गायत्री आर्य

बच्चे कैसे जिएंगे हिंसक होते जा रहे समाज में

4G माँ के ख़त 6G बच्चे के नाम – ग्यारहवीं क़िस्त

पिछली क़िस्त का लिंक: कुदरत और संगीत का मरहम सारी दुनिया में फैला पड़ा है मेरे बच्चे!

जिस बात का डर था वही हुआ. मैं नहीं चाहती थी कि तुम्हारे पिता के ऑफिस जाने से पहल मैं फट पड़ूं, लेकिन वही हुआ. दोपहर में घर लौटते ही उन्होंने मुझे बताया कि ‘मुंबई के सबसे बड़े होटल ताज को कुछ आतंवादियों ने घेर रखा है. न्यूज सुनी? ए.टी.एफ. (एंटी टेररिस्ट स्क्वायड) के चीफ को मार दिया है!’ ‘क्या…?’ मैंने सिर्फ इतना कहा और इंटरनेट खोलकर देखा. 100 लोग मारे जा चुके थे, 300 से ज्यादा घायल हैं! आतंकवादियों की संख्या 4/5 बताई जा रही है. मैं कुछ देर तक इन्हीं लाइनों को पढ़ती रही. दिमाग सुन्न सा हो चुका था. मैं उठी, नहाया, सिर धोया, बाल सुलझाते हुए तुम्हारे पिता से पूछा, ‘कैसे जीएगा यार हमारा बच्चा ऐसे में?’

घर के बोझिल माहौल में मैंने एक भारी सवाल छोड़ा और बिना जवाब का इंतजार किए (इसका जवाब कोई दे सकता है भला,) बाल बांध के मैं नीचे हरा पालक तोड़ने चली गई. मैं ढ़ेर सारा पालक ले आई, रात के खाने के लिए भी. ये तैयारी मैं तुम्हारे आने के लिए कर रही हूं मेरी बच्ची. कच्चा पालक मुझे ढेर सारा आयरन देगा, जिसकी मुझे और तुम्हें दोनों को बेहद जरूरत है स्वस्थ रहने के लिए. लेकिन सिर्फ पौष्टिक खाना खाकर और स्वस्थ रहकर ही, कहां जी पाऊंगी मैं मेरी जान? या जी पाओगी तुम?

हम दोनों खाने बैठ गए. तुम्हारे पिता ने कम्पयूटर में मेरे पसंदीदा गाने भी लगा दिए (आओगे जब तुम साजना अंगना फूल खिलेंगे… न है ये पाना, न खोना ही है) हम खाने लगे. ‘101 मारे गए…101 मारे गए’ मेरे दिल-दिमाग में हथौड़े सी पड़ने लगी ये लाइन. 101… और उनके पीछे कम से कम 400 और, जो सीधे-सीधे मरने वालों से जुड़े होंगे. उन 400 को मरो में गिनूं या जिंदा में? जो मर गए वे तो मुक्त हो गए. असल मौत तो उन 400/500 की हुई है, जो न मरे हैं और न जी सकेंगे! एक रोटी खाने के बाद मेरे खाने की रफ्तार कम हो गई.

मेरा दिल-दिमाग लगातार उन मारे गए 100 के पीछे बचे 400 लोगों में और तुम्हारी ऐसे समय में पैदाइश पर अटका हुआ था. ‘उनके घर तो खाना नहीं बना होगा. साथ बैठे होंगे कुछ लोग, पर खाने के लिए नहीं रोने के लिए और हम यहां ‘पौष्टिक खाना’ खा रहे हैं! जीने के लिए क्या सिर्फ पौष्टिक खाना भर चाहिए? उतना ही पौष्टिक और स्वस्थ समाज नहीं चाहिए? मेरा बच्चा कैसे रहेगा? कैसे जीएगा यहां? दिमाग में सवालों की रफ्तार बढ़ती जा रही थी.

अब मैंने तुम्हारे पिता से नजरे मिलाना बंद कर दिया था और मुंह नीचे करके धीरे-धीरे रोटी निगल रही थी. तुम्हारे पिता ने कहा ‘मैं कम ही खाऊंगा, फिर से ऑफिस जाना है.’ मैंने गर्दन हिला दी. मैं गाना नहीं सुन पा रही थी, क्योंकि मेरे दिमाग में इससे अलग कुछ आ ही नहीं रहा था. ‘101लोगों को मार दिया, बिल्कुल बेकसूर, निहत्थे, निर्दोष! …क्या बताया जाएगा आखिर उनके बच्चों को, कि कैसे मर गए उनके मां या बाप? किसने मारा? और उससे भी भारी सवाल, कि क्यों मार दिया? क्या गलती थी उनकी?  कल को मेरा बच्चा ऐसे मार दिया किसी ने तो!! वहां लोग मर रहे हैं, और हम यहां खाना खा रहे हैं तसल्ली से बैठकर, गाने सुन रहे हैं!’ खुद को धिक्कार सा रही थी मैं.

