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नैनीताल के चिलम सौज्यू की दास्तान

बड़ा बाज़ार के पास वाले मोड़ पर ही, जहाँ किसी जमाने में घोड़ा स्टेंड था, उसी तिराहे पर, स्टेट बैंक की बगल में हल्की-सी दिखाई देती शिला के नीचे हमेशा दुबके रहते हैं चिलम सौज्यू. आप लोग उन्हें देख नहीं सकते क्योंकि आपको उनकी जरूरत नहीं है. उनका वास्तविक नाम था जोगा साह. चैथे दशक से वह नैनीताल की माल रोड पर अपने एक हाथ में चिलम और दूसरे हाथ में हंटर लिए पूरे दिन घूमते रहते थे… उनका कहना था कि वह बिना अपने पुरखों की निशानी चिलम और अपने अन्नदाता हुजूर सरकार की निशानी हंटर के बिना एक पल भी नहीं रह सकते, इसलिए उन्हें हमेशा अपने साथ रखते थे और यही कारण है कि नगर-वासियों के द्वारा उन्हें इसी नाम से पुकारा जाने लगा था.

उन दिनों माल रोड के उत्तरी सिरे पर गोविंदबल्लभ पंत और दक्षिणी सिरे पर गाँधी की आदमकद मूर्तियाँ नहीं थीं. तल्लीताल बस अड्डे पर पोस्ट आफिस की लाल टीन की छत वाली पुराने डिजाइन की एक बिल्डिंग होती थी, इसके अलावा वहाँ लाट साहब की बग्घी के ठहरने का चैक था, जो कुछ सालों के बाद कुमाऊँ मोटर ओनर्स यूनियन लिमिटेड के बस अड्डे के नाम से जाना जाने लगा था. तालाब के पानी का निकास उन दिनों भी वहीं पर से होता था, तब भी उस जगह को ‘डाँठ’ कहा जाता था, मगर आज की तरह का सीमेंट का विशाल प्लेटफार्म, अशोक होटल से लगा पार्किंग स्थल और भावी मालरोड का ढाँचा नहीं था. ऐसी भारी-भरकम रेलिंग भी तब नहीं थीं… लोहे के दो समानांतर पाइपों के द्वारा जो रेलिंग बिछाई गई थी, उसमें ऊपर वाली पाइप में बैठकर, जब सुबह-सुबह नीचे वाली पर पाँव टिका कर तल्लीताल साइड के नौजवान बैठते थे तो हल्द्वानी-साइड से आती हुई हवा के शीतल-शांत स्पर्श से उनका खुद-ब-खुद ऐसा प्राणायाम हो जाया करता था, जिसके सामने आज के श्रीश्री रविशंकर और रामदेव भी पानी भरते नजर आएँ.

चिलम सौज्यू ने तीस के दशक में अपना ‘माल रोड बचाओ’ अभियान मल्लीताल के गोलघर से आरंभ किया था. गोलघर मल्लीताल इलाके में उन दिनों की सबसे बड़ी इमारत ही नहीं थी, बाज़ार का वह आखिरी सिरा भी था, जहाँ से माल रोड शुरू होती थी. तल्लीताल की ओर बढ़ते हुए दाहिनी ओर आर्य समाज की बिल्डिंग तो उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध से खड़ी थी, मगर बाईं ओर का बी.डी. पांडे अस्पताल तब क्रास्थवेट हास्पिटल कहलाता था. अब तो माल रोड का नाम भी गोविंद बल्लभ पंत के नाम से ‘जी. बी. पंत मार्ग’ पड़ गया है, यह अलग बात है कि इस नाम से माल रोड को कोई नहीं जानता. चिलम सौज्यू उन दिनों जीवित होते तो वे इस नाम परिवर्तन के खिलाफ भी अभियान चलाते. अच्छा ही हुआ, यह दिन देखने के लिए वे बचे नहीं रहे. वैसे भी आधी-पौन सदी में क्या-से क्या हो जाता है ? क्या इस बदलाव को स्वीकार कर पाते हमारे चिलम सौज्यू?

