाएंगे. आपको दुआ देंगे.”
गुरु-कोप शांत करने में आधे घंटे से ऊपर होने को आया था, लेकिन वे टस- से-मस न हुए. आगे बढ़ने को वे बिल्कुल भी राजी नहीं दिखे. तभी ऐसा लगा कि, बलराम कुछ सोच चुका था. दिमाग चलाने में तो वो पहले से ही काफी पहुँचा हुआ था. “अब चुप कर यार. निष्ठुर लोगों की खुशामद से कोई फायदा नहीं. जो जरूरतमंदों की जरूरत न समझे. ऐन मौके पे धोखा दे.. पीठ पे खंजर भोंके… चलो यार यहाँ से. मेरा तो दम घुट रहा है. अब मैं यहाँ एक सेकेंड भी नहीं रुक सकता.” कहकर उसने, अपने दोस्त को आँख दबाकर इशारा किया.
दोनों ने गुरु को चलताउ नमस्कार कहा और बाहर चले आए. गेट से बाहर निकलते ही, वो जबरदस्ती राम के गले में लटक गया. विजयी स्वर में बोला, “वैसे भी दस में से पाँच ही तो करने हैं यार. रोते क्यों हो. थोड़ा गम खाओ. सौ नंबर के पर्चे में, एक सौ बीस का जुगाड़ तो दे ही दिया बेचारे ने. अब उसकी जान ले लोगे क्या.”
उस पर्चे के होने में अभी चार दिन शेष थे. तो अगले दिन थोड़ी सी दौड़-धूप करनी पड़ी. यूनिवर्सिटी गए और सुबह-सुबह एक्जाम कंट्रोलर के ऑफिस में जा धमके. खींचकर, एक एप्लीकेशन लिख मारी, “अपरिहार्य कारणों से, अब एस्ट्रोनॉमी पढ़ने में हमारा मन नहीं है. दो-चार दिन से तो कुछ ज्यादा ही भाने लगी है. ऐच्छिक परचे के रूप में, अब हमारा मन, ‘लीनियर इक्वेशन’ पढ़ने को हुलस रहा है. ऐच्छिक माने ‘हमारी इच्छा’. इसलिए हमारी इच्छा का मान रखते हुए, निश्चित रूप से हमें विषय-परिवर्तन का अवसर मिलना चाहिए.”
‘ऐच्छिक’ शब्द पर भरपूर बल दिया गया था. आगे आग्रह किया गया था- “हमें फौरन अनुमति दी जानी चाहिए. यदि अनुमति नहीं दी जाती है, तो समझिए कि, हमारा तो विकास ही रुक जाएगा. हमारी नजर में यह फैसला, यूनिवर्सिटी का सबसे बड़ा प्रतिगामी कदम होगा.” संक्षेप में, सारे छलछिद्र अपनाए गए. तो तब्दीली की अनुमति, हाथों-हाथ मिल गई.
अब क्या करें. खजाने की चाबी हाथ में थी. दोनों दोस्त फूले नहीं समा रहे थे. दोनों परम खुशहाल से लग रहे थे. कभी सीटी बजाते, तो कभी सिसकारी भरते. अभी परचे में तीन दिन शेष थे, लेकिन दोनों को अभी तक परचे की एबीसीडी भी मालूम न थी. न किताब थी, न नोट्स. तो ये जिम्मा फिर से भाई बलराम ने उठाया. उसने जहाँ-तहाँ से पाठ्य-सामग्री जुटाई, सॉल्वड पेपर्स जुटाए. जब वो नोट्स का गठ्ठर उठाए उसके कमरे में हाजिर हुआ, तो राम ने कहा, ” इतना ही पढ़ना था तो पहले वाले में क्या बुराई थी.’
फिर कुछ निश्चय करके बोला, “ऐसे मौके पे ऐसे डराते हैं क्या. देख भाई! कान खोल के सुन ले. छह सवालों के अलावा, मैं तो एक भी अक्षर पढ़ने से रहा. छाँटकर वोई निकाल. बाकी कूड़ा-कर्कट साईड में धर दे. बल्कि मेरी नजरों से तो दूर ही कर दे यार.” खुशी-खुशी इस फैसले पर अमल करने का निश्चय हुआ. छह सवालों को दो दिनों में कई-कई बार लगाया गया. बात-की-बात में आधा दर्जन नोटबुक्स भर डाली गई. कॉमा, फुलस्टॉप सहित उन छह सवालों की घोंटकर लुगदी बनाकर रख दी. परचे से पहली रात मोहल्ले में शादी थी. ठाठ से विवाह-समारोह में गए और पूरी रात नाचे-गाए, भरपूर आनंद उठाया.
