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बचपन की छवियाँ

इजा कहती हैं कि मैं जब पेट में था तो कभी स्थिर नहीं रहा. जब मैं नौ महीने बीत जाने पर भी पैदा नहीं हुआ तो घर में घबराहट शुरू हो गई. पिता जी कहा करते थे कि इस बार भागा की मतारी का बचना मुश्किल ही है. लेकिन मैं हुआ 11वें महीने में और माँ भी बच गई. अब भी इजा कहती है, इस बैरी ने पेट से ही दुःख दिया. दो और चार वर्ष की अवस्था में मैं, बुरी तरह से जला लेकिन बच गया. आठवें साल में पिताजी नहीं रहे. इसलिये माँ ने यह आसान-सा फॉर्मूला निकाल लिया था कि दो के गुणक वाले साल मेरे लिये खतरनाक हैं. मैं कहता था-सोलह तक कहीं तुम न चल बसना. (Childhood Memoirs of Govind Singh)

सौगाँव जिस गाँव में मैंने जन्म लिया, वह सौगाँव है. यदि आप किसी और इलाके से आ रहे हों तो दूर से ही आपको पता चल जाएगा कि यह कोई अजब गाँव है. यहाँ लोग आपको हमेशा काम करते दिखाई देंगे. हर आदमी के अन्दर एक आग धधक रही होती है. खुद आगे बढ़ने की और दूसरे की टाँग खींचने की. एक गलाकाट प्रतिस्पर्धा, कहीं लोगों में लड़ाई-झगड़ा हो रहा होता है तो कहीं कोई गाली-गलौज कर रहा होता है. खेतों में लोग साँप के पीछे दौड़ते हुए नजर आएँगे. हमारा गाँव गरम इलाके में बसा है. चारों तरफ से पहाड़ और बीच में घाटी. तब पूरा गाँव एक ही नौले पर निर्भर था. पानी स्वादिष्ट था लेकिन गर्मियों में कम हो जाया करता. तब यह सिर्फ पीने के लिये इस्तेमाल होता. बाकी कामों के लिये तड़केश्वरी नदी थी. चौथी कक्षा में हमें अपने जिले का नक्शा बनाना पड़ता था. तब तक इसका नाम जिले की नदियों में नहीं था. लेकिन जब मैं आठवीं में पहुँचा, इसका नामकरण हो चला था. यह तेज आवाज के साथ बहती. इसके किनारे गाँव का घट था. लोग यहाँ गेहूँ पीसते. इसके भीतर अक्सर साँप निकल आता था.

गाँव में केले के पेड़ बेतहाशा थे. कुछ आम के भी. अब लोगों ने ज्यादा अनाज उपजाने के लालच में पेड़ों का सफाया कर दिया है. धरती उपजाऊ है. पानी न लगते हुए भी पैदावार अच्छी होती है. लोगों को जमीन से बेहद लगाव है. बचपन में हमने देखा कि वे एक-एक इंच जमीन के लिये मरने-मारने पर उतारू हो जाते थे. लेकिन अब स्थिति बदल रही है. हालांकि एक नहर भी गाँव तक आ पहुँची है लेकिन पलायन इतना ज्यादा हो रहा है कि खेती के लिये लोग बचे नहीं. हमारे गाँव से तो फिर भी कम लोग गए, पास के तड़खेत और चिटगालगाँव तो पूरे खाली हो गए.

