आज से लगभग चार दशक पहले नैनीताल जिले के भाबर में जमीन बेचने और खरीदने का कार्य मार्च से लेकर जून तक ही चलता था. साल के अन्य दूसरे महीनों में जमीन खरीदने-बेचने का काम नहीं के बराबर होता था. इसका कारण सम्भवत: गॉवों का फसल चक्र होता था. साल भर की फसल का चक्र जून के महीने से बोई जाने वाली खरीब की फसल से शुरु होता था जो मार्च-अप्रैल के महीने तक कट जाने वाली रवि की फसल तक चलता था. इसके बाद डेढ़-दो महीने खेत एक तरह से खाली रहते थे. गांवों में साजी (बटाईदार) भी इसी फसल चक्र के आधार पर रखे और बदले जाते थे. साजी भी इसी अनुसार ही अपने मालिकों को बदलता था. जब कोई जमीन मालिक कुछ ज्यादा ही तेज होता या फिर अपने साजी का फसल-पानी का हिसाब सही तरीके से नहीं करता तो साजी उस मालिक को छोड़कर दूसरे जमीन मालिक को ढ़ूढ़ लेता था. कई बार तो वह उसी गांव या उसी इलाके में ऐसा करता या फिर कई बार उसे वह इलाका ही छोड़ना पड़ता था. किसी दूसरे इलाके में उसे जमीन मालिक की खोज करनी पड़ती थी. जैसे चोरगलिया से गौलापार, गौरापड़ाव, हाथीखाल, तीनपानी, सुनालपुर, फुटकुँआ, हल्दूचौड़, मोटाहल्दू , लामाचौड़, फतेहपुर, चकुलुआ, गैबुआ, कमोला, घमोला, बैलपड़ाव आदि जगह चले जाना और इन जगहों से चोरगलिया या दूसरी जगह चले जाना. जिस जमीन मालिक को अपना साजी बदलना होता तो वह रवि की फसल बोते समय ही अपने साजी को कह देता कि फसल कटने के बाद तुम दूसरी जगह देख लेना. अच्छे व कामदार बटाईदार के लिये लोग आस-पड़ोस के गांवों में जान-पहचान वालों व रिश्तेदारों से भी समय से कह कर रखते थे ताकि खरीब की फसल बोने में कोई दिक्कत या देरी न हो. ऐसा ही बटाईदार भी करते थे.
ऐसा साजी ही नहीं बल्कि जमीन मालिक भी करते थे. कई साजी काम के प्रति लापरवाह और शराबी भी निकल आते थे. जो अपनी नशे की लत और गांव की दुकानों में चाय-पकौड़ी, छोले, बिस्कुट आदि पर ही अनाप-शनाप खर्च कर हमेशा मालिक के कर्जदार ही बने रहते थे. आज की तरह तब सरकार ने गांव-गांव में शराब के ठेके नहीं खोले थे. शराब के लती लोग गांव में ही कच्ची शराब बनाने वालों की जेब गरम करते रहते थे. ऐसे साजी से काम लेना एक तरह की टेढ़ी खीर हो जाता था. फसल चक्र के बीच में उससे बटाईदारी छुड़वाने में दिक्कत यह होती थी कि एक तो उसे कहीं दूसरी जगह बटाईदारी नहीं मिलती थी. इससे उसके परिवार पर रहने व भुखमरी का संकट खड़ा हो सकता था. दूसरा ऐसे बटाईदार के पास उसके हिसाब से ज्यादा पैसा उसके पास चला जाता था तो उससे वह पैसा वसूल नहीं हो सकता था. रवि (गेहूँ) की फसल कटने पर बटाईदारी का हिसाब किये जाने के बाद ही साजी को दूसरी जगह जाने दिया जाता था. कई बार मालिक की देनदारी बहुत ज्यादा हो जाने पर “मरता क्या न करता” वाली स्थिति पैदा हो जाने पर साजी रात के अँधेरे में अपने परिवार के साथ चुपचाप “भाग” जाता था और ऐसी जगह चला जाता जहॉ उसके होने का पता जल्दी से न चले. ऐसे साजी रात को अपने गृहस्थी के सामान व परिवार सहित कैसे भाग जाते थे? यह मैं कभी समझ नहीं पाया? क्योंकि उन दिनों आजकल की तरह यातायात के साधन तो थे नहीं. गांव का पूरा यातायात बैलगाड़ी व साइकिल के भरोसे ही होता था और ये दोनों ही किसी साजी के पास नहीं होती थी. रात के अँधेरे में मालिक के कर्ज के बोझ के डर से छोटे-छोटे बच्चों को सामान सहित लेकर पैदल “भागना” कितना डरावना और खतरनाक होता होगा? इसे आसानी से समझा जा सकता है क्या? इसे “साजी का भाग जाना” कहते थे. गांव भर में यह एक तरह से चर्चा का विषय भी कई दिनों तक रहता था कि “वीक (फलाने का) साजि भाजि ग्यो हो! जां ग्यो? क्ये पत्त पांणि नै हां!” (अमुक व्यक्ति का साजी भाग गया बल! पता नहीं कहां गया? उसका कोई पता नहीं है.)