तुम्हारे पिता अब तक हाथ धोकर यूनीफार्म पहनने लगे थे और गाने की धुन पर हल्के-हल्के झूम रहे थे. मेरा बिल्कुल इन्वाल्वमेंट न देखकर पूछा “कैसा लगता है ये गाना तुम्हें?” “अच्छा” मैंने गर्दन नीचे ही किये कहा. ( जबकि वे जानते थे कि मुझे बेहद पसंद है वो गाना) मेरे दिमाग में वे सब बातें तेज चक्की की तरह घूम रही थी. मैं उस वक्त खुद को रोने से रोकने के सारे प्रयास कर ही रही थी, पर तुम्हारे पिता भांप गए कि कुछ गड़बड़ है. मैं नजरें बिना मिलाए क्यों बात कर रही हूं. “क्या हुआ प्यारु?” उन्होंने पूछा. मैंने कहा “कुछ नहीं” वे तब तक नीचे बैठ के मेरा कंधा पकड़ चुके थे. उनका एक बार और पूछना था कि क्या हुआ और मैं फफक पड़ी.

जितना रोक रही थी खुद को, उतना ही ज्यादा जोर से गुबार फूटा. मूली की फांक वापस प्लेट में गिर गई. (मूली लीवर के लिए बहुत अच्छी होती है न!) तुम्हारे पिता ने मुझे अपनी दोनों बाहों में भर लिया, पूछते रहे “क्या हुआ मेरी बच्ची? मैंने कुछ कहा क्या? मैं तुम्हें खाते हुए बीच में छोड़कर उठ गया, इसलिए क्या?” मैंने नहीं में गर्दन हिलाई. उनके कंधे पर सिर टिकाकर मैंने रोते हुए ही कहा, “100 लोगों को फिर मार दिया! लोगों को क्या हो गया है भानु? क्यूं मार रहे हैं ऐसे? कैसे जिएगा हमारा बच्चा? बताओ भानु. कैसे भानु?  बच्चे कैसे जिएंगे इस समाज में?” मैं फूट-फूटकर रोती रही, सवाल करती रही. जवाब में चुपचाप तुम्हारे पिता मुझे जोर से भींच के अपने गले लगाए रहे.

“लोग मरते जा रहे हैं और हम यहां बैठ के शांति से खाना खा रहे हैं. गाने सुन रहे है, सोना खरीद रहे हैं (कल ही तुम्हारे पिता ने मेरे लिए एक बहुत संदर सोने की चैन खरीदी है) बड़ी-बड़ी प्लान बना रहे हैं. हमें क्या इसलिए नहीं रोना चाहिए कि हमारा कोई नहीं मरा है? बताओ भानु हमें दुखी होना चाहिए या नहीं?” तुम्हारे पिता सिर्फ इतना  ही कह पाए “बिल्कुल होना चाहिए”

वे मुझे संभालते रहे और मैं रोती रही, सवाल करती रही. आखिरी निवाला मुह में ही अटका हुआ था, सो वे मुझे चुप कराकर पानी पिलाना चाह रहे थे और सबसे पहले तो चुप करना चाह रहे थे. क्योंकि इस हालत में मुझे छोड़के न तो उनसे ऑफिस जाते बनता और छुट्टी वे कर नहीं सकते थे. एक घूंट पानी पीकर मैं फिर रोने लगी, तो डांटकर मुझे चुप होने को कहने लगे. मैं रोते-रोते हंसने लगी, कि वे कैसे झूठी डांट से मुझे चुप करा रहे हैं. पता है फिर तुम्हारे पिता ने मुझे हंसाने के लए क्या कहा, “लो पानी पीओ और तब तक पीती रहो जब तक कि सुसु न आ जाए समझी!’’ मैं फिर से रोते-रोते हंसने लगी.

थोड़ी सी चुप हुई तो मेरे आंसू पोछते हुए तुम्हारे पिता बोले, “मेरी स्थिति बड़ी अजीब सी हो रही है, मुझे गिल्ट सा हो रहा है कि ऐसी हाल में तुम्हें छोड़ के जाना है. मैं रुक भी नहीं सकता, तुम प्लीज चुप हो जाओ.” मैं जानती थी उस वक्त तुम्हारे पिता भीतर से बहुत-बहुत परेशान हो चुके थे. (इसीलिए मैं उस वक्त रोना नहीं चाहती थी. लेकिन हंसी, रोना, प्यार, मुहूर्त देखकर कभी नहीं आते बेटू!) सो मैंने उन्हें  हंसाने के लिए कहा, “देखो मैंने रोते-रोते सारी नाक अपने कुर्ते में ही भर दी. अब क्या करूं?” हम दोनो हंस पड़े!