सुबह घर पहुँचे तो घरवालों ने कसकर डाँट लगाई, “कहाँ थे पूरी रात. तुम्हें होश है कि नहीं. आज तो तुम्हारा आखिरी परचा है.” उन्हें टका सा जवाब दिया गया, “आपको डिविजन से मतलब है और वो आ जाएगी. जो कहोगे, वो ला देंगे. फिकर नॉट. चाहो तो जितने नंबर बोलो, उतने लाकर दिखा दें.” कुल मिलाकर आत्मविश्वास, एकदम मुखर होकर सतह पर उभर आया था. एकदम वाचाल सा हो गया लगता था. ‘लीक पर्चा’ खुलकर, अपना प्रताप दिखा रहा था. ग्यारह बजे से परचा था. साल भर क्लास का मुँह नहीं देखा था. जरूरत ही नहीं समझी. हाजिरी तो प्रॉक्सी से चल जाती थी. परीक्षा देने खुद जाना पड़ा. अकड़ी हुई मुद्रा में एग्जाम हॉल में पहुँचे. मुँह से खुद-ब-खुद सीटी बजती जा रही थी. पर्चा हाथ में आया, तो उसे सिरमाथे नहीं लगाया. हरबार लगाते थे. बस आज नहीं लगाया. दोनों जल्दी में थे, एक-एक सेकेंड रुकना भारी पड़ रहा था. परचा खोला, तो उसमें चार सेक्शन थे. चारों ऐच्छिक थे.’बी सेक्शन’ को तो तीन दिन पहले ही अपनाया गया था. एकदम ताजा-ताजा. तो अपने वाले ऐच्छिक परचे पर नजर डाली. नजर पड़ते ही जवान भौचक्के होकर रह गए. सवालों पर ऊपर से सरसरी नजर डाली गई थी. फिर नीचे से ऊपर की ओर नजर दौड़ाई. एक्कौ सवाल नहीं फँसा था.
उस क्षण दिल इतनी जोर से धड़का कि, बस किसी तरह हृदयाघात होते-होते बचा. उनमें से एक भी सवाल नहीं फँसा था ‘शॉर्ट नोट’ तक नहीं पूछा गया था. पीछे की कतार में कोने पर, राम की सीट थी. उस पर नजर डाली तो देखा कि, वह सीट पर खड़ा उठने का उपक्रम कर रहा था. शायद परचे का बहिष्कार करने की नीयत से ऐसा कर रहा था. उसे इशारे से बैठने का संकेत किया और हाथ उठाकर ढाढस बँधाया. निष्कर्ष रूप में यह साफ कर दिया गया था कि, पीठ दिखाकर नहीं भागेंगे. जूझेंगे, चाहे जूझते-जूझते रणभूमि में वीरगति को ही क्यों न प्राप्त हो जाएँ, ‘क्विट’ नहीं करेंगे.
एक बार फिर से उस हिस्से पर नजर डाली. पर्चे से, वितृष्णा सी हो आई. सारे-के-सारे सवाल, अजनबी से दिख रहे थे. एस्ट्रोनॉमी के हिस्से पर नजर डाली, तो साढे तीन सवाल, ऐसे दिखे जो होने लायक थे. काश, इसी के साथ वफादारी दिखाए होते, तो सौ में से सत्तर तक तो आसानी से खेंच सकते थे . लेकिन ऐसा करने से कोई लाभ नहीं दिखाई दिया. जँचेगा ही नहीं. अगर आप कर भी लेते हैं, तो आपका परिश्रम, विषय-वस्तु से बाहर का लेखन माना जाएगा. नतीजा सिफर ही रहना था. नदी सामने बह रही थी और ‘पथिक’ प्यासे मरे जा रहे थे, एकदम खारा पानी.
