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गुस्सा करना कौन चाहता है, मगर…

भाई साहब हर रोज सुबह-सुबह तय करते हैं कि चाहे कैसे भी हालात हों, वे आज गुस्सा नहीं करेंगे. नेताओं और कामयाब बाबाओं की तरह मंद-मंद मुस्कराते रहेंगे, लेकिन हर रोज उन्हें ऐसे लोग टकरा जाते या कुछ ऐसे हालात बन जाते कि उन्हें गुस्सा आ ही जाता. जहां एक बार बात बिगड़ी नहीं कि भाई साहब का पूरा दिन खराब हो जाता है. फिर उनका बचा हुआ दिन भी गुस्से में बीतता. अब वे दिनभर गुस्से में रहते हैं. उन्हें हर बात में गड़बड़ नजर आने लगती और हरेक से लड़ना या डांटना जरूरी लगने लगता.

अब भाई साहब की छवि एक गुस्सैल व्यक्ति की बन चुकी है, जो कब किस पर बरस पड़े कोई भरोसा नहीं. कुछ-कुछ शेर या बाघ जैसी, जिनके सामने कोई नहीं पड़ना चाहता. इसलिए लोग या तो उनके सामने नहीं आते. आते हैं तो ख्याल रखते हैं कि कोई ऐसी बात न हो कि भाई साहब से तू-तू मैं-मैं हो जाये. उन्हें गुस्सा आ जाये. भाई साहब की भी हालत ऐसी है कि कुछ लोगों को तो दूर से देखते ही उनका बीपी बढ़ने लगता है और नजदीक आते ही उनसे लड़ाई शुरू करने का मन होने लगता है.

भाई साहब के गुस्से के कारण भी बड़े जोरदार होते हैं. उन्हें लोगों की गलतियों पर ही नहीं, उनकी सूरत, बालों के स्टाइल, कपड़े पहनने के तरीके, बोलने के अंदाज, खड़े होने की अदा पर गुस्सा आ जाता है. मगर भाई साहब सामने वाले से कभी नहीं कहते कि उसके कपड़ों की वजह से उन्हें गुस्सा आ रहा है. दरअसल सही कपड़े न पहनने के कारण उन्हें उस व्यक्ति की हर चीज नागवार लगने लगती. और वे उसकी सीधी बातों का टेढ़ा जवाब देने लगते और कुछ ही देर में तनातनी का माहौल बन जाता. भाई साहब गुस्से से हांफने लगते.

घर के बाहर भाई साहब के गुस्से के अलग कारण होते और घर के अंदर अलग. भाई साहब का मानना है कि घर में हर चीज को तय जगह पर मिलना चाहिए. घर के सदस्यों को चीजों का उपयोग करके उन्हें जगह पर रख देना चाहिए. कौन कहेगा कि भाई साहब गलत हैं. वे अपनी जगह बिलकुल सही हैं. मगर घर में प्रायः चीजें जगह पर नहीं मिलती और भाई साहब का गुस्सा कभी शांत नहीं होता.

घर में भाई साहब के गुस्से की एक और वजह समाचार चैनल होते. घर में शांति दिखलाई पड़ती. भाई साहब प्रसन्न नजर आ रहे होते. मगर तभी टीवी खुलता. भाई साहब अपना प्रिय समाचार चैनल लगाने का आग्रह करते. वहां बहस चल रही होती. कुछ ही क्षणों में भाई साहब बहस में खो जाते. जैसे ही बहस करने वाले भाई साहब को पसंद न आने वाली बातें करने लगते. भाई साहब बैठे-बैठे गुस्से से भरने लगते. जब उनसे गुस्सा बर्दाश्त नहीं होता तो वे अपने टीवी के सामने से ही बहस में शामिल हो जाते और जोर-जोर से गालियां देने लगते. घर वाले उनसे शांत होने का अनुरोध करते तो वे उन पर भी बरसने लगते. देखते ही देखते घर में गुस्से और अशांति का माहौल बन जाता.