यहाँ कन्या प्राइमरी पाठशाला तब शुरू हुई थी, जब मैं पाँच साल का था. इससे पहले नदी के उस पार भिटगाड़ा अर्थात तड़खेत और चिटगालगाँव के बीच में एक प्राइमरी स्कूल था, जो अब भी है. इस स्कूल में सौगाँव, तड़खेत, चिटगालगाँव और कांडा तक से बच्चे पढ़ने आते थे. एक ही अध्यापक तड़खेत के चन्द्रकान्त जोशी थे, जिन्हें लोग चनिया मास्टर कहा करते थे. ज्यादातर बच्चे उनकी मार के भय से तीसरी-चौथी तक ही भाग खड़े होते थे. उनका मारने का तरीका भी इतना भयावह था कि सजा पाने वाले से ज्यादा डर, देखने वाले को लग जाए. मैं भी कुछ दिन इस स्कूल में गया. एक बार मैंने चनिया मास्टर को पाँचवी क्लास के बच्चों को मारते हुए देखा. उस क्लास में हिरदा अर्थात मेरे सबसे बड़े ताऊजी के सुपुत्र हीरा सिंह, होशियार यानी ददा का मिज्यू और ददा थे. पहले हिरदा से पूछा गया, वह नहीं बता पाया तो बहुत मार पड़ी. फिर होशियार का नम्बर आया. वह तो और भी भोथरा साबित हुआ. मास्टर साहब ने उसके गाल को पकड़ा और उठाकर घुमा दिया. उसका गाल इतना लाल हो गया कि खून आने को ही बचा था. फिर ददा का नम्बर आया और ददा से भी कुछ गलती हो गई, लिहाजा उसे भी कान से पकड़कर घुमा दिया. मैं बाहर एक कोने से चुपचाप यह दृश्य देख रहा था और अन्दर ही अन्दर हिल गया था. जब मास्टर मेरे भाई का कान पकड़कर घुमा रहा था, मैं अन्दर ही अन्दर उबल रहा था और चनिया मास्टर को हजारों गालियाँ दे रहा था. ऐसा था वह स्कूल. लेकिन लोग कहते हैं कि चनिया मास्टर के सिखाए हुए बच्चे जिन्दगी में कभी फेल नहीं हो सकते. कम-से-कम गणित का उन्हें कीड़ा माना जाता था. हालांकि वह सिर्फ मिडिल पास थे.

हमारे गाँव का ज्ञात इतिहास पाँच सौ साल से पुराना नहीं है. कहते हैं, यहाँ पहले सौ यानी साह लोग रहते थे. इसीलिये इसका नाम सौगाँव पड़ा. वे लोग कहाँ चले गये, क्यों चले गये, इसका कुछ पता नहीं. हमारे पूर्वज यहाँ कैसे आ गये, यह भी एक दिलचस्प कहानी है.

धन सिंह ताऊजी बताया करते थे कि हम खोलिया लोग गरुड़ घाटी में बासुली सेरा के मूल निवासी थे. वहाँ से वे कब सीरा की तरफ कूच कर गए, पता नहीं. मुझे लगता है, जब चन्द राजाओं ने कत्यूरी राजाओं को हराया होगा, तब कत्यूरियों के साथ-साथ उनकी प्रजा भी सघन वन प्रान्तरों की ओर भागी होगी. तभी वे पिथौरागढ़ की सीरा पट्टी में पहुँचे. यहाँ चर्मा पुल के ऊपर खोली गाँव है. पानी प्रचुरता में है. वहीं बसे खोलियाओं के पूर्वज. पता नहीं खोली से खोलिया बना या खोलिया से खोली. लेकिन सीराकोट में मलयनाथ के मन्दिर में जो गेट है, उस पर खोलिया द्वार अंकित है. एक बार वहाँ के एक पुजारी ने मुझे बताया कि खोलिया मलयनाथ के द्वारपाल थे. यह एक तरह का कर्मसूचक नाम है, जिसका मतलब है, कपाट खोलने वाला. खोलिया मलयनाथ के साथ छेला यानी गोल पत्थर से खेला करते थे, यह भाग पीढ़ियों से चली आ रही है.

कहते हैं कि खोली में बूढ़े खोलिया के चार बेटे थे. उनमें से सबसे छोटे का नाम पुटकिया था. वह कुछ-कुछ लाटा था. अड्याट-गड्याट. बूढ़ा और उसके तीनों बड़े लड़के उसे नहीं चाहते थे. उसे हमेशा डंगर चराने जंगल भेज दिया जाता. जंगल भी भयानक था. एक तरफ लोडी का घासी पातल तो दूसरी तरफ चिरकटडा का धूरा. बांज-बुरांस के घने जंगल. दोनों ही तरफ बाघ-भालू थे. हमेशा बाघ के खा जाने का भय सताता रहता. लेकिन खोलिया परिवार को इसकी तनिक भी परवाह नहीं थी कि पुटकिया को बाघ खा जाएगा. उनकी बला से. लाटा-काला तो है ही, बाघ खा भी जाएगा तो कोई बात नहीं, जमीन का एक हिस्सा बच ही जाएगा. पिता और भाइयों के इस व्यवहार को देखकर एक दिन पुटकिया ने घर से भाग जाने का फैसला किया. चलते-चलते वह जौराशी पहुँचा और वहाँ से नीचे उतरा तो पहुँचा तड़खेत. तड़केश्वरी नदी के तट पर बसा सुन्दर-सा गाँव बेहद उपजाऊ. यहाँ बयाल नाम के एक ब्राह्मण का राज था. बयाल के पास कई गाँव थे- तड़खेत, सौगाँव, चिटगालगाँव, अगडाखन, कन्यूरा, खांकर, भाटिगाँव, पतलिया और कांडा. इनमें से तड़खेत और चिटगालगाँव में उसके अपने लोग थे, बाकी गाँवों में खेती होती थी.

