4G माँ के ख़त 6G बच्चे के नाम – बारहवीं क़िस्त
पिछली क़िस्त का लिंक: बच्चे कैसे जिएंगे हिंसक होते जा रहे समाज में
पैदा होने के बाद तुम्हें पता चलेगा मेरी जान कि मैं मांस नहीं खाती, तुम्हारे पिता खाते हैं. मैं ये पसंद नहीं करती, लेकिन उन्हें रोकती भी नहीं. हमारी एक-दूसरे को दी गई व्यक्तिगत स्वतंत्रताओं के चलते मैं ऐसा करती हूं. हालांकि मेरा आग्रह ये जरूर रहता है कि वे छोड़ दें, लेकिन मैं उन्हें रोकती नहीं. हां, मैं अंडा जरूर खाती हूं, कभी-कभी. हालांकि मैं वो भी नहीं खाना चाहती थी, पर मुझे उस दौर में मेरी चाची ने मुझ पर ये खाने के लिए दबाव बनाया, जब मैं बेहद दब्बू थी और अपनी पसंद-नापसंद के लिए जरा सा मुंह खोलना भी मुझे नहीं आता था. हालांकि बाद में मुझे अंडा पसंद आने लगा, पर मैं वो छोड़ना चाहती हूँ.
मैं तुम्हें बता रही थी कि मैं अपने दोस्तों को मांस न खाने के पीछे हमेशा यही कहती हूं, ‘किसी को मारकर, इतनी तकलीफ और दुख देकर, उसे खाया कैसे जा सकता है? कितना स्वार्थी है इंसान कि अपने स्वाद के लिए किसी का खून बहाने और उसे दर्द से तड़पाने से भी नहीं चूकता! फिर जो लोग इंसान के बच्चों को मारकर खाने लगे हैं/खा रहे हैं, सिर्फ उन्हें ही क्यों कटघरे में खड़ा किया जा रहा है? इंसान के बच्चे को मारकर खाना अनैतिक है, क्रूर है, नृशंस है; तो फिर जानवरों, पक्षियों को मारकर खाना क्रूर व अनैतिक नहीं है? लेकिन क्यों? ऐसा कैसे है कि इंसान के बच्चे को मारकर खाने से कम क्रूर है पशु को मारकर खाना?’
अंडे में दर्द या प्यार का अहसास नहीं होता, पर चूजे में होता है. तुम कह सकती हो बेटू, कि ये अंडा खाने के पीछे मैंने अपना तर्क निकाल लिया है. पर ये तुम ही जान जाओगी कि अंडे में सिर्फ जीवन होता है, दर्द का अहसास नहीं! ‘दर्द का अहसास’ बहुत बड़ी चीज है मेरे बच्चे. ये ‘अहसास’ ही तो है जो किसी की मौत को या बीमारी को दुखद और त्रासद बनाता है. ‘अहसास’ होना ही चीजों के प्रति हमारा सारा नजरिया बदल देता है मेरी जान! यदि खुशी और दुख-दर्द का अहसास अलग-अलग न हो, तो फिर जन्म और मृत्यु में क्या और कैसा फर्क?
पता है आज मैं इंटरनेट पर इजाडोरा डंकन (दुनिया में मशहूर ग्रीक की महान नृत्यांगना, जिन्होंने नृत्य और साहित्य के अदभुत मेल को बहुत ऊंचाइयों पर पहुंचाया) की आत्मकथा के कुछ अंश पढ़ रही थी. पढ़ के पता चला कि उन्होंने भी मेरी सोच से मिलती-जुलती बात कही थी. वे कहती हैं, ‘एक नन्हें बकरे का गला काटने और एक भाई या बहन का गला काटने में आखिर कितनी दूरी होती है? जब तक हम खुद हत्या किए गए जानवरों की जिंदा कब्रगाहें हैं, हम कैसे इस धरती पर किसी आदर्श स्थिति की कामना कर सकते हैं?’ देखो कैसे 120 साल पहले जन्मी इजाडोरा की बातों से मेरी बातें मिल गई, अंजाने ही. आज पढ़ा तो पता चला और बहुत अच्छा सा लगा.