बटाई में खेत देने को ‘अधि दिण या फिर साजि धरन’ कहा जाता था. बटाईदारी भी दो तरह की भाबर में उन दिनों सम्बंधित क्षेत्र में चल रहे रीति-रिवाज के आधार पर होती थी. एक होता था आधे में खेत देना. जितना भी खेत आधे में दिया जाता था उसकी पैदावार का आधा बटाईदार का और आधा खेत मालिक का होता था. फसल उगाने में सारी मेहनत साजि और उसके परिवार को ही करनी होती थी. बीज, खाद, कीटनाशक और मड़ाई में होने वाला खर्चा जरूर आधा-आधा होता था. इसे खेत का अधिया देना कहते थे. दूसरा होता था तिहरे में साजि रखना. इसमें साजि को फसल की पैदावार का तीसरा हिस्सा ही मिलता था अर्थात पैदावार के दो हिस्से खेत मालिक के और तीसरा हिस्सा साजि का होता था. दूसरे खर्चे भी साजि और खेत मालिक में इसी अनुपात में बँटते थे. सैकड़ों साजि भाबर में उन दिनों थे जिन्होंने दसियों साल तक अधिया या तिहरे में खेती की और अपने परिवार का लालन-पालन किया.
कई साजि तो ऐसे भी थे जो दसियों साल तक एक ही खेत मालिक के यहां रहे. वहीं रहकर ही उनके बच्चे बड़े हुये और शादी-ब्याह भी. सामाजिक रुप से साजियों में जरूर समानता थी. मतलब ये कि साजि किसी भी जाति का हो सकता था. वह ‘हल फोड़’ ब्राह्मण भी होता था तो राजपूत भी और अनुसूचित जाति का भी. कुछ नेपाली परिवार भी साजि थे. कुमाऊं की सामाजिक व्यवस्था में उन दिनों हल फोड़ ब्राह्मण उन्हें कहते थे जो खेती का कार्य करते थे अर्थात् हल चलाते थे. इनके हाथ का बना खाना उच्च कुलीन ब्राह्मण न तो खाते थे और न ही उनके साथ शादी-ब्याह ही करते थे. कुछ ऐसा ही राजपूतों में भी था. उच्च कुलीन राजपूत के पास खेती तो होती थी, लेकिन वे भी अपने खेतों में हल नहीं लगाते थे. यह काम वे मजदूरों या बटाईदार से करवाते थे.
साजी के लिये अलग से झोपड़ी भी बनायी जाती थी. बटाईदारी में आने से पहले साजी को अपनी झोपड़ी खुद ही ठीक भी करनी होती थी. खेत मालिक इसके लिए बटाईदार को सिरौ घास देते थे और झोपड़ी की छत की टूट गई लकड़ियों के लिए उसे जंगल की शरण लेनी पड़ती थी. उन दिनों खेती व झोपड़ी आदि के उपयोग के लिए जंगल से ‘गिरी-पड़ी’ लकड़ी लाने पर कोई प्रतिबंध नहीं था. केवल खड़े हरे पेड़ों को काटने पर ही प्रतिबंध था. वन विभाग से मिली इस छूट का लोग नाजायज़ फायदा भी नहीं उठाते थे. हां, कुछ गलत प्रवृत्ति लोग अवश्य इसकी आड़ में कभी-कभार बहुमूल्य खड़े पेड़ों पर कुल्हाड़ी जरूर चला देते थे. इसका पता चलने पर वन विभाग की ओर से छापामारी कर लकड़ी की जब्ती के साथ ही जुर्माना भी लगा दिया जाता था. ऐसा होने पर गांव भर में चर्चा हो जाती थी कि अमुक व्यक्ति के यहां जंगलात का छापा पड़ गया है और उसे इतने रुपए का जुर्माना भी पड़ गया है. कुछ शातिर किस्म के लोग खेत में गड्डा कर के लकड़ी के गिल्टे वहां छुपा देते थे और जब उनकी आवश्यकता पड़ती, तब उसी अनुसार रात के अँधेरे में गिल्टे निकालते थे और रातों-रात उनका चिरान कर के उन्हें ‘ठिकाने लगा’ देते थे. चिरान कर के बनाए गए तख्तों को घर के अन्दर भी अनाज की बोरियों के नीचे दबा कर छुपाया लिया जाता था. जनवरों के लिए घास की बनाई झोपड़ी में, जिसे गोठ कहते थे, में भी भूसे के नीचे इस तरह की चोरी के तख्ते और लकड़ी के गिल्टे छुपाए जाते थे.