पुटकिया की कदकाठी अच्छी थी. लिहाजा उसे बयाल ने अपना हलिया रख लिया. पुटकिया बयाल के खेतों में रात-दिन मेहनत करता. बदले में दो वक्त की रोटी और बयाल परिवार का स्नेह पाता था. उसने कभी बयाल के काम को नौकरी नहीं समझा. बयाल ने भी उसे कभी नौकर नहीं समझा. परिवार के एक सम्मानित सदस्य की तरह ही वह रहता.

एक दिन पुटकिया खेत में हल चला रहा था. बयाल के दो छोटे लड़के खाना लेकर आया करते थे. उस दिन लड़कों को शरारत सूझी. आज पुटकिया को खाना नहीं पहुँचाते हैं, देखें पुटकिया क्या करता है. एकाध बार पहले भी वे ऐसा कर चुके थे. पुटकिया लाटा था. छोटी-मोटी बात का बुरा नहीं मानता था. शाम को लड़के प्रकट हुए और हँसने लगे. पुटकिया तो पहले से ही भरा हुआ था, उसने डलौटे (मिट्टी के ढेले बराबर करने वाला यंत्र) से अपने ही सिर पर दे मारा. लड़के घर की तरफ दौड़ पड़े. घर जाते ही उन्होंने माँ को यह घटना बताई. बौराणज्यू घबराईं. पुटकिया ने यह क्या कर दिया. बयालज्यू के पास गईं. माँ-बाप ने उन्हें बहुत डाँटा. सारे लोग खेत की तरफ दौड़ पड़े. पुटकिया खेत के किनारे बैठा है. उसका मुँह स्याह पड़ गया था और आँखे लाल. बयाल ने बच्चों की तरफ से माफी माँगी. सफाई दी कि बच्चे सिर्फ मजाक कर रहे थे. पुटकिया बोला, बहुत हुआ, अब मैं चला अपने घर. बौराणज्यू ने बहुत अनुनय-विनय की लेकिन वह नहीं माना. कहा गया कि सामने का खांकर और कन्यूरा का गाँव देते हैं. पुटकिया नहीं माना. पुटकिया ने कहा, कन्यूरा कौन रहेगा, वहाँ तो बाघ खा जाएगा. फिर प्रस्ताव रखा गया कि कांडा चला जा. बड़ा गाँव है, कोई कमी नहीं है. पुटकिया फिर नहीं माना. कौन जाए कांडा, इतनी ऊँचाई में. वहाँ हौलिया बाग लगता है. बयाल नाराज हो गया. कैसा आदमी है, इतना बड़ा गाँव मुफ्त में दे रहा हूँ. उसे दो दिन तक जेल में रखा. लेकिन पुटकिया नहीं माना. महा हठी था. फिर उसे सौगाँव की थात देने की पेशकश की गई. पुटकिया मान गया.

