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पहाड़ की होली और होल्यारों की रंग भरी यादें

पहाड़ की होली और होल्यारों की यादो का रंगीन पिटारा जहा भी खुले शमां रंगमस्त हो जाता है. कभी वक्त था जब लोग होली में गाव घरों को जाने का मन बहुत पहले बना लेते थे. नौकरी के लिये प्रवास में रह रहे लोग अपने-अपने कार्यालयों में अग्रिम छुट्टी की दरख्वास्त बहुत पहले देकर संतुति ले लेते थे. सफेद कुर्ता-पैजामा सिलवाने दर्जी को दे दिया जाता. एक अजब सी उमंग होल्यारों को गृह क्षेत्र की होली में शामिल होने को होती. कुछ सयाने होल्यारों का पक्का इरादा होता की वे होली में हरसंभव प्रयास कर होली खेलने आयेंगे ही. (Colorful memories of Holi in the mountains)

होली की एकादशी से छरड़ी तक गाँव रंग से सरोबार रहते. खड़ी होली की होरी भे… होरी भे… की आवाजेन उस गाँव से इस गाँव तक पहाड़ों को प्रफुल्लित सा कर देते. होली का खाला (नियत स्थान) बुजुर्गों के समय से बड़ा मान रखता है. यही से एकादशी को होली की शुरूआत होती और होली उडाई (पाँच दिन की होली) भी यहीं से जाती. पाँच दिन की होली और होल्यार सब काम छोड़छाड़ होली के रंग में रंगमत हो जाते. रात-रात भर बैठकी होली से होल्यार शमां बाँध देते. रात को तबला हारमोनियम मिजूरे की संगत जहा वातावरण को शांत रागों से परिपूर्ण होकर संगीतमय बना देती वहीँ दिन की खड़ी होली में ढोल मिजूरे, दमाऊ और वीर रस के होली से गीतो से संगीतमय रहता. फागुन का महीना गुनगुनी सर्द राते होल्यारों से खचाखच भरा होली का खाला और बांज के मोटे मोटे गिल्टों से आग की गरमाहट से भरा वातावरण आज भी मन में हिचकौले खाता है. पंचैत की पुरानी केतली, संजायती चंदे की व्यवस्था से तैयार होते आलू के गुटके, चहा की उमदा खुश्बू से जो चहा न पीता हो वह भी एक गिलास गरम गटमट चहा पी ही जाता. होल्यारों की रागों से एक-एक होली में आधा एक घंटा निकाल देते. चम्पावत काली कुमाऊँ के होल्यारों की कदम ताल लय होली गायन में देखने लायक होती है.

बदरपुर दिल्ली में चम्पावत के लोग हमारे बहुत साथी. उनकी संगत में होली खेलने देखने का आनंद ही अलग होता है. दिन भर अपने कामो से थके हारे सभी साथी होली गायन को बड़े से ढोल बजाकर होली से 15 दिन पहले रोज जुटते और रात 12-1 बजे तक संगीत की गमक से बदरपुर दिल्ली को भी संगीत मय कर ही देते.

गंगोलीहाट परिक्षेत्र मेरा वहां की गायन शैली चाहे खाड़ी हो या बैठकी वह काली कुमाऊँ से हटकर प्रतीत होती. खैर होली मौका मिलन का खुशिया मिल-बाँट मनाने का.

दिल्ली से गांव लौटने की एक पुरानी याद

गंगोलीहाट क्षेत्र में होली की एकादशी की शाम को होली के ध्वज पताका, निसाण को पूजा बिधान के साथ स्थापित किया जाता. दिन में गाँव के हर घर में ये ध्वज/निसाण आगे-आगे चलते, जिस घर में होली जाती वे पिठ्या अक्षत चंदन से बिधिवत निसाणो की पूजा करते. भैट भी निसाणो को दी जाती. भैट पाकर निसाण घर-घर ले जाने वालों की चाँदी हो जाती. हर घर में होली जाती खड़ी होली गाई जाती कहीं-कहीं बैठकी होली भी आँगन में होती. होल्यारों का स्वागत बड़े प्रेम से हर घर में होता जैसी जुगुत वैसी खिदमत होल्यारों की होती. पर गुड़ की भेली, सौप सुपारी कतरे/कसे गोले के साथ सबके घर लगभग मिलता. सन 1985-1990 तक के दौर में बड़ी सस्ती पिचकारियों का जमाना था. आज के रेस्तरां की साँस की बोतले ही समझे. दो-चार बार पानी भरा और पिचकारियों के ढक्कन कहीं और बोतलें कहीं और… यादों में आज भी जीवंत है वो पिचकारी की प्लास्टिक की खुश्बू और बोतलाकार पिचकारी. हर घर का गुड़ कुर्तै की जेबों में ठस्स भरा-भरा पानी से पिघलकर लेस्सी जाता था. कड़कड़ जेबें गुड़ से सनी आज भी बड़ी याद आती.  होली के सफेद कुर्ता और पजामा होली समापन के बाद जब गाँव के धारों में घुलते थे तो गूल का रंगीन पानी धोबीघाट का जैसा रंग रंगीन हो जाता.  

होली के बहाने बहुत सी भाभियां देवरों को निशाना साध पानी की बौछारों से जेठ और ससुरों को भी अनजाने निझूत करके भाग जाती. अहसास होने पर शर्माकर भाग खड़ी होती जेठ, ससुर दात निपौरकर, बड़बड़ाते, मन-मन गुस्से से लाल होकर होली गायन का नाटक करते.

पक्के रंगों की पकड़ पटागंण में चेहरो पर और कपड़ो में बहुत दिनों तक रहती. अक्सर असौज चैत-बैसाख में काम के दिनो में निकाला गया तिरपाल भी होल्यारों और होली की याद दिला देता जो होली के दिन आँगन में होल्यारों के लिये बिछाया गया था. खैर होली तो रंगमत होकर दिलों को खुश कर ही जाती पर होली छोड़ने/बिदाई का क्षण बड़ा मार्मिक हो जाता. जिस उल्लास हर्ष के साथ होल्यार चीर बांधते, आज छरड़ी को उतने ही दुखी मन से होली की बिदाई मन आँखों से होती कि आज के बाद होली श्री कृष्ण की नगरी मथुरा के सिवाय कही और न होगी. होली न गाने की कसमें भी शायद होती थी. गुलाल अबीर को आसमान की ओर उड़ाकर अगले बरस फागुन की एकादशी की बाट जोही जाती… फाग की होली और होली के गीत बहुत दिनों तक कानों में गुंजायमान होते प्रतीत होते. फिर आता होली का परायण का नियत दिन, गाँव के एड़ी देवता के मंदिर में होता में होता पूरे गाँव का दिन का भोज. आलू की सब्जी, हाथ के बनी रोटियां, सूजी का हलवा और स्वाद और प्रेम की बेहतरीन यादें… रंग जीवन  में  बहुत पर गाँव की होली के जैसा पक्का रंग कभी मन से उतर नहीं सकता.

मूलरूप से गंगोलीहाट के रहने मदन मोहन जोशी वर्तमान में बदरपुर, नई दिल्ली रहते हैं. मदन मोहन जोशी से उनके नम्बर 9990993069 पर संपर्क किया जा सकता है.

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Sudhir Kumar

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