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बज्जर किस्म के शिकायती भाई साहब !

भाई साहब से मेरी जान-पहचान इनके बचपन से है. जैसे किसी व्यक्ति के भीतर प्रेम, करुणा तथा दया अथवा झूठ, कपट तथा कमीनापन कूट-कूट कर भरा होता है, इनके अंदर बचपन से ही शिकायतें कूट-कूट कर भरी थी. जैसे हम कहते हैं कि हमें स्थानीय से राष्ट्रीय या वैश्विक होना चाहिए. भाई साहब की शिकायतें भी घर से राज्य, देश की ओर को फैलती चली गई. मसलन होश संभालते ही पहली और बुनियादी शिकायत इनको अपने घर से हो गई थी. ये अपने आस-पास के बच्चों की चीजों से अपनी चीजों की तुलना करते और दुखी हो जाते. बाद में घर, उसके सदस्यों, उसके फटीचर सामान ने भी इनको हमेशा के लिए शिकायत से भर दिया था.

जिस उम्र में बच्चे दुनियादारी से बेपरवाह होकर खेलने-कूदने में मग्न रहते हैं. खुशी के गीत गाना शुरू करते हैं. अपने आस-पास की दुनिया देखकर प्रफुल्लित होते हैं. उन्हें सब अच्छा ही अच्छा लगता है. भाई साहब को समझ में आ गया था कि उन्होंने गलत घर में इंट्री ले ली है. इन्होंने उसी समय अपने अगल-बगल के मालदार लोगों की ओर इशारा करके कहना शुरू कर दिया था कि फलाने घर में जन्म लिया होता तो जिंदगी का मजा आ जाता. तभी से इनके मां-बाप समझ गए थे कि उनके वहां ऐसे विलक्षण नमूने ने जन्म लिया है, जिसने जिंदगी भर खुद भी रोना है और उन्हें भी रुलाना है.

स्कूल गये तो रास्ते, सहपाठियों तथा स्कूल भवन से शिकायत से भर गये. कुछ समय बीता तो उन्हें मास्टरजी और बहनजी का व्यवहार और पढ़ाने का तरीका दोषपूर्ण लगने लगा. जब इन्हें स्कूल में कोई काम न कर पाने के लिए डांट पड़ती तो ये आत्मविश्वास के साथ दोष दूसरे शिक्षक-शिक्षिकाओं या सहपाठियों पर डाल देते. इन्हं हमेशा लगता, वे सब वैसे नहीं हैं, जैसा उन्हें होना चाहिए था.

भाई साहब बहुत जल्दी यह सीख गये थे कि किसकी शिकायत किस से करनी है. वे माँ की शिकायत पिता से करते. पिता की शिकायत मां से करते. किसी दिन दोनों से नहीं बनती तो उनकी शिकायत दादा-दादी से कर देते. स्कूल में साथियों की शिकायत शिक्षक से करते और स्कूल के इतिहास में उन्हें पहला ऐसा विद्यार्थी होने का गौरव मिला, जो बगैर किसी घबराहट के शिक्षक-शिक्षिकाओं की शिकायत हैड मास्साब से करता था. वे कब किस की शिकायत किसी से न कर दें, इसके चलते मास्टरजी, बहन जी और बच्चे उनसे दूर रहने लगे. छोटी सी उम्र में ही शिकायत की उनकी इस बड़ी प्रतिभा से सभी प्रभावित और आतंकित रहते थे.

जब भाई साहब नौकरी की उम्र में आये तो उन्होंने बड़ी-बड़ी नौकरियों के फार्म भरे. शुरू से ही उनका लक्ष्य किसी बड़े पद पर जाने का था. वे बड़े पद पर तो जाना चाहते थे, लेकिन उसके लिए जरूरी मेहनत करना वे जरूरी नहीं समझते थे. उन्हें लगता था, उनके भीतर नैसर्गिक प्रतिभा है, जिसे किसी अभ्यास की जरूरत नहीं है. जब बड़ी नौकरियों में कुछ नहीं हो पाया तो भाई साहब मन मारकर छोटी किस्म की नौकरियों के फार्म भरने लगे. उस दौरान जब भी मुलाकात होती तो वे पेपर सेट करने वालों की बेवकूफ़ी, भर्ती में पैसा चलने, चयन बोर्ड में बैठे लोगों के भाई-भतीजावाद की शिकायत करते.