इससे पहले अपनी बातचीत में मैंने मुंबई की जिस आतंकी घटना का जिक्र किया था, उसमें लगभग 200 लोग मारे गए हैं. निहत्थे, बेकसूर लोग! हमारे घर में टीवी कनेक्श्न नहीं है, सो दिन भर समाचार की दुनिया से अलग रहकर थोड़ा सा सुकून रहता है. कल वाले समाचार अभी तक दिल-दिमाग पर कब्जा किये हुए थे. रात भर से न्यूज देख-देख कर, सुबह अखबार पढ़कर ये असर हुआ, कि मेरे दिमाग को लकवा सा मार गया. जब-जब मैं भीतर से भरती थी रो लेती थी. तुम्हारी मां अपनों के मरे में जैसे रोती है, कभी बुक्का फाड़कर और कभी चुपचाप, वैसे अंजान लोगों के मरने पर भी रो लेती है. अभी भी रो ही रही हूं. बार-बार मौत, वही खून, वही गुस्सा, वही डर, वही दर्द, वही दुख-संत्रास. उफ्फ मेरा सिर बहुत भारी हो रहा है मेरी बच्ची!
पता है मेरे दिमाग में दो विरोधी बातें आती हैं तुम्हें लेकर. एक तरफ मैं सोच रही हूं कि इस समय और समाज में तुम्हें कैसे जन्म दूं? दूसरी तरफ मेरे मन में आया मैं खुद को तमाम टेंशन और दुख से दूर कर सकूंगी तुम्हें जन्म देकर. तुम्हारी हंसी, तुम्हारा स्पर्श, दुनिया के सारे दुखों पर भारी पड़ेगा. मैंने ये चीज अपने पड़ोसी के बच्चे के साथ भी महसूस की और आज इजाडोरा डंकन की आत्मकथा में भी पढ़ा. अपनी आत्मकथा में इजाडोरा लिखती हैं, कि जिस वक्त वे (पहले दो मृत बच्चों के बाद) अपने तीसरे बच्चे को हाथ में लिए थी, उस वक्त विश्व युद्ध के कारण बाहर की गलियों में जो शोर, चीख, दर्द, डर था. उसे न वो सुन पा रही थी, न ही महसूस कर पा रही थी, क्योंकि उनका नवजात बच्चा उनकी गोद में था. वो एक दूसरी ही जादुई दुनिया में थी.
मैं जानती हूं आज हालात बहुत बुरे हैं और बड़े होने तक और भी बदतर हो चुके होंगे. इसीलिए मैंने सोचा था यदि तुम पैदा नहीं हुए किसी कारण से, तो मुझे दुख नहीं होगा. सच में हम ‘समझदार लोगों’ ने ये दुनिया तुम बच्चों के जीने लायक नहीं छोड़ी है मेरी जान! मैं शर्मिंदा हूं!
हमने सुविधाएं बढ़ा दी हैं, मजे और मस्ती की चीजें बढ़ा दी हैं, लेकिन इस प्रक्रिया में जीवन बहुत-बहुत पीछे छूट गया है. मुझे सच में नहीं पता कि तुम्हारे आने तक मैं जिंदा बचूंगी या नहीं, तुम्हारे पिता बचेंगे या नहीं और भी तुम्हें चाहने वाले तमाम लोग. लेकिन तुम्हारी हंसी, तुम्हारे स्पर्श, तुम्हारी मासूमियत, जटिल होते जीवन में मुझे दिमागी रूप से ठीक रखने के लिए बेहद जरूरी है शायद. कैसी स्थिति है ये बेटू, जो चीजें मुझे तुम्हारे जन्म देने में परेशानी का कारण बन रही हैं, वही चीजें मेरे अपने लिए तुम्हें जन्म देने का कारण भी बन रही हैं!
मैं बहुत थक चुकी हूं मेरी जान! बेहद परेशान हूं, फिर लिखूंगी तुम्हें. तुम्हारी मां तुम्हारे लिए, या जो भी इस दुनिया में आने वाले हैं और जो आ चुके है, उन सब बच्चों के लिए बेहद चिंतित है, परेशान है और सबसे बुरी बात कि विकल्पहीन है, कुछ भी न कर पाने की स्थिति में हूं मैं.
उत्तर प्रदेश के बागपत से ताल्लुक रखने वाली गायत्री आर्य की आधा दर्जन किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं. विभिन्न अखबारों, पत्र-पत्रिकाओं में महिला मुद्दों पर लगातार लिखने वाली गायत्री साहित्य कला परिषद, दिल्ली द्वारा मोहन राकेश सम्मान से सम्मानित एवं हिंदी अकादमी, दिल्ली से कविता व कहानियों के लिए पुरस्कृत हैं.
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