एस्ट्रोनॉमी, शापित जल जैसा हो गया . मोती लूटने के लोभ में, क्या से क्या हो गया. सवालों का अंदाजा तक नहीं लग रहा था. इसीलिए तो बुजुर्ग लोग कहते आए हैं कि निश्चित को छोड़कर अनिश्चित की ओर भागना मूर्खता है. आप जिस सिस्टम को जानते-समझते हैं, उसी के साथ चलने में समझदारी रहती है. नहीं तो ‘पर्दे पर मंजर बदल जाता है. ‘गुरु के प्रति इतना रोष उमड़ा, कि अगर वे कहीं आसपास होते, तो उनके लिए तो कयामत ही आ जाती. फिर दो-तीन गिलास पानी गटके. दोनों दोस्तों में दृष्टि-विनिमय हुआ, जिसमें बहुत बड़ा संदेश छुपा हुआ था- ‘जो हमें आता है, उसे ही लिखने में क्या हर्ज है. खाली बैठने से तो अच्छा है, कि कुछ कर ही लिया जाए. कलम हमारी, शीट हमारी. ऐसे में मनमानी करने से, हमें कौन रोक सकता है.
दुनिया में कई लोग होते हैं, जो हमेशा सब्जेक्ट से हटकर बात करते हैं. प्रसंग कुछ और रहता है, और वे अपना चरखा चलाए रहते हैं. तब भी, सफल लोगों में गिने जाते हैं. ट्राई मार लेते हैं. ट्राई करने में कोई हर्ज नहीं. सवाल कोई भी पूछा गया हो आदर्श का मुलम्मा चढ़ाकर जगह-जगह एक ही बात को अलग-अलग तरीके से पेश करते हैं कि नहीं. परीक्षा माने- ‘पर इच्छा.’ दूसरे की इच्छा से तो हमेशा से परचे देते आ रहे हैं. बरसोंबरस परीक्षक की इच्छा के अधीन ही तो लिखते आ रहे थे. जो उन्होंने पूछा, तोते की तरह रटा-हटाया जवाब दोहरा दिया. ये बात भी कोई बात हुई भला. तो आज वो निर्णायक घड़ी आ ही गई.’ तो निश्चय हुआ कि, आज ‘स्वेच्छा’ से लिखेंगे. सवाल कुछ भी पूछा गया हो, उनकी तो बिल्कुल नहीं सुनेंगे. करेंगे, तो अपने मन की करेंगे.
इष्टदेवता को स्मरण किया. फिर लिखना चालू किया. एकबार जो चालू किया, तो फिर रुके नहीं. सुपरफास्ट स्पीड से लिखते चले गए. लिखते-लिखते ही पानी पिया. दो-दो ‘एडिशनल शीट्स’ लिख मारी. लिखने में कोई कोर- कसर नहीं छोड़ी . जी-तोड़ लिखा. परचा खत्म होने के बाद तिरछे होकर बदन को तोड़ा. हॉल छोड़कर बाहर चले आए. वहाँ से सीधे सिनेमा हॉल पहुँचे. पूरा शो देखा. शो छूटा तो, दोनों ने महसूस किया कि, वे अंदर-ही- अंदर धधक रहे थे. गुबार निकालें तो कैसे निकालें, किस पर निकालें.
अंधेरा होते ही गुरु जी के घर पर धावा बोल दिया गया. गुरु जी को दरवाजे से ही ललकारा गया. दगा, विश्वासघात, कैरियर चौपट जैसे शब्दों की बौछार होने लगीं. बिलकुल भी लिहाज नहीं रखा. तंज, एकदम ‘सुयोधन-द्रोणा’ के स्तर पर उतर आए थे. ‘हमें गम देने वाले, तू खुशी को तरसे.’ काफी देर बाद गुरुजी मुँह लटकाए हुए बाहर निकले, “अरे मेरी बात तो सुनो. मुझे गलत मत समझो.”