ऑफिस जाते वक्त तुम्हारे पिता इतने तनाव में थे मेरे कारण, कि मुझे कहना पड़ा “बाइक ध्यान से चलाना, मैं इंतजार कर रही हूं” सारा दुख, सवाल, बेचैनी, तड़प, दिल में दबाए, मैंने अच्छे से मुस्कुराकर, हाथ हिलाकर उन्हें विदा किया. मन इतना उचट गया था कि मुझे फैला हुआ बर्तन, कपड़ा, कुछ भी समेटने का मन नहीं किया. सारा खाना ऐसे ही फैला था, जैसे कोई अभी-अभी खाना खाकर या कहूं छोड़ कर उठा हो.

इस सवाल ने मुझे पता नहीं कबसे परेशान किया हुआ है मेरी गुड़िया. जब भी कभी ऐसा कुछ हो, कि लोग आतंकवादी गतिविधियों में मरें, बाढ़, भूकंप, सुनामी, आगजनी या किसी दूसरी तबाही में मरे, मुझे या हमें क्या करना चाहिए? क्या सिर्फ इसलिए हमें अपनी जिदंगी में खुश रहना चाहिए कि मेरा/हमारा कोई नहीं मरा? हमारे तो सब बच गए तो रोना कैसा! और यदि नहीं, तो फिर तो हमारे सारे तीज-त्यौहार, सम्मेलन, समारोह सभी इन दुखों में स्थगित रहने चाहिए. लेकिन इस हिसाब से तो हम न तो कभी खुश रह पाएंगे और न ही जी पाएंगे. एक मुर्दनी में ही जिंदगी खत्म हो जाएगी. क्योंकि ऐसा तो कोई पल ही नहीं मेरी बच्ची, जब हमारे देश में कहीं न कहीं, कोई न कोई तबाही न हो, लोग न मर रहें हों. परिवार न उजड़ रहे रहे हों!

…और फिर सवाल ये भी तो है मेरी जान, कि क्या ईरान, इराक, पाकिस्तान, अफगानिस्तान में आतंकवाद के नाम पर मर रहे लोगों के लिए, दक्षिणी अफ्रीका के कई देशों में भूख और गृहयुद्ध में मर रहे, संत्रास, यातनाओं में जी रहे लोगों के दुख में मुझे/हमें शामिल नहीं होना चाहिए? उनके लिए हमें नहीं रोना चाहिए? मुझे नहीं समझ आ रहा मेरी जिंदगी! कि दिन के कितने घंटे या मिनट मुझे इन असंख्य लोगों के दुख में दुखी होकर, मौन होकर बिताने चाहिए? और कितने घंटे और मिनट ये सोचते हुए हंसकर या खुश होकर बिताने चाहिए, कि कम से कम इस बार और मेरे अपने बच गए! क्या करना चाहिए? क्या नहीं? क्या सही है? क्या गलत? मुझे कोई ये बताने वाला कोई नहीं है मेरी बच्ची! ये सवाल सिर्फ मेरे ही तो नहीं हैं, तुम्हारे भी हैं. ये सवाल उन सब लोगों के भी हैं जो संवेदनशील हैं, या जो संवेदनशील नहीं भी हैं. ये सवाल दुनिया के उन तमाम बच्चों के सामने खड़े हैं, जो अभी या तो बहुत छोटे हैं, या जो अभी इस दुनिया में आने की तैयारी ही कर रहे हैं!

मेरा वजूद सिर्फ मेरे अपने लोगों से ही नहीं है मेरी बच्ची! मेरा वजूद तो उन सबसे भी है न, जिन्हें मैंने देखा नहीं है, जिनसे मैं कभी मिली नहीं, जिन्हें मैंने कभी छुआ नहीं, न हाथों से न निगाहों से. तो फिर मैं सिर्फ खून के रिश्तों की समलामती भर में कैसे खुश रह कती हूं भला… या मुझे रहना चाहिए?

ये बात तुम भी अच्छी तरह से जान लो मेरे बच्चे, कि तुम्हारा वजूद सिर्फ मुझसे या तुम्हारे पिता या फिर तुम्हारे नानी-नाना, दादा-दादी, मौसा-मौसी, चाची-चाचा, ताऊ-ताई, तुम्हारे अच्छे दोस्तों भर से नहीं होगा. तुम्हारा वजूद उन सबसे है मेरी जान, जो इस दुनिया में किसी भी तरह से जी रहे हैं, असंख्य तरह के काम कर रहे हैं. फिर चाहे वे किसी भी धर्म के हों, किसी भी जात, रंग, वर्ग के हों. या फिर हमारा दुश्मन कहे जाने वाले देश के ही क्यों न हों. इन सबकी तकलीफ और खुशी तुम्हारी भी तकलीफ और खुशी होनी चाहिए. लेकिन एक बात ध्यान से ये भी सुनो मेरे बच्चे, जैसे तुम्हारा अस्तित्व इन सबसे है, वैसे ही इन सबमें से कोई भी तुम्हारे अस्तित्व को खत्म भी कर सकता है. हां कोई भी! ये कितना अफसोसजनक है.