खेती के काम के अलावा साजी के हिस्से बैलों के देखभाल की विशेष जिम्मेदारी होती थी. कई साजी खूब मन लगाकर बैलों की देख-रेख करते थे क्योंकि बैलों के भरोसे ही खेती टिकी होती थी. दूसरे जानवरों के देखभाल की जिम्मेदारी भी साजी के परिवार पर रहती थी. इसके बदले में उसके परिवार को चाय के लायक दूध मिलता था और कई बार दही व मठ्ठा भी. तीज-त्यौहारों में पूरी-पकवान, खीर व रायता भी साजी के परिवार को मिल जाता था. कुछ ठीक व्यवहार वाले लोग साजी के छोटे बच्चों के पीने के लिये थोड़ा दूध भी दे देते थे, लेकिन ऐसे लोग बहुत कम होते थे. नहीं तो साजी के बच्चे चाय ही पीने को मजबूर होते थे. साजी के बच्चों को खेत मालिक के घर के अन्दर घुसने का अधिकार नहीं था.
ब्राह्मण व राजपूत बटाईदार व उनके बच्चे वक्त-जरूरत पर घर के अन्दर जा सकते थे, लेकिन अनुसूचित जाति के बटाईदार व उसके बच्चों को यह अधिकार किसी भी स्थिति में नहीं था. जातिगत भेदभाव इतना गहरा था कि अनुसूचित जाति के बटाईदार व मजदूरों को खाने-पीने की चीजें जमीन में सरका कर दी जाती थी, मतलब यह कि उन्हें खाने-पीने की चीजें देते समय इस बात का पूरा ध्यान रखा जाता था कि उसके शरीर के किसी हिस्से से हाथ ‘छूँ’ न जाय. अगर असावधानीवश ऐसा हो गया तो फिर देने वाला व्यक्ति ‘गौमूत्र’ को अपने ऊपर छिड़कता था. घर के बरामदे व आंगन में जहां पर अनुसूचित जाति का बटाईदार या मजदूर बैठ जाता था, उसके वहां से जाने के बाद उस जगह पर पानी छिड़क कर उसे ‘शुद्ध’ किया जाता था.
रहन-सहन के आधार पर बहुत ज्यादा अंतर मालिक व साजी के परिवार में नहीं होता था. तब बिजली, टीवी, फ्रिज, मोटरसाइकिल, कूलर जैसी पैसे का रूआब दिखाने वाली वस्तुयें होती ही नहीं थी. मालिक का परिवार थोड़ा साफ-सुथरे और ठीक कपड़े पहन कर ही अलग सा दिखाई देता था. अन्यथा और दूसरी बातों में बहुत अंतर होता नहीं था. मालिक भी झोपड़ी में ही रहता था तो साजी भी. बाद में जरूर मालिक लोग खुद के लिये पक्के मकान बनाने लग गये थे. कुछ लोगों ने साजी के लिये भी टिन शेड वाले मकाननुमा घर बनाये. कई मेहनती साजी अपनी मेहनत से दो-एक एकड़ जमीन तक खरीद लेते थे. कुछ ऐसे भी थे जिनके पास कम जमीन थी और परिवार बड़ा, तो ऐसे लोगों ने भी दूसरों के यहां ‘अधिया में जमीन कमाई’ और बाद में और ज्यादा जमीन के मालिक बन गये. मतलब ये कि उन्होंने अपनी मेहनत से समकालीन समाज में अपना एक मुकाम बनाने में सफलता प्राप्त की. मेहनती और ईमानदार साजियों पर मालिक भी बहुत भरोसा करते थे. किसी काम से हफ्ते-दस दिन के लिये कहीं जाना हो तो वे सब कुछ साजी के भरोसे छोड़कर निश्चिंतता से चले जाते थे.