मैं उनसे कहता, आप की शिकायतें कुछ हद तक सही हो सकती हैं, मगर आप भर्ती बोर्ड तथा उसकी कारस्तानियों पर गौर करने के बजाय अपनी तैयारी पर ध्यान दो. हो सकता है, आप इतना अच्छा करो कि आपको नजरअंदाज करना उनके लिए मुमकिन न हो. वे मेरी बात सुनने का अभिनय भले ही करते थे, मगर सुनते कुछ नहीं थे. सच तो यह है कि वे किसी की भी नहीं सुनते थे. सिर्फ अपनी सुनाने में यकीन रखते थे. मेरे चुप होते ही जोशीले अंदाज में उन्होंने देशभर में भर्ती में हुई गड़बड़ियों का आंकड़ा सामने रख दिया. मैं चुप हो गया. मेरा चुप होना ही उचित था.

जैसे-तैसे भाई साहब प्राइवेट नौकरी करने लगे. मगर किसी जगह तनखा से परेशान रहते. किसी जगह मालिकों का रवैया उन्हें अच्छा नहीं लगता. कहीं साथ के कर्मचारियों की गुटबाजी और चाटुकारिता से उनका मोहभंग हो जाता. वे हर साल एक नयी जगह नजर आते. वे साफ कहते कि मजबूरी है वरना प्राइवेट नौकरी कोई नौकरी थोड़ा होती है, यह तो गुलामी है.

शिकायतें करते-करते भाई साहब का चेहरा भी शिकायती हो चुका था .भाई साहब, को अब मुंह से बोलने की जरूरत नहीं पड़ती थी. वे कहीं भी जाते, उनका चेहरा शिकायत करना शुरू कर देता. सामने वाला उनका चेहरा देखकर ही उनकी शिकायतें समझ जाता. इस बीच भाई साहब को लगने लगा कि उनकी तमाम असफलताओं के पीछे उनका गांव भी एक मुख्य कारण है. वे छोटी जगह में छोटी सोच के लोगों के बीच घिरे रहे. इसलिए बड़ा नहीं सोच पाये. उन्होंने किसी बड़े शहर में जन्म लिया होता तो अभी वे न जाने कहाँ होते ?

भाई साहब से जब घर वालों ने शादी के लिए कहा तो उन्होंने विवाह नाम की संस्था तथा पति-पत्नी के संबंध को लेकर अपनी तमाम शिकायतें उनके सामने रख दी. किसी तरह वे लड़कियों को देखने के लिए राजी हुए तो लड़कियां उनका चेहरा देखकर ही शादी के लिए मना कर देती. भाई साहब को लड़कियों के पहनावे, चलने-फिरने, बात करने, उठने-बैठने आदि को लेकर कई शिकायतें थी. उनकी सारी शिकायतें लड़कियां उनके चेहरे पर पढ़ लेती थी और मामला आगे नहीं बढ़ पाता था.

इन तमाम तरह की असफलताओं के बीच भाई साहब को लगने लगा कि सारी समस्याओं की जड़ तो यह देश है. न कोई नियम, न कोई कायदा, जिसके मन में जो आ रहा है, करे जा रहा है. अकेला देश होगा जहां हाथ-पांव सही सलामत होते हुए भी इंसान को भिखारी बने रहने में गर्व महसूस होता है, जहां सड़क पर कूड़ा फेंकते हुए आदमी को शर्म महसूस नहीं होती, जहां तनख्वाह मिलते हुए भी कर्मचारी सामने वाले से घूस की उम्मीद करता है, जहां का नागरिक अपने देश-समाज के बारे में सोचने के बजाय सिर्फ अपने बारे में सोचता है. भाई साहब को लगता वे किसी और देश में होते तो कितने कामयाब होते. यह भी कोई देश है. उनका चेहरा शिकायतों से भर जाता.

भाई साहब को मुसलमानों, ईसाइयों तथा सिक्खों से शिकायत थी. उन्हें दूसरे राज्यों के लोगों से शिकायत थी. उन्हें चीन, पाकिस्तान, अमेरिका से शिकायत थी. उन्हें आरक्षण से शिकायत थी और वे इसे देश की सबसे बड़ी बुराई के रूप में देखते थे. उन्हें लगता था, आरक्षण नहीं होता तो उन्हें नौकरी मिल जाती. वे कुछ नया तथा बेहतर करने की कोशिश करने वालों पर यकीन नहीं करते थे. वे उन्हें धूर्त लगते थे. उन्हें महात्मा गांधी और जवाहर लाल नेहरू से शिकायत थी कि उन्होंने देश वैसा नहीं बनाया जैसा कि वे चाहते थे. उन्हें सभी राजनीतिक पार्टियों से शिकायत थी. वे किसी को भी वोट नहीं देने की वकालत करते थे.