चिलम सौज्यू पढ़े-लिखे तो एक दर्जा भी नहीं थे, मगर वह अपने-आपको हुजूर अंग्रेज़ सरकार का कृपा-पात्र समझने के कारण यह मानने के लिए तैयार नहीं थे कि वे पढ़े-लिखे नहीं हैं. उनका विश्वास था कि जो अंग्रेज़ी बोलना जानता है, वह अपने-आप शिक्षित बन जाता है, अशिक्षित तो वे लोग कहलाते हैं जो पहाड़ी-हिंदी बोलते हैं. हालांकि चिलम सौज्यू को अंग्रेज़ी का विधिवत् ज्ञान नहीं था, मगर हुजूर सरकार और उनके कारिंदों के संपर्क में रहने के कारण वह टूटी-फूटी अंग्रेज़ी बोल लेते थे. एक हिंदुस्तानी को शिक्षित होने के लिए वह इतना पर्याप्त समझते थे, बाकी ‘हाई-स्टैंडर्ड’ की अंग्रेज़ी बोलने के हकदार तो, उनके अनुसार, सिर्फ सरकार बहादुर ही हो सकते थे. हालांकि उन दिनों भी नैनीताल में ऐसे हिंदुस्तानियों की कमी नहीं थी, जो अंग्रेज़ी पर बहुत अच्छा अधिकार रखते थे, मगर वे ऊँचे ओहदों पर आसीन ‘बड़े लोग’ थे. वे या तो राजे-महराजे थे, जिनके ऊँचे-ऊँेचे महल अयारपाटा की सुनसान घाटियों में थे और जहाँ वे गर्मियों में कुछ ही दिनों के लिए पधारते थे, या फिर शराब के व्यापारी. वे बोट हाउस क्लब के मैंबर होते थे और राजभवन के गोल्फ मैदान में सरकार बहादुर के साथ गोल्फ खेलते थे, इसलिए वे भले ही शक्ल से हिंदुस्तानी हों, थे तो सरकार बहादुर के बराबर ही. इसलिए चिलम सौज्यू उनका भी सम्मान करते थे.

वे किसी भी अंग्रेज अफसर या हिंदुस्तानी नौकरशाह को अंतरंगता से नहीं जानते थे, न किसी से उन्होंने कभी गंभीर विषय पर बातें की थी, फिर भी वे इसलिए उनके आदर के पात्र थे, क्योंकि वे अंग्रेज़ी जानते थे. विचार-विमर्श के लायक अंग्रेज़ी उनको आती भी नहीं थी, यद्यपि यह बात उनके दिमाग में हमेशा रहती थी कि काश, हिंदी-पहाड़ी की तरह उनको भी अंग्रेज़ी आती तो वे अवश्य राय बहादुर बन गए होते. तो भी उन्हें इसका मलाल नहीं था, क्योंकि उनके लिए यही बहुत था कि नैनीताल को सँवारने वाले सरकार बहादुर के कारिंदों के साथ उनकी बोलचाल थी और वो लोग चिलम सौज्यू की बातें सम्मान के साथ सुनते थे. उनके अनुसार, नैनीताल में हिंदुस्तानी भी ऊँचे ओहदों पर थे, मगर उनमें कितने ऐसे थे जो बात-बात में एक फर्शी सलाम ठोंकने पर पैसा-अधन्नी, यहाँ तक कि कभी इकन्नी-दुअन्नी तक बख्शीस में दे देते थे.

