कुछ लोग होते हैं, जो अपनी क्षमता तथा सामर्थ्य के अनुसार अपने जीवन की बेहतरी की कोशिश करते हैं. इसमें कुछ कामयाब होते हैं. कुछ कामयाब नहीं होते. कुछ होते हैं, जिन्हें जो मिलता है, उसे खुशी-खुशी स्वीकार कर लेते हैं. कुछ होते हैं, जो अपना जीवन दूसरों से तुलना करते हुए जीते हैं. उनकी नजर हमेशा दूसरों की थाली पर होती है. ऐसे लोग बचपन से ही ‘रुदन’ के शौकीन होते हैं. ‘उसको उतना, मुझे इतना!’ इनकी थाली कितनी ही भरी क्यों न हो मगर इन्हें वह दूसरों से कम ही लगती है. शिकायत इनका स्थायी भाव होता है.
भाई साहब भी इसी प्रवृत्ति के हैं. बाजार में दुकान है. इन्हें हमेशा लगता है कि सामने वाले की दुकान में इनकी दुकान से ज्यादा ग्राहक आते हैं. इन्हें लगता है, ऐसा इसलिए है क्योंकि वह दुकान के बाहर सामान खूब फैलाता है. इसलिए ये हमेशा उससे दो कदम आगे तक सामान फैलाते हैं और अपनी दुकान और ग्राहकों पर नज़र रखने के बजाय उनकी दुकान तथा ग्राहकों पर अधिक नज़र रखते हैं.
उन दिनों जब शहर कोतवाल ने बाजार में अतिक्रमण हटाओ अभियान चलाया और भाई साहब को बीच सड़क में सामान फैलाने पर फटकार लगाई तो इन्होंने तुनकते हुए बगल वाले की दुकान की ओर इशारा करते हुए कहा, ‘साहब पहले उनको तो देख लो!’ साहब बोले-‘मुझे मत समझाओ कि पहले किसकी ओर देखूं ? सड़क तुम्हारे बाप की नहीं, जनता की है. आइंदा सड़क पर सामान दिखा तो दुकानदारी करना भूल जाओगे.’ भाई साहब डांट से पानी-पानी हो गये और अपना सामान समेटने लगे. मगर नजर उनकी पड़ोसी की ओर ही थी. जब पड़ोसी भी अपना सामान समेटने लगा, तब जाकर उन्हें संतोष हुआ.
दूसरे भाई साहब ने शहर की कालोनी में मकान बनाया. अपनी जमीन पर दीवार बनवाई. मगर नजर उनकी सड़क तक रहती. एक बार पड़ोसी ने उनकी दीवार के आगे कार खड़ी कर दी तो सब काम छोड़कर उनका इंतजार करने लगे. जब वे आये तो बोले, भाई साहब यहां गाड़ी खड़ी न करें. पड़ोसी जल्दी में थे. उनकी बात को खास तवज्जो न देते हुए आगे बढ़ गये. यह तिलमिला गये.
एक दिन उन्होंने जल्दबाजी में अपनी ओर जगह न होने पर फिर इनकी दीवार के आगे गाड़ी खड़ी कर दी. ये फिर से इंतजार में तैनात हो गए.
इस बार उन्हें रोककर बोले, ‘आप से पहले भी कहा था, यहां गाड़ी न खड़ा करें. आप ने फिर गाड़ी खड़ी कर दी.’
उन्होंने पहले तो ध्यान से इन्हें देखा, फिर पूछा, ‘आपको क्या परेशानी हुई ?’
‘परेशानी की क्या बात है जी, आप हमारे घर के आगे गाड़ी न खड़ा करें.’
‘मैंने तो जी रोड के किनारे गाड़ी खड़ी की है. आपके घर के अंदर तो नहीं लाया.’
‘डिस्टर्ब होता है जी.’
‘तब तो आपको यहां चलने वाली गाड़ियों से भी डिस्टर्ब होता होगा. उन्हें भी कहीं और से जाने को कहिए.’
कहकर वे चले गये, मगर बंदे की परेशानी के बारे में सोचकर मन ही मन सिर पीटते रहे.
यही भाई साहब जब सड़क पर कार चला रहे होते तो इन्हें लगता इनके चारों ओर पांच मीटर के व्यास तक कोई न हो. जैसे ही कोई इनकी लक्ष्मण रेखा के भीतर प्रवेश करता, ये विचलित हो जाते. उसे कठोर मुद्रा और चौड़ी आंखों से घूरने लगते. किसी के रुके होने पर भी ये एकदम परेशान हो उठते. बगैर देखे कि उसे क्या समस्या है. ये अपनी सीट पर बैठकर हॉर्न बजाने लगते.
उस दिन सड़क पर जाम लगा हुआ था. गाड़ियां कतार पर खड़ी थी. ये भाई साहब पीछे से हॉर्न देने लगे. तभी सामने से एक व्यक्ति आया और इनसे सीसा खोलने को कहा. इनकी तो जैसे सांस ही अटक गई.
‘आप हॉर्न क्यों बजा रहे हैं ? आपका दिमाग खराब तो नहीं हो गया. आपको गाड़ियां खड़ी नहीं दिखाई दे रही हैं. आप क्या चाहते हैं कि मैं गाड़ी को उड़ाकर ले जाऊं ?’
भाई साहब अचानक हुए इस हमले से सकपका गए. उन्हें कोई जवाब नहीं सूझा.
‘बताइये, मैं अपनी गाड़ी को उड़ाकर ले जाऊं.’
‘नहीं, मेरा ये मतलब नहीं था.’
‘आपका ये मतलब नहीं था तो आप फिजूल में हॉर्न क्यों बजाये जा रहे थे. आपको लगता है, हम लोगों को जाम पर खड़े होने का शौक है!’
आस-पास के कुछ और लोग भी आस-पास खड़े हो चुके थे. वे भी इनके व्यर्थ में हॉर्न बजाने को लेकर टिप्पणियां कर रहे थे, ‘सोच रहा है. इसके हॉर्न बजाने से जाम खुल जायेगा. कहाँ-कहाँ से आ जाते हैं नमूने.’
इस तरह दूसरों की थाली पर नजर रखने वाले भाई साहब कदम-कदम पर डांट खाते हैं, बेइज्जत होते हैं, मगर सबक सीखने को तैयार नहीं होते. वे मंथर गति में चल रहे लोगों के जीवन में तनाव पैदा करते हैं. उन्हें लोगों के जीवन में हस्तक्षेप का यही तरीका आता है.
दिनेश कर्नाटक
भारतीय ज्ञानपीठ के नवलेखन पुरस्कार से पुरस्कृत दिनेश कर्नाटक चर्चित युवा साहित्यकार हैं. रानीबाग में रहने वाले दिनेश की कहानी, उपन्यास व यात्रा की पांच किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं. विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं. ‘शैक्षिक दख़ल’ पत्रिका की सम्पादकीय टीम का हिस्सा हैं.
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