घर, बाहर, देश-समाज से शिकायतों के बाद भाई साहब को धीरे-धीरे अपने आस-पास की हवा, पानी, बिजली, पेड़-पौंधों, धरती-आकाश सबमें गड़बड़ नजर आने लगी. मैं उनसे कहता कि आपकी बात सही है कि सब जगह कुछ न कुछ गड़बड़ है, मगर इन सब चीजों के बीच ही कुछ अच्छा भी हो रहा है, कुछ है जिसकी वजह से जीवन के प्रति भरोसा और उम्मीद पैदा होती है. आप उसकी पहचान करो. उसके सहारे जीने की कोशिश करो. हर चीज में बुराई देखकर तो हम जी ही नहीं सकेंगे. निराशा में घिर जायेंगे.

भाई साहब, अब मेरी ओर भी शिकायत से देखने लगे थे. कहने लगे, आप अपने को बहुत बड़ा बुद्धिजीवी समझते हो. जब देखो ज्ञान पेलने लगते हो. आप क्या समझते हो जो बातें आप कह रहे हो, मुझे पता नहीं है ? आप लोग मुगालते में जी रहे हो. लोगों से फिजूल में उम्मीद करने को कहते हो. सच तो यह है कि उम्मीद और भरोसा करने लायक कुछ भी नहीं है. सब जगह गड़बड़ है. सब कुछ गोलमाल है. इस दौर में सिर्फ लुटेरे खुश हो सकते हैं. अब मैं भी उन्हें देखकर भयभीत रहने लगा था.

भाई साहब को अब अपने आस-पास तथा जीवन में कुछ भी उम्मीद और भरोसे के लायक नहीं लगता. उन्हें सब गलत लगता है. उनके पास शिकायतें ही शिकायतें हैं. उन्हें अब अच्छाई की उम्मीद नहीं है. उन्होंने कई लोगों में शिकायत के बीज बो दिए हैं. ये लोग अपनी-अपनी जगह शिकायत करने और लोगों के बीच निराशा भरने का काम मुस्तैदी से करते रहते हैं. भाई साहब अपने अनुयायियों की बढ़ती हुई तादाद को देखकर खूब खुश होते हैं. मगर शिकायत उन्हें उन से भी रहती है. इन लोगों के दिनभर दुकानों, चबूतरों पर बैठकर गपियाने और दारू पीकर झगड़ा-फसाद करने से उन्हें काफी कष्ट होता. वे इसे नयी पीढ़ी की बर्बादी के तौर पर देखते थे.

भाई साहब, इन दिनों घोर अवसाद में हैं. मैं हमेशा कि तरह चाहता हूं कि वे जीवन की ओर लौटें. उनके जीवन में शिकायतों की जगह उम्मीद को जगह मिले. वे कुछ अच्छा करने की कोशिश करें. मगर लगता नहीं है, ऐसा हो पायेगा. मैं अब भाई साहब को लेकर प्रायः आशंकित रहता हूँ. जानता हूँ कि अब वे जहां पर पहुंच गए हैं वहां से किसी भी दिन नुवान पीकर अखबार में संक्षेप वाले स्तम्भ में छपने वाली खबरों में जगह बना लेंगे. अखबार वाले लिख देंगे कि वे कई दिनों से मानसिक रूप से परेशान थे. भाई साहब ने अपना जीवन जहां पर पहुंचा दिया है, वहां से मैं तो क्या, कोई भी उन्हें बाहर नहीं निकाल सकता. इतना समय किसके पास है. लोगों से अपना जीवन नहीं संभल रहा, वे भाई साहब को खाक संभालेंगे. मुझे नहीं पता भाई साहब के साथ क्या होगा ? मैं उन्हें संक्षेप वाली खबरों में नहीं देखना चाहता.

दिनेश कर्नाटक

भारतीय ज्ञानपीठ के नवलेखन पुरस्कार से पुरस्कृत दिनेश कर्नाटक चर्चित युवा साहित्यकार हैं. रानीबाग में रहने वाले दिनेश की कुछ किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं. विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं. ‘शैक्षिक दख़ल’ पत्रिका की सम्पादकीय टीम का हिस्सा हैं.

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Girish Lohani

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  • भाई साहब कालम हमारे समाज की गहरी पड़ताल है।दिनेश जी की क़िस्सागोई के नए रूप व्यंजनाधर्मी भाषा का मिज़ाज और ज़िंदगी को खोजने निकले अलमस्त क़लमनबीस के मन की आँख,वाह,कमाल!

  • वाह! वैसे इस लेख को पढ़कर कई बार लगा कि शायद मुझ पर ही लिखा गया है। लेकिन ये सच है कि मैं ऐसा नही हूँ। या शायद हूँ भी। पर अपने आलावा भी कई और लोगों के चेहरे साफ साफ नजर आ रहे हैं।

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