यही कारण था कि किसी अंगरेज को देखते ही वह उत्तेजित-से हो जाते थे और सड़क किनारे खड़े होकर उसे फर्शी सलाम ठोंकने लगते. उनका इकतरफा सोच था कि वह अंगरेज़ सरकार के कृपा-पात्र हैं इसलिए उन्हें उन ‘असभ्य’ हिंदुस्तानियों को सिविल समाज के तौर-तरीके सिखाने का पूरा अधिकार है जो अपने अज्ञान के कारण उनके प्यारे शहर को गंदा कर रहे हैं. हिंदुस्तान को सभ्य बनाने की अंग्रेजों की मुहिम की मदद करना वह अपना पवित्र कर्तव्य समझते थे. उनका दृढ़ विश्वास था कि अगर अंग्रेज यहाँ न आए होते तो नैनीताल की सड़कें इतनी साफ-सुथरी नहीं होतीं. यहाँ के लोग पाँकड़, बाँज के पेड़ों और घिंगारू-किलमोड़े की झाड़ियों से ही घिरे होते और उन्हीं के बीज बटोर कर आज लंगूरों की तरह खा रहे होते. ये साइप्रस, चिनार, चेस्टनट, मैग्नोलिया वगैरह के खूबसूरत पेड़ों को अंगरेज ही तो इस मुल्क में लाए, जिनकी वजह से सारी दुनिया नैनीताल को जानती है और हजारों लोग बिना बुलाए यहाँ आते हैं.

तो, हमारे चिलम सौज्यू दिन की पहली चिलम भर कर, हाथ में हंटर लिए और किसी अंगरेज़ साहब की बख्शीस में दी गई बिरजिस पहने मालरोड में आ जाते और ‘लंच’ के वक्त को छोड़कर लगभग पूरे दिन एक स्वामिभक्त घोड़े की तरह मालरोड का चक्कर लगाते रहते. किसी की मजाल कि उनकी देखा-देखी सड़क पर थूक दे, नाक सिनक दे या कागज़ का छोटा-सा टुकड़ा तक फैंक दे. अगर गंदगी फैलाने वाला उनको दिखाई दे जाता और अगर वह कुली या मजदूर होता तो तत्काल उसकी पीठ पर हंटर पड़ जाता और भले ही वह लाख माफी माँगता, हंटर की बरसात जारी रहती. अगर वह साफ-सुथरे कपड़ों वाला कोई मध्यवर्गीय हिंदुस्तानी होता तो वह अपना हंटर सड़क पर चटकाने लगते और उनका सड़क की सफाई को लेकर बहु-प्रतीक्षित भाषण शुरू हो जाता. उस आदमी को वह अपने हंटर से छूते तो नहीं, मगर उसके पीछे-पीछे तेजी से चलते हुए वह अपनी वाणी के हंटर तब तक फटकारते रहते, जब तक कि वह माल रोड के मल्लीताल या तल्लीताल वाले छोर तक नहीं पहुँच जाता. इसके बाद उनका ‘इलाका’ खत्म हो जाता था, इसलिए वे बड़बड़ाते हुए माल रोड की ओर लौट आते. सरकार उन्हें इस काम के लिए कोई वेतन या पारिश्रमिक नहीं देती थी.

अपने भाषणों के बीच वे इस बात का संकेत भी करते कि अगर सरकार बहादुर उनको पैसा देती, तो भी वे उसे नहीं स्वीकार करते, क्योंकि यह सब वह अपनी जन्मभूमि की स्वच्छता के लिए कर रहे थे…. और माँ की मदद करना, उस पर किसी तरह का अहसान करना नहीं होता.

