मैंने कल लगभग सौ सवा सौ कुमाउँनियों को एक मैसेज किया कि सामान्यतः हम ‘ओ दिगौ लाली’ कब बोलते हैं? 90% जो पहली पीढ़ी के पहाड़ से बाहर है जिनका बचपन हिमालय की गोद में बीता है सबने बहुत संवेदनशीलता से उसे महसूस किया और मतलब स्पष्ट किया. परंतु जो प्रवासी एक पीढ़ी पहले पहाड़ छोड़ चुके हैं उनमें से 90% लोगों को अपनी बोली का ज्ञान नहीं है. थोड़ा समझ जरूर लेते हैं. उनका जवाब था नहीं मालूम. यह जानकर मन थोड़ा विचलित हुआ. अपनी बोली का संरक्षण और फैलाव परिवारों का अहम उत्तरदायित्व है. पर एक उम्मीद की किरण कि कई वरिष्ठ स्तर के लोग जो विदेशों में भी अपनी सेवायें दे रहे हें अपनी बोली की गूढ़ समझ रखते हैं. ये तो रही ‘ ओ दिगौ लाली ‘ की छोटी सी ट्रायल यात्रा. (Column by Dr Girija Kishore Pathak)
प्रवासी पहाड़ी जब अपने अतीत के क्षणों को याद करते हैं, अपने संस्मरणों की बसाहट में खो जाते हैं और मंत्रमुग्ध होकर स्मृतियों को टटोलते टटोलते हैं तो अनायास ही अंतर्मन की दीवारों को चीरता हुआ एक शब्द मुंह से निकलता है ” दिगौ लालि!” मतलब आहा! (How sweet to mesmerize it / what a beautiful/ amazing !). जो समय हम सबका उस मिट्टी के साथ बीता है, जिन परंपराओं, लोक संस्कारों, गांव, घर और परिवार के साथ बीते पलों के एहसास हमारे मानसपटल पर स्थायी डेरा डाले रहते हैं जब कभी उन बीते लम्हों की चर्चा होती है तो एकाएक मुंह से निकलता है “दिगौ लाली कास् दिन छि!” आहा कैसे दिन थे वो!
जब फूलदेई का त्यौहार आता है छोटे बच्चे डलिया में बुरांस, प्योली के फूल और चावल लेकर घर-घर जाते हैं देहली की पूजा करते हैं. टीवी पर प्रवासी इस दृश्य को देखते हैं तो स्मृति की पोटली से शब्द निकलते हैं ‘ओ दिगौ लाली!’
जब हम सब बच्चे थे तो फूलदेई को कितने उत्साह से मनाते थे. कोई घर नहीं छूटता था. छोटी कन्याओं और मायके आयी बेटियों को विशेष दक्षिणा मिलती थी. पुलम, दाड़िम, आड़ू, खुमानी, हिसालू, किलमोड़ा, काफल, भांग की चटनी, गडेरी और लाई का साग, खतड़ुआ की ककड़ी, साना हुआ निम्मू, दुतिया के च्यूड़, चौत और अषाड़ का हरेला लगाने में ‘…जी रहे जागि रये य दिन बार भेटनै रये…’ के बोल, धुधूति की माला पहन कर देहली पर खड़े होकर ‘काले कौवा काले’ कह कौवे को बुलाना, खतड़ुआ जलाना, सातों-आठों की गवारा की महिला समूह द्वारा झोड़े गाकर माँ पार्वती (गवारा) की विदायी, ये सब यादों हमें बाध्य करती हैं बोलने को “दिगौ लालि.” कास दिन छि.
घुघुति की घुर, चौत के कफुए का ‘कफ्फू’ ‘कफ्फू’… न्योली की ‘जहो, जहो’ के बोल सब स्मृतियों को शब्दों में बदल देती है …दिगौ लाली…
ईजा, बाबू, आमा, के पांव के झुलों में घुघूती बासूती, डोली में ससुराल को बिदाई, मायके की भिटौली, बचपन के दोस्तों और साथियों के साथ बिताये पल, कुछ खुराफातें, अनगिनत शरारतें और अच्छे गुरुओं का ज्ञान, बचपन के पव्वा, अध्धा, डेणो, ढाम के सूत्र पर गणित की सिखलाई सबकी स्मृतियों की चर्चा होने पर आपस में बोल निकलते हैं दिगौ कस समय छि! ढोल दमुआ की थाप, हुड़ुक की बम-बम, झोड़े, चाचरी, न्योली, भगनौल ये भी लोक संस्कृति के पुरोधा हैं. कोई पहाड़ी इन्हें भी कभी नहीं भूलता. कुमाऊनी सभ्यता, संस्कृति और संस्कारों की त्रिवेणी
मनुष्य अपने भूत से प्रेम करता है, उसके गीत गुनगुनाता है, चाहे वह कितना ही कठिन समय क्यों न रहा हो. इसका सीधा सा कारण यह है कि वह अपने अतीत का विजेता होता है. वर्तमान के साथ वह रोज़ संघर्ष करता है. अतीत और वर्तमान के जोश से वह भविष्य की रूपरेखा बनाता है और भविष्य के प्रति वह आशान्वित रहता है. स्मृति के चलचित्र उसके हर काम के साक्षी रहते हैं. भूतकाल का हर पल जो उसने अपने समाज, परिवार शिक्षा संस्थानों के साथ बिताया हैं, जिस संस्कृति में उसके व्यक्तित्व का विकास हुआ है उसके सुखद एहसास को याद करते हुए अनायास ही उसके मुंह से निकलता है — ‘ओ दिगो लाली’ कां हूँ गयी उ दिन!
मूल रूप से ग्राम भदीना-डौणू; बेरीनाग, पिथौरागढ के रहने वाले डॉ. गिरिजा किशोर पाठक भोपाल में आईपीएस अधिकारी हैं.
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