कई लोग अपनी कमजोरियों को छुपाने में माहिर होते हैं. भीतर आग लगी होती है, चेहरे पर बर्फ ले आते हैं. भीतर रेगिस्तान होता है, बाहर बगीचा खींच देते हैं. भाई साहब ऐसे दिखावटी इंसान नहीं हैं. गुस्सा हैं तो चेहरे से लेकर पूरा शरीर गुस्से को प्रकट करता है. हाथ हवा में लहराने लगते, दांत किटकिटाने लगते, चेहरे की रंगत बदलने लगती, पैर भिड़ने को मचलने लगते. गुस्से में कैसी भी सभा हो, कैसे भी लोग हों. भाई साहब किसी की परवाह नहीं करते और जिससे खफा होते हैं, उसकी खाट खड़ी करके ही छोड़ते हैं. फिर वह अपना सगा दोस्त, रिश्तेदार या कोई भी क्यों न हो ?

भाई साहब हमेशा से गुस्से वाले नहीं थे. कभी वे भी दिनभर खुश और सामान्य रहते थे. यह समस्या उम्र बढ़ने के साथ पैदा हुई. जब तक भाई साहब जीवन को विद्यार्थी की तरह लेते रहे. गुस्से से दूर रहे. जब से भाई साहब ने अपने सिद्धान्त तय कर लिये या समझ लिया कि वे जिंदगी को जान गए हैं, गड़बड़ वहीं से शुरू हुई. यहीं से वे मानने लगे कि लोगों को यही बात कहनी चाहिए, यही बात सोचनी चाहिए, इसी तरीके से जीना चाहिए. तब से जो चीज भाई साहब के हिसाब से नहीं होती भाई साहब को गुस्सा आ जाता.

भाई साहब को अब अपने तरीके से सोचने वालों लोगों के बीच ही आनंद आता. ऐसे लोग एक-दूसरे को पसंद आने वाली बातें करते और खुश होते. यहां भी अगर कोई व्यक्ति गलती से थोड़ा सा इधर-उधर की बात कर देता तो सब लोग उस पर टूट पड़ते. सब को एक साथ गुस्सा आ जाता. बड़ी मुश्किल से वह समझाता कि दअरसल वह वही बात कहना चाह रहा है, जो वे सुनना चाहते हैं. थोड़ा सा शब्दों का हेर-फेर हो जाने के कारण उन्हें बात अलग लग रही है. उसके यह कहते ही उन लोगों का गुस्सा उतर जाता.

सभी कहते हैं कि भाई साहब गुस्सा नहीं करते हैं तो कितने बढ़िया होते हैं. भाई साहब खुद भी अपनी कमजोरी को समझते हैं. हर रोज तय करते हैं कि कल से गुस्सा खत्म. मगर गुस्सा खत्म नहीं होता. और क्यों खत्म हो. अब गुस्सा भाई साहब की पहचान बन चुका है. लोग उनके गुस्से से उन्हें जानते हैं. गुस्सा नहीं होगा तो भाई साहब कितने अजीब लगेंगे. कितने निरीह, कितने दयनीय. नहीं, भाई साहब को अपनी यह खास पहचान बनाये रखनी चाहिये. भाई साहब को गुस्सा करते रहना चाहिये.

 

दिनेश कर्नाटक

भारतीय ज्ञानपीठ के नवलेखन पुरस्कार से पुरस्कृत दिनेश कर्नाटक चर्चित युवा साहित्यकार हैं. रानीबाग में रहने वाले दिनेश की कुछ किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं. विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं. ‘शैक्षिक दख़ल’ पत्रिका की सम्पादकीय टीम का हिस्सा हैं.

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Sudhir Kumar

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  • दिनेश जी का लीकहै आर्टिकल बहुत ही शानदार है।उनके साप्ताहिक कालम का मुझे बेसब्री से इंतजार रहता है।
    Dr शैलेन्द्र धपोला।

  • विवेक ?और विचारों को तय करते चैनलों की इस जमात में बेहतर होगा कि बुद्धि विवेक का सहारा लिया जाए।

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