सचमुच उनके अभियान का असर पड़ा और नैनीताल के सड़कें साफ-सुथरी रहने लगीं. हवा-पानी आदि प्राकृतिक कारणों से जो कूड़ा एकत्र होता, उसे नगर पालिका के सफाई कर्मचारी फौरन साफ कर देते, इस तत्परता के पीछे भी चिलम सौज्यू का अभियान प्रेरक होता. आजादी के बाद के करीब दो दशकों तक चिलम सौज्यू का यह अभियान पूरी तत्परता के साथ चलता रहा. साठ के दशक के अंतिम वर्षों में किसी उजड्ड छोकरे को डाँटते हुए जब उसने उद्धत ढंग से चिलम शौज्यू से कह दिया, ‘अबे बुड्ढे, यह सड़क तेरे बाप की है ?’ वे अपने भाषण के बीच में ही हकलाने लगे और भूल गए कि वे क्या कह रहे थे. जैसे स्वाभाविक गति से चलते हुए टेप की आवाज, बिजली के एकाएक गुल हो जाने से बंद हो जाती है, उनकी वाणी उस दिन ठप पड़ गई. उसके बाद उनकी आवाज़ फिर कभी लौट कर नहीं आ पाई. उस दिन के बाद माल रोड पर उन्हें तभी देखा गया, जब उनकी अरथी निकली.

चिलम सौज्यू के परिजनों ने बताया कि मरने से पहले बेहोशी की-सी हालत में वे बड़बड़ा रहे थे, ‘सड़क किसी के बाप की नहीं होती भाऊ… मुझे मालूम है कि उस पर सबका बराबर का हक होता है. मगर भाऊ, एक जिम्मेदार नागरिक की यह ड्यूटी है कि वह अपने घर को साफ सुथरा रखे. अपने शहर को गंदा न होने दे. सड़क को गंदा रखोगे तो उसी गंदगी से एक दिन तुम्हारा दम घुट जाएगा और तुम कोयले के धुँए से भरी बंद कोठरी के अंदर छटपटाते आदमी की तरह दम तोड़ दोगे. अरे भाऊ, तुम क्या जानो कि 1896 में जब नैनीताल में हैजा फैला था, तब पूरी दुनिया यह देखकर डर से काँप उठी थी कि चीड़, बाँज और देवदार की हवा के बीच यह महामारी फैल कैसे गई. वो तो 1885 में लैफ्टिनैंट गवर्नर सर ऐंथनी मैकडोनल साहब का अवतार हो गया था नैनीताल में, जिन्होंने बचा लिया हमारे शहर को; वरना घूमते तुम इस माल रोड पर इतनी आज़ादी के साथ और अपने दादा की उमर के बुजुर्ग के ऐसे मुँह लगते.

मृत्यु के समय चिलम सौज्यू की उम्र अस्सी साल की थी; लोगों का कहना था, अगर वह बदतमीज छोकरा उनके मुँह नहीं लगता तो वे कम-से-कम दस-पाँच साल और माल रोड में उसी दमखम के साथ घूमते रहते. अब तो कोई यह भी नहीं जानता कि उनकी वह चिलम, हंटर और बिरजिस कहाँ पड़े हैं ? नैनीताल के लोगों को तो यह भी नहीं मालूम कि चिलम सौज्यू कहाँ पर रहते थे और उनके वंश में अब कौन बचा है ? मरने के बाद भी वह जैसे अपनी देह से मुक्त नहीं हो सके हैं, तभी तो वे स्टेट बैंक वाले चैराहे पर आज भी दुबके हुए हैं. आज भी वो जमीन के अंदर से टुकुर-टुकुर नैनीताल में फैल चुके सीमैंट के जंगल को अचरज से देख रहे होते हैं और उनकी समझ में नहीं आता कि वे क्या करें?

फ़ोटो: मृगेश पाण्डे

 

लक्ष्मण सिह बिष्ट ‘बटरोही‘ हिन्दी के जाने-माने उपन्यासकार-कहानीकार हैं. कुमाऊँ विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष रह चुके बटरोही रामगढ़ स्थित महादेवी वर्मा सृजन पीठ के संस्थापक और भूतपूर्व निदेशक हैं. उनकी मुख्य कृतियों में ‘थोकदार किसी की नहीं सुनता’ ‘सड़क का भूगोल, ‘अनाथ मुहल्ले के ठुल दा’ और ‘महर ठाकुरों का गांव’ शामिल हैं.

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