अक्सर बचपन में दादा दादी के कहानियाँ-किस्सों में सुना करते थे उनके ज़माने की कई सारी बातें. इन किस्से-कहानियों को सुन कर बड़ा आनन्द आता था. हमें लगता था जैसे सब कुछ हमारे सामने घट रहा है. दादी बताया करतीं — किस तरह वे मीलों दूर चल कर घास व लकड़ियां काट लाया करती थी. सुबह निकली तो शाम को ही लौटती थी. उस समय न तो गाड़ी की सुविधा थी और न ही इतना धन. (Column by Bhumika Pandey)
महिलाएं सुबह उठ कर नहा-धो कर दिया-बाती कर घर के बच्चों और बड़ों के लिए खाना बना कर खुद भी कुछ हल्का नास्ता करतीं और फिर निकल जाती घास और लकड़ियों की तलाश में. मिलों का रास्ता तय करती. उनके साथ छोटी सी गठरी में कुछ चावल या ख़ाजे (चावल का छोटा स्वरूप) रखे होते. भूख लगने पर सभी महिलाएं वही मिल-बाँट के खातीं. प्यास लगने पर धारों और नौलों का पानी पीती. शाम को थकी-हारी घर लौटने के बाद फिर से घर के कामों में जुट जाना होता था. चाय बनाना, बर्तन मांझना, रात के खाने की तैयारी करना इत्यादि. गर्मी हो सर्दी हो या फिर बरसात यही दिनचर्या उनके दैनिक जीवन का सत्य थी.
आधुनिक समय में पहाड़ी महिलाओं की स्थिति में कुछ बदलाव जरूर आये हैं. गाँव में भी लोग पढ़े-लिखे होने लगे हैं. सड़कें अधिकतर गाँवों तक पहुँच चुकी हैं. गाड़ी की सुविधा भी हो गयी है. पर कहीं ना कहीं देखा जाए तो महिलाओं की अवस्था में अब भी कुछ खास सुधार नहीं हुआ है. वे उसी दिनचर्या का आज भी पालन कर रही हैं.
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आज पहाड़ में कई महिलाएं कामकाजी और घरेलू दोनों ही हैं. ये कामकाजी महिलाएं तो दोहरी जिम्मेदारी का निर्वाह करती हैं. सुबह उठ कर नहा-धो कर दिया-बाती कर पूरे घर का खाना तैयार कर काम पर जाती हैं. दिन भर ऑफिस में काम करने के बाद शाम को वापिस घर में आ कर फिर से घर के कामकाज में खटने लगती हैं.
कुल मिलाकर इन हालातों को देख यही लगता है कि समय बदला, वातावरण बदला, सोच भी बदली परन्तु आज भी पहाड़ की महिलाओं की स्थिति वही बनी हुई है. पहाड़ी महिलाएं भी शान्त स्वभाव से सारे काम इतनी सहजता से करती हैं मानो उन्हें थकान होती ही ना हो. —
वह ऊष्मा है, ऊर्जा है, प्रकृति है पृथ्वी है,
वही तो आधी दुनिया और पूरी स्त्री है.
पिथौरागढ़ में रहने वाली भूमिका पाण्डेय समाजशास्त्र और मनोविज्ञान की छात्रा हैं. लेखन में गहरी दिलचस्पी रखने वाली भूमिका पिथौरागढ़ डिग्री कॉलेज की उपाध्यक्ष भी रह चुकी हैं.
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