तबाही के अलग-अलग मौकों को देखने, जानने-समझने के बाद भी, इस बार भी तुम्हारी मां ने दिवाली में दिये जलाए थे, पकवान बनाए, खाए थे, सिल्क की साड़ी पहनी थी….जबकि वो जानती थी कि कुछ महीने पहले की बाढ़ में बिहार, उड़ीसा, झारखंड, असम आदि राज्यों में लाखों लोग तबाह हुए थे….और आज भी जिनके लिये न अपनी छत है, न खाना, न सर्दी से बचने को कपड़े हैं! क्या मैं इन सबकी गुहगार नहीं हूं?…क्या मैं सच में इनकी गुनहगार हूं?…ये जो पेस्ट्री लंच के बाद खाने के लिए रखी थी, अभी तक बची हुई रखी है. क्या मुझे इसे खा लेना चाहिए? मुझे पाप तो नहीं लगेगा न? ओह! मेरा सिर फट रहा है.

शाम हो चुकी है मेरी बच्ची. चिड़ियाएं इकठ्ठी होकर चहचहा रही हैं. पता है चिड़ियाओं का चहचहाना कभी नहीं रुकता, कोई भी मौसम हो, कोई भी जगह हो. दिन में दो बार सारी चिड़ियाएं (सारे पक्षी) मिलकर खूब शोर करते हैं, कलरव करते हैं. एक, जब सुबह होती है और इन्हें एक-दूसरे को छोड़ दिनभर के लिए इधर-उधर चले जाना होता है, बिछुड़ने से पहले ये सब एक सुर में चहकती हैं. दूसरे, दिन ढले शाम को जब सब मिलते हैं, खूब देर तक ये सब मिलकर कलरव करती हैं. पता नहीं मेरी जान ये चिड़ियाएं भी हमसे हैं या नहीं, पर हम इनसे जरूर हैं. लेकिन दूर मुंबई में मारे गए लोगों के गम में इन्होंने चहचहाना नहीं छोड़ा. संभव है कि ये बात इन्हें पता ही न हो लेकिन यदि पता होती तो भी ये चहचहाती जरूर, क्योंकि यही प्रकृति है. यही इनकी नियति है, हर हाल में चलते रहना, बहते रहना. इन चिड़ियाओं के समूह की कोई एक या ज्यादा चिड़ियाएं मर जाएं, तो सब की सब दुखी जरूर होंगी लेकिन अपना सुबह-शाम का का कलरव बंद नहीं करेंगी. वे उस दुख को दिल में लिए हर रोज की तरह ही चहचहाएंगी.

लोग कहते हैं शाम उदासी लेकर आती है लेकिन आज की शाम ने तो तुम्हारी मां को उदासी के समुद्र में डूबने से बचा लिया. इन पौधों ने, चिड़ियाओं की चहचाहट ने, इस हवा ने, इस धरती की शांति ने (जो हमेशा से हिंसा से बड़ी हो होती है), ऊपर थमे हुए आसमान ने, तैरते बादलों ने, शाम की गुनगुनी धूप ने मुझे बचा लिया मेरी बच्ची. हरे रंग के पत्तों ने, पड़ोसियों की तोरी की बेल पर लगे बेहिसाब पीले फूलों ने, मेरे आंगन में गिरते हुए सूखे पत्तों ने, नंगे पेड़ पर आने वाले पत्तों की आस ने, तुम्हारी मां को बचा लिया है मेरी जान. तुम्हें भी मुबारक हो, वो इसलिए क्योंकि ये चीजें अमर हैं. जब तक आसमान का रंग नीला है, जब तक पानी बहना बंद नहीं कर देता, जब तक पत्तों का रंग हरा है, जब तक फूल खिलना बंद नहीं कर देते, पंछी कलरव करना बंद नहीं कर देते, जब तक बारिश होनी बंद नहीं हो जाती. तब तक, तब तक तुम्हारे पैदा होने की कुछ वजहें बची हैं मेरी जान!

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उत्तर प्रदेश के बागपत से ताल्लुक रखने वाली गायत्री आर्य की आधा दर्जन किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं. विभिन्न अखबारों, पत्र-पत्रिकाओं में महिला मुद्दों पर लगातार लिखने वाली गायत्री साहित्य कला परिषद, दिल्ली द्वारा मोहन राकेश सम्मान से सम्मानित एवं हिंदी अकादमी, दिल्ली से कविता व कहानियों के लिए पुरस्कृत हैं.

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Sudhir Kumar

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