ओ पवन वेग से उड़ने वाले घोड़े…
ओ पवन वेग से उड़ने वाले घोड़े
तुझपे सवार है जो, मेरा सुहाग है वो
रखियो रे आज उनकी लाज…
तेरे कंधों पर आज भार है मेवाड़ का
करना पड़ेगा तुझको सामना पहाड़ का
हल्दीघाटी नहीं है काम कोई खिलवाड़ का
देना जवाब वहाँ शेरों की दहाड़ का
घड़ियाँ तूफान की हैं
तेरे इंम्तिहान की हैं
छक्के छुड़ा देना तू दुश्मनों की चाल के
उनकी छाती पे चढ़ना तू पाँव उछाल के
लाना सुहाग मेरा वापस तू संभाल के
तेरे इतिहास में अक्षर होंगे गुलाल के
चेतक महान है तू
बिजली की बान है तू…
पंडित भरत व्यास बीकानेर के रहने वाले थे. संगीतकार एस एन त्रिपाठी से उनकी जुगलबंदी खासी लंबी चली.
इस गीत में युद्ध भूमि में जाने से पहले की रस्में दिखाई जाती हैं. मेवाड़ की महारानी कुमकुम-अक्षत से उनका तिलक करती हैं. ध्यान देने वाली बात है कि वह पहले चेतक की बलाएँ लेती है. फिर महाराणा का तिलक करती है. महाराणा (जयराज) जिरहबख्तर पहने किले के फाटक से सेना का नेतृत्व करते हुए आगे बढ़ते हैं, उसके बाद गीत शुरू होता है. युद्ध प्रयाण करती सेना का गीत है, तो जाहिर सी बात है, संगीत में घोड़े की टाप की आवाज भी सुनाई देगी. पृष्ठभूमि में वो दर्रा भी दिखाई देता है. युद्ध भूमि में महाराणा कमर में दो म्यान बाँधे दिखाई देते हैं. अमूमन योद्धाओं की कमर में एक ही म्यान रहती थी, लेकिन महाराणा की ये खूबी थी कि वे दो तलवारें लटकाकर ही युद्ध लड़ते थे.
कुंभलगढ़ में उनकी परवरिश के दौरान उन्हें जो संस्कार मिले, आजीवन उनके चरित्र से जुड़े रहे। माँ जयवंता देवी की सीख थी- निशस्त्र पर कभी हथियार मत उठाना. अगर युद्ध में विपक्षी का हथियार गिर जाए, तो उसे शस्त्र उठाने का भरपूर मौका देना.
महाराणा का चेतक से अनूठा संबंध था. चेतक अरबी नस्ल का घोड़ा था. लोक कथाओं में उसे नीलवर्णी घोड़ा बताया जाता है.
एक बार एक गुजराती घोड़ों का व्यापारी महाराणा उदय सिंह को घोड़े बेचने आया. तीन घोड़े साथ में लेकर आया था, अटक, त्राटक और चेतक. मोल-भाव हुआ तो उसने बढ़े चढ़े दाम बताए. उदयसिंह ने व्यापारी से कहा, जितनी कीमत बता रहे हो, इनमें ऐसी क्या खास बात है.
व्यापारी ने अटक को कोई संकेत किया. सामने काँच की किरचे बिछी हुई थीं. घोड़े ने संकेत पाकर छलांग लगा दी. घोड़ा ने डेमोंस्ट्रेशन में जान दे दी. यह देखकर उदय सिंह प्रभावित हुए। उन्होंने बचे हुए दोनों घोड़े खरीदने का मन बना लिया.
प्रताप का छोटा भाई शक्ति, बढ़ा जिद्दी था. हर वो चीज, जो प्रताप को पसंद आ जाए, उसको पाने को मचलता था. प्रताप को पहली ही नजर में चेतक भा गया, लेकिन उन्हें यह आशंका थी, कि अगर उन्होंने चेतक को पसंद किया, तो शक्ति जिद करके चेतक को ले लेगा. इसलिए वे सोच-समझकर सफेद घोड़े की तरफ बढ़े. उनका बढ़ना था, कि शक्ति ने लपककर घोड़े की रास हाथ में ले ली. पिता के सम्मुख प्रताप चुपचाप चेतक के पास आ गए.
हल्दीघाटी के युद्ध- दृश्यों में एक चित्र अक्सर दिखता है. चेतक दोनों टापों को हाथी के मस्तक पर रखे रहता है और महाराणा विपक्षी पर भाला ताने रहते हैं.
युद्ध भूमि में महाराणा, मानसिंह को खोज रहे थे. जैसे ही उन्हें हौदे पर बैठा मानसिंह दिखाई दिया, उन्होंने चेतक को उस तरफ दौड़ा दिया। चेतक ने अपनी दोनों टापें हाथी के मस्तक पर टिका लीं और महाराणा ने तानकर भाला फेंका. महावत मारा गया. हौदा टूट गया, लेकिन मानसिंह बच गए. उसी दौरान चेतक जख्मी हो गया. हाथी की सूँड के आजू-बाजू दोधारी तलवारें लटकाई जाती थी. उनसे उसके पैर कट गए, तब भी चेतक ने सवार को पीछे नहीं हटने दिया. जब राणा जख्मी हो गए, तो हरावल दस्ते के झाला मानसिंह ने राणा के राजकीय प्रतीक खुद धारण किए और चेतक महाराणा को युद्ध भूमि से सुरक्षित निकाल कर ले गया. बीस फुट चौड़े बरसाती नाले को पार करने के लिए उसने छलाँग लगाई. जख्मी तो वो पहले ही से था. नाला सुरक्षित पार करके चेतक इमली के पेड़ के नीचे गिर पड़ा. वहीं पर उसकी समाधि है.
इस युद्ध के बाद प्रताप ने संघर्ष जारी रखा. धीरे-धीरे उन्होंने रियासत का काफी बड़ा हिस्सा हासिल भी कर लिया.
बरसों बाद जब उनकी मौत की खबर, अकबर के दरबार में पहुँची, तो दरबार में मौजूद कवि दुरसा आढ़ा ने एक कवित्त सुनाया- अस लेगी अणदाग…
‘हे प्रताप सिंह, तुमने अपने घोड़े पर अकबर की अधीनता का दाग नहीं लगने दिया…
उत्तराखण्ड सरकार की प्रशासनिक सेवा में कार्यरत ललित मोहन रयाल का लेखन अपनी चुटीली भाषा और पैनी निगाह के लिए जाना जाता है. 2018 में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘खड़कमाफी की स्मृतियों से’ को आलोचकों और पाठकों की खासी सराहना मिली. उनकी दूसरी पुस्तक ‘अथ श्री प्रयाग कथा’ 2019 में छप कर आई है. यह उनके इलाहाबाद के दिनों के संस्मरणों का संग्रह है. उनकी एक अन्य पुस्तक शीघ्र प्रकाश्य हैं. काफल ट्री के नियमित सहयोगी.
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