Featured

द्वार पूजा का पर्व भी है फूलदेई

उत्तराखण्डियों का बालपर्व – फूलदेई

सनातनी संस्कृति में घर का द्वार केवल घर में प्रवेश करने का रास्ता न होकर वन्दनीय पूजनीय माना जाता है. घर बनाते समय द्वार की दिशा का निर्धारण वास्तुशास्त्र के अनुसार निर्धारित करने का विधान है. ’’घर द्वार से बैठना, द्वार का सत रखना, द्वार पर आये को खाली हाथ न लौटाना’’ जैसी उक्तियां घर के द्वार की महत्ता को स्वयं उद्घाटित करती हैं. नया घर बना हो अथवा घर में पोताई ही क्यों न की हो, द्वार पर स्वस्तिक का चिन्ह बनाकर शुभ की कामना की जाती है. पहाड़ तथा पहाड़ से इतर यहां तक कि आदिवासी लोगो में भी घर के द्वार पर रंगोली की परम्परा वर्षों से चली आ रही है. (Children’s Festival Phooldei Uttarakhand)

उत्तराखण्डी समाज में फूलदेई भी एक ऐसा ही द्वार पूजा पर्व है, जो चैत्र माह की संक्रान्ति को द्वारपूजा के साथ प्रारम्भ होता है. गढ़वाल क्षेत्र में तो यह पूरे माह चलता है और विषुवत् संक्रान्ति को इसका समापन होता है. जब कि कुमाऊं में सांकेतिक रूप से केवल संक्रान्ति के दिन ही मनाने की परम्परा है. चैत्र माह हिन्दू संवत्सर के अनुसार प्रथम माह है, जब सूर्य का मेष राशि में संक्रमण होता है. यह समय है जब पहाड़ों में कड़ाके की ठण्ड से राहत के साथ ही पतझड़ के बाद वनस्पतियों पर पुनः बहार आने लगती हैं. पहाड़ में खिलने वाले प्योली, बुरांश, सरसों, आड़ू, खुबानी आदि के फूल प्रकृति को मनोहारी परिवेश में आच्छादित कर अपनी छटा बिखेरने लगते हैं. प्योली और बुरांश तो यों भी उत्तराखण्डी लोकसंस्कृति, लोकगीतों में खूब रचा बसा है. इसी बासन्ती फिजा में त्योहार मनाया जाता है — फूलदेई.

फूलदेई की पहली शाम को ही छोटे-छोटे बच्चे अपनी बांस की टोकरी में प्योली, बुंराश, सरसों, आड़ू, खुबानी आदि जो भी फूल उपलब्ध होते हैं, इकट्ठा कर लेते हैं. संक्रान्ति के दिन बच्चे बड़े उत्साह से सुबह-सुबह अपने घर की क्षर पूजा के बाद समूह में इकट्ठा होकर हर घर के दरवाजे पर टोकरी में जमा फूलों से द्वार पूजा कर घर की सुख, समृद्धि की कामना करते हुए बार-बार इस खुशी के पल के आने का आशीर्वाद देते हैं. वस्तुतः यही ऐसा त्योहार है, जब बुजुर्गों के बजाय भगवान का स्वरूप माने जाने वाले बच्चे कुछ इस तरह गाकर आशीर्वाद देते हैं –

फूल देई, छम्मा देई
दैंणा द्वार, भर भकार
यौ देई सौं बारम्बार नमस्कार

इसके अतिरिक्त लोकजीवन में इस गीत के आगे के बोल अन्य तरह से भी गाये जाते हैं. कामना की जाती है कि ये फूल देहरी के लिए शुभ हों, क्षमाशील हों, घर में अनुकूलता आये तथा अन्नादि के भण्डार भरे रहें हैं. गृह स्वामी अथवा गृहस्वामिनी दरवाजे पर स्वागत हेतु खड़े रहते हैं तथा देली पर पुष्प पूजा किये जाने के बाद बच्चों को चावल, गुड़ तथा पैसे आदि भेंट स्वरूप देकर खुशी खुशी विदा करते हैं. बच्चों के छोटे भाई बहिन जो अभी आ पाने में समर्थ नहीं हैं, उनके नाम की टोकरी भी अलग बनाकर उनके भाई-बहिन लाते हैं. इस प्रकार पूरे गांव का चक्कर काटने के बाद जब ये घर पहुंचते हैं तो एकत्रित चावल व गुड़ से ’सै’ बनाई जाती है. ’सै’ बनाने के लिए चावलों को भिगाकर सिलबट्टे पर पीसा जाता है और गुड़ मिलाकर घी में हलवे की तरह काफी देर तक भूना जाता है जब तक कि इनका पानी सूख न जाय. यह पहाड़ का एक लजीज पकवान है.

फूलदेई मनाने के पीछे पौराणिक आख्यान है कि एक बार भगवान शिव लम्बे समय तक घोर तपस्या में लीन हो गये तो ऋतुचक्र गड़बड़ा गया. लोग भगवान शिव के ध्यान को भंग करने का साहस नहीं जुटा पाये. अन्त में मां पार्वती को एक युक्ति सूझी. उन्होंने भगवान शिव के सभी गणों से प्योली के फूल तोड़ लाने को कहा और भगवान शिव कुपित न हों इसलिए गणों को बच्चों के वेश में पीताम्बरी ओढ़ाकर भगवान शिव की आराधना करने को कहा. बच्चों के रूप में गणों ने भगवान शिव पर पुष्प करते हुए आराधना की, भगवान शिव की तन्द्रा टूटी. इस पर गणों ने छम्मा देई (हमें क्षमा कर दें) कहकर उनसे याचना की. मान्यता है कि तभी से यह परम्परा चल पड़ी. फुलदेई की फुल्यारी बसंत के रंग

हमारे फेसबुक पेज को लाइक करें: Kafal Tree Online

भवाली में रहने वाले भुवन चन्द्र पन्त ने वर्ष 2014 तक नैनीताल के भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय में 34 वर्षों तक सेवा दी है. आकाशवाणी के विभिन्न केन्द्रों से उनकी कवितायें प्रसारित हो चुकी हैं.

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Sudhir Kumar

Recent Posts

हमारे कारवां का मंजिलों को इंतज़ार है : हिमांक और क्वथनांक के बीच

मौत हमारे आस-पास मंडरा रही थी. वह किसी को भी दबोच सकती थी. यहां आज…

2 days ago

अंग्रेजों के जमाने में नैनीताल की गर्मियाँ और हल्द्वानी की सर्दियाँ

(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में आज से कोई 120…

6 days ago

पिथौरागढ़ के कर्नल रजनीश जोशी ने हिमालयन पर्वतारोहण संस्थान, दार्जिलिंग के प्राचार्य का कार्यभार संभाला

उत्तराखंड के सीमान्त जिले पिथौरागढ़ के छोटे से गाँव बुंगाछीना के कर्नल रजनीश जोशी ने…

6 days ago

1886 की गर्मियों में बरेली से नैनीताल की यात्रा: खेतों से स्वर्ग तक

(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में…

1 week ago

बहुत कठिन है डगर पनघट की

पिछली कड़ी : साधो ! देखो ये जग बौराना इस बीच मेरे भी ट्रांसफर होते…

1 week ago

गढ़वाल-कुमाऊं के रिश्तों में मिठास घोलती उत्तराखंडी फिल्म ‘गढ़-कुमौं’

आपने उत्तराखण्ड में बनी कितनी फिल्में देखी हैं या आप कुमाऊँ-गढ़वाल की कितनी फिल्मों के…

1 week ago