गोरापड़ाव के हरिपुर तुलाराम गांव में हमारा कोई साजी था या नहीं? मुझे ठीक से याद नहीं है. पर जब हम चोरगलिया गये तो हमारा एक साजी कल्याण सिंह था. जो शराब का लती था. जिसके कारण वह अपने बच्चों की कभी भी सही तरीके से परवरिश नहीं कर पाया. बाबू ने कई बार उसे समझाया भी. पर वह नहीं सुधरा. इसी कारण वह ज्यादा हमारे वहां नहीं रहा. इसके बाद शंकर नाम का एक नेपाली साजी हमारे यहॉ रहा. वह बेहद मेहनती था. उसने हमारे छह एकड़ जमीन में अधिया किया हुआ था. बाकी बचे दस एकड़ जमीन में वह मजदूरी करता था. जिससे वह अधिया की जमीन में हुये उसके हिस्से के खर्च की पूरी भरपाई कर लेता था और अधिया के हिस्से में से काफी कुछ बचाकर नेपाल अपने माँ-बाप के पास भी भेज देता था. बाद में वह अपने छोटे भाई गोपाल को भी नेपाल से ले आया था. गोपाल अपने भाई का हाथ भी बँटाता तो खाली समय में गांव में दूसरे लोगों के यहां मजदूरी भी करता. शंकर चार साल तक हमारे यहां साजी रहा. बाबू ने जब चोरगलिया की जमीन बेचकर परिवार सहित गायत्री परिवार के चक्कर में शान्तिकुन्ज (हरिद्वार) जाने का निर्णय किया तब शंकर बहुत रोया था. उसने बाबू से ऐसा न करने को भी कहा और यह भी भरोसा दिलाया कि वह जमीन की देखभाल बहुत अच्छी तरह से करेगा, लेकिन वहां जाने की ठान चुके बाबू ने शंकर की बात नहीं मानी और चोरगलिया की साढ़े सोलह एकड़ जमीन औने-पौने दामों पर बेच दी. बाद में वहां जाकर कुछ साल बाद वे बहुत पछताये लेकिन तब क्या होता? बीता वक्त लौट तो नहीं सकता था! न अतीत में की गयी गलती सुधारी जा सकती थी.
बाबू को शंकर इसलिये भी मानता था कि जब वह हमारे यहां आया तो उसे रात में न दिखाई देने वाली रतौंधी की बीमारी थी. उसे हल्द्वानी में आंखों के डॉक्टर को दिखाया पर कोई फायदा नहीं हुआ. कुछ समय के बाद हल्द्वानी के ही किसी मुस्लिम नाई के बारे में किसी ने बाबू को बताया. वह रतौंधी की दवा जानता था कोई जड़ी-बूँटी वाली. उसे आंखों में डालने से शंकर की आंखें एकदम सही हो गयी थी. नहीं तो अँधेरा ढलने के साथ ही शंकर भी चलने में असहाय हो जाता था. टार्च की रोशनी तक में उसे ठीक से दिखाई नहीं देता था. रात एक तरह से उसकी दुश्मन बन जाती थी. मुस्लिम नाई की दवाई से शंकर को एक तरह से नया जीवन मिला था.
शंकर का भाई गोपाल गुलेल का बड़ा निशानेबाज था. कई बार उसने मक्का और गेहूँ खाकर उड़ रहे तोतों को गुलेल से निशाना बनाकर जमीन पर गिरा दिया था. पेड़ में बैठी किसी भी चिड़िया को मार गिराना तो जैसे उसके बांये हाथ का खेल था. वह तोते और घुघुती (फाख्ता) को मारकर उनका शिकार बड़े चाव से खाता था. बाद में सुना कि दोनों भाई बम्बई (अब मुम्बई) किसी अच्छी फैक्ट्री में नौकरी करने लगे थे और अपने परिवार को भी वहीं ले गये. गोपाल ने हमारे खेलने के लिए भी कई बार गुलेल बनाकर हमें दी थी. वह कहता था कि गुलेले बनाने के लिए साइकिल की ट्यूब से अच्छी मोटरसाइकिल की ट्यूब होती है, क्योंकि मोटरसाइकिल में ट्यूब में खिंचाव अधिक होता था. गोपाल गुलेल बनाने में बहुत ही माहिर था.
इसी वजह से वह अपनी गुलेल बनाने के लिए गांव में जिन गिने-चुने लोगों के पास मोटरसाइकिल थी, वहां से पुरानी ट्यूब का का जुगाड़ कर लेता था. वह नेपाली लोकगीत भी बहुत बढ़िया गाता था. उसके द्वारा गाए जाने वाले गीत के बोल मुझे याद तो नहीं हैं, लेकिन उसके द्वारा गाए जाने वाले गीतों लोकधुन आज भी कानों में गूँजती है.
जगमोहन रौतेला
जगमोहन रौतेला वरिष्ठ पत्रकार हैं और हल्द्वानी में रहते हैं.
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आज भी बटाईदारी गांव के गरीबों के जीवन का आधार है। इस जीवंत चित्रण के लिए बधाई स्वीकारें।