लेखक गोविंद सिंह के बचपन की तस्वीर

वह सौगाँव पहुँचा. दो दिन रहा, फिर डर गया. वहाँ से गया जमतड़. वहाँ मौर यानी महर लोग रहते थे. जमतड़ के मौरों से उसकी बचपन की जान-पहचान थी. मौर के एक बेटे से उसने कहा, तू मेरे साथ चल. पूरा गाँव है, चार हिस्से करेंगे. तीन मेरे, एक तेरा. भाइयों की तरह रहेंगे. अकेले मुझे डर लग रहा है. मौर का बेटा मान गया. इस तरह से एक सौगाँव में दो जातियों के लोग रहने लगे. आधे घर खोलियों के हैं और आधे मौरों के. हालांकि गाँव पर वर्चस्व खोलियों का ही है. दोनों जातियों के आपस में शादियाँ भी हो जाती हैं. रिश्तेदारी है. दोनों में बड़ा स्नेह है. गाँव में कुल 60-70 मवासी रहते होंगे. आबादी होगी 400 के आस-पास पुटकिया खोलिया की छठी-सातवीं पीढ़ी में मेरे दादा जी थे.

पिताजी

मेरे पिता चंचल सिंह अपने चार भाइयों में दूसरे थे. चारों भाइयों में पढ़ाई-लिखाई का संस्कार नहीं था. अलबत्ता पिताजी के ताऊजी के लड़कों में जरूर दो भाई अपर यानी प्राइमरी स्कूल तक गए थे. पिताजी और चाचाजी को अआ-बारह खड़ी और गिनती वगैरह आती थी. अपना नाम लिख लिया करते थे. फौज में कुछ पढ़ाई-लिखाई सीख ली थी. पिताजी शान्त स्वभाव के थे. 18 साल की उम्र में उनकी शादी हुई और शादी के तीसरे दिन ही वह अपने ताऊ जी के लड़के बड़े भाई डिगर सिंह के साथ फौज में भर्ती होने के लिये घर से भाग खड़े हुए. सात दिन पैदल चलकर काठगोदाम पहुँचे और फिर लखनऊ. यह शायद 1935 की बात होगी. वह किस रेजीमेंट में भर्ती हुए, मुझे पता नहीं. वहाँ से बर्मा पहुँचे. साल भर तक उनकी चिट्ठी-पत्री आती रही लेकिन जल्दी ही दूसरी बड़ी लड़ाई छिड़ गई. वह लापता हो गए. जबकि ताऊ डिगर सिंह की पलटन सिंगापुर पहुँची और रास बिहारी बोस के आह्वान पर आजाद हिन्द फौज में शामिल हो गई. लेकिन पिताजी वाली पलटन शायद शुरू में ही दुश्मन के हत्थे चढ़ गई. इसलिये उनका कुछ पता ही नहीं चला. दो-तीन साल बाद घर में चिट्ठी आई कि चंचल सिंह का कोई अता-पता नहीं है. वह लगभग 12 साल तक लापता रहे.

माँ

माँ कुन्ती देवी की कहानी भी बड़ी मजेदार है. वह जोगा सिंह और दुर्गा देवी की सबसे बड़ी सन्तान थीं. पिताजी प्रधान थे. अलग ही रुतबा था. थोड़ी समझदारी भी थी. कुछ ज्ञान की बातें भी करते थे. लेकिन उनकी माँ अर्थात मेरी नानी दुर्गा देवी सचमुच देवी थीं. अत्यधिक धार्मिक. जवानी में आँखे जाती रही थीं, लेकिन वह अपना काम खुद करती थीं. अद्भुत भक्त थीं. चाय भी सैकड़ों देवी-देवताओं को पहले चढ़ातीं, तब खुद पीतीं. ऊँ अगिनबत्ते स्वाहा, ऊँ गंगनाथज्यू स्वाहा, ऊँ मलेनाथ देवा स्वाहा आदि-आदि. तब तक चाय ठंडी हो चुकी होती. लेकिन उन्हें क्या. इसी तरह खाना खाने से पहले उनका अग्निपूजन चलता रहता था. लोग कहते हैं कि यदि आज कुन्ती के बेटे फल-फूल रहे हैं तो यह बुढ़िया का ही प्रसाद है. लेकिन सवाल यह भी है कि फल सिर्फ हमीं को क्यों मिला? बाकी दोनों मौसियों ने घनघोर कष्ट झेले. उन्हें ईश्वर ने कोई रियायत नहीं दी.