फिर धीमे स्वर में बोले, “शिकायत हो गई है हमारी. इंक्वायरी बैठ गई. आज ही पता चला.” उनके मुताबिक, तीन सालों से लड़कों के अप्रत्याशित अंको को लेकर, किसी दुश्मन ने उनकी चुगली खा ली. गुप्त चिठ्ठी भेजी गई थी. उनके खिलाफ वैसे तो ढेरों बातें कही गई थी. लेकिन एक बात खास तौर पर रेखांकित की गई थी कि,’ गुर्जी ज्ञानी आदमी होकर भी ज्ञान नहीं बाँटते, सीधे परचा बाँट देते हैं.’ यूनिवर्सिटी ने इसी नुक्ते को पकड़ा और चालाकी दिखाते हुए ऐन मौके पर ‘दूसरा सेट’ लगा दिया. इसीलिए दृश्य बदला-बदला सा नजर आ रहा था. लड़कों ने गुरुजी के आँसू पोंछे. उन्हें भरोसा दिलाया- “हमसे जो बन पड़ेगा, आपके लिए करेंगे. आपने हमारे लिए इतना कुछ किया है, तो कुछ हक तो हमारा भी बनता है, गुरु जी.” फिर ‘कुछ-न-कुछ होकर रहेगा’, ‘भगवान पर भरोसा रखें’ जैसे निरर्थक जुमले फेंके. गुरु जी को पान पेश किया और विदा ली.
नतीजे बड़े चौंकाने वाले आए. दोनों पास थे. राम ने तो मनवांछित डिविजन भी फटकार ली थी. खास तौर पर उस पर्चे के नंबर उन्होंने चकित भाव से देखे. आँखें बड़ी-बड़ी करके देखे. उसे उस पर्चे में ‘बावन’ नंबर मिले थे, तो बलराम को उनतालीस. जिस भाग्यवान ने पर्चा जाँचा होगा, उसकी चरणसेवा करने का मन होने लगा. बल्कि, चरण धोकर पीने का मन करने लगा. ‘लंका में सभी बावन गजे थे’, ‘अंधेर मची है’ कुएं में ही भाँग पड़ी है’ जैसे मुहावरे उस दिन बड़े ही प्यारे लगे. फिर एक बात समझ में आई, कि दुनिया के सभी सिद्धांत शायद आसपास ही होते हैं. कोई भी सिद्धांत पूरा- का-पूरा सही या पूरा- का-पूरा गलत तो हो ही नहीं सकता. फिर द्रष्टा का दृष्टिकोण बड़ा होता है और नतीजे उसी पर निर्भर करते हैं.
फिर किसको, कब कौन सी चीज भा जाए, कोई भी तो नहीं बता सकता. बलराम ने कहा, “मेरी तो डिविजन खराब हो गई. ‘बैक पेपर’ में बैठना पड़ेगा.” अंक-सुधार परीक्षा एकाध साल पहले ही शुरू हुई थी. उस परीक्षा में पश्चाताप का भरपूर मौका मिलता था. ‘सुधर सकते हो तो सुधर जाओ, एक आखिरी मौका और’ टाइप का मामला बनता था. राम बहुत उत्साह में नहीं दिखा. न जाने क्या सोचकर उसके चेहरे पर मंदहास सा उभरा. फिर वह बोला, “मैं तो नहीं दूँगा. जहाँ तक मैं समझता हूँ और जितना मेरा ज्ञान है, उसके मुताबिक, तुम्हारे कहने में आकर, अगर मैं फिर से परीक्षा में बैठा तो मेरे तो नंबर घटने तय हैं. फिर मैं क्यों दूँ. तुम्हारे ‘सुधार’ के चक्कर में, ‘बिगाड़’ करवाने का मुझे शौक नहीं.” बात को खत्म करने से पहले कुछ मोलतोल करके बोला, ‘और अब मुझमें वह सामर्थ्य नहीं बची कि, दोबारा परीक्षा में बैठ सकूँ.” बात वैसे कुछ खास नहीं थी, ये तो बस एक आजाद परिंदे की चहक भर थी.
ललित मोहन रयाल
उत्तराखण्ड सरकार की प्रशासनिक सेवा में कार्यरत ललित मोहन रयाल का लेखन अपनी चुटीली भाषा और पैनी निगाह के लिए जाना जाता है. 2018 में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘खड़कमाफी की स्मृतियों से’ को आलोचकों और पाठकों की खासी सराहना मिली. उनकी दो अन्य पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य हैं. काफल ट्री के नियमित सहयोगी.
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