इजा जब तीन महीने की थी, तभी उनके ऊपर संकट के बादल मंडराने लगे थे. उनके पड़ोस में एक अनुलि बौला थी, जो उनकी बुआ लगती थी. यह बुआ अत्यन्त जलभुंडी थी. तो एक दिन उसने बालिका कुन्ती को ठिकाने लगाने की योजना बनाई. जब दिन में लोग अपने-अपने काम से खेतों या जंगलों में गये हुए थे, तभी अनुलि बौला ने कुन्ती को गोद में लिया और गई एक पहाड़ी के ऊपर. उस ढलान में पहुँचकर वह बच्ची को गिराने के लिये सही जगह की तलाश कर ही रही थी कि इतनें में उसकी हरकतों पर एक औरत की निगाह पड़ गई. उसने जोर से आवाज लगाई कि अनुली! अनुली, तू वहाँ क्या कर रही है, तेरी गोद में यह रोता बच्चा कौन है? अनुली बच्ची को वहीं छोड़ घर की ओर भागी. इस तरह कुन्ती देवी की जान बची.

घर की सबसे बड़ी सन्तान होने के कारण इजा की परवरिश अच्छी हुई. घर में धार्मिक माहौल था. माता-पिता दोनों संस्कारी थे. लिहाजा घर में साधु-सन्तों, पंडितों का आना-जाना लगा रहता था. देश में आजादी के आन्दोलन की लहर चली तो गाँव-गाँव में स्वयंसेवक लोग आने लगे. वे आजादी के प्रति जागकरुकता के साथ शिक्षा का उजियारा भी फैलाते थे. एक शिक्षक ने गाँव के तमाम बच्चों-बूढ़ों को पढ़ाना-लिखाना शुरू किया. स्वर-व्यंजन, गिनती, गुणा-भाग सिखाया. नाम लिखना सिखाया. साथ ही सिखाए आजादी के तराने. ‘झंडा ऊँचा रहे हमारा, विजयी विश्व तिरंगा प्यारा’ जैसे गीत इजा ने तेजी से रट लिये थे, जिन्हें वह अब भी गुनगुनाती रहती है.

नाना जी की तीन बेटियाँ थीं. बेटे का मुँह देखने को आँखें तरस गई थीं. पधान थे लेकिन बेटा न था. आगे क्या होगा, इसका गम उन्हें सताने लगा. नानी ने कहा, गम मत करो भले ही दूसरी शादी कर लो. नाना तो शायद इसी की ताक में थे. उन्होंने दूसरी शादी कर ली. दूसरी पत्नी की उम्र इजा से पाँच साल ही अधिक थी. इजा कहती है, शादी के दिन उन्हें जबरन घर के भीतर रोककर रखा गया था ताकि बेटी अपने पिता की शादी देखकर अपशकुन न कर दे. लेकिन बेटी थी कि पिता की नवोढा को देखने को मचल रही थी. तमाम बन्दिशों के बावजूद इजा ने छज्जे से अपने पिता की शादी देख ही ली. परिवार में माहौल बदला. सौतों के बीच तनाव भी होने लगा. नवोढा की कोख भरने से पहले ही नानी गर्भवती हो गईं और उनके भी पुत्र हुआ. बाद में दूसरी पत्नी से भी एक बेटा हुआ.

कहानी लछिमा कैंजा की

कैंजा दूसरे नम्बर की थी. उसकी परवरिश कुछ उपेक्षा के साथ हुई थी. नाम था लछिमाँ इजा कहती हैं, वह मूरख थी, लाटी जैसी. मुझे वह बेहद खूबसूरत लगती थी. उसकी नाक विशुद्ध पहाड़ी थी. वह भोली थीं, लेकिन उनमें ममता भरी हुई थी. जब मैंने कैंजा को देखा, वह बेहद उदास रहती थी. उसके चेहरे पर रस की कमी खलती थी. वह मुझे हमेशा गोद में ही लिये रहती. उसे मैंने अक्सर इजा से यह कहते सुना था कि गोपू को मुझे दे दे.

मौसी की शादी झलीमा नामक गाँव में हुई. उसका पति प्रताप सिंह बेहद खूबसूरत था. लम्बा-चौड़ा, हट्टा-कट्टा जवान. वह समय रहते फौज में भर्ती हुआ. कैंजा से उसकी शादी तो हो गई थी, लेकिन उसने कभी कैंजा को नहीं अपनाया. हमेशा मारपीट ही करता रहा. कैंजा को कभी पुरुष का प्यार नहीं मिला. वह फौज से घर आता और कैंजा को मारपीट कर भगा देता. कैंजा के सास-ससुर भी ऐसा ही करने लगे. प्रताप सिंह की दूसरी शादी कर दी. घर में सौत के आने के बावजूद कैंजा ने बुरा नहीं माना. कहती कि नौकरानी बना के रखो, लेकिन में रहूँगी यहीं. लेकिन प्रताप सिंह और उनके माँ-बाप कैंजा को मारपीट कर भगा देते. अन्त में कैंजा को मायके लौट आना पड़ता. एक बार तो उन्होंने कैंजा के सारे अच्छे कपड़े, जेवर आदि छीनकर मायके लौटा दिया. जब प्रताप सिंह हवलदार फौज से रिटायर होकर पेंशन लेकर घर आ गया तो कैंजा ने एक बार और सुलह की कोशिश की लेकिन इस बार भी उन्हें पति के घर से दुत्कार ही मिली. बाद में कांसबाबू यानी मौसा जी ने जौराशी में दुकान खोल ली थी.

एक बार जौराशी में मेला लगा था. रात का, यानी बासा. मैं अपनी कैंजा के साथ मेला देखने गया हुआ था. मेरी उम्र मुश्किल से छह साल की रही होगी. अक्टूबर का महीना रहा होगा. जौराशी काफी ऊँचाई पर है. बांज और देवदार के पेड़ हैं, लिहाजा वहाँ रात को हल्की गुनगुनी ठंड पड़ने लगी थी. लीमा के लोगों ने एक जगह घेर रखी थी, सभी उसी जगह पर बैठे होते. क्या औरतें, क्या मर्द, कैंजा पर तरह-तरह के ताने कसते कि हौल्दारनी, तेरे पति की तो इतनी बड़ी दुकान है, तू हमारे बीच क्यों बैठी है? आदि, आदि. कैंजा एक फीकी-सी मुस्कान फेंक देती. लेकिन उनका तन-मन सारा उसी तरफ लगा रहता, जिस तरफ उनके पति की दुकान थी. कैंजा की गाँठ में मुश्किल से एकाध रुपया रहा होगा, जिसमें से कुछ पैसों की नारंगी टॉफियाँ वह मुझे दिला चुकी थी. रात के दूसरे पहर कैंजा ने हिम्मत बटोरी और कांसबाबू की दुकान के पास ले जाकर मुझे छोड़ते हुए बोली, जा बेटा जा, वह रही तेरे कांसबाबू की दुकान. वह मूँछों वाला तेरा कांसबाबू है. जा अपने कांसबाबू की दुकान पर जा. कहना, कैंजा वहाँ पर बैठी है. तुझे देखते ही वह पहचान जाएँगे. वह तुझे ग्वाला-मिसरी देंगे. जुलपी देंगे. ले आना मेरे लिये भी. मैं कांसबाबू की दुकान पर गया और मैंने कहा कि कैंजा वहाँ पर बैठी है. उस अबोधावस्था में भी निश्चित रूप से मैं यह जान गया था कि कांसबाबू ने मुझे पहचान लिया था. लेकिन उन्होंने मुझे ऐसा भगा दिया, जैसे मैं कोई भिखारी हूँ.

प्रताड़ित होते हुए भी उनके मन में अपने पति के लिये कोई दुर्भाव नहीं था. सौत के बेटे-बेटियों को वह अपना ही समझती. सौत का एक बेटा था- नारायण. वह मेरा हम-उम्र था. जब मैं नौवीं में था तो एक बार मैं झलीमा की धार से होते हुए जौराशी जा रहा था, जहाँ से मुझे कनालीछीना जाना था. झलीमा की धार में अक्सर वहाँ के बच्चे अपनी गाय-बकरियाँ चराने आया करते थे. मैंने वहीं से आवाज लगाई- कैंजा-कैंजा. लीमा के अपने खेत में काम कर रही कैंजा ने समझा कि हो न हो यह नारायण ही होगा. वह जैसे फूल के कुप्पा हो गई. बोली, इजा आज तुझे कैसे आ गई मेरी याद? मैं बोलता रहा कि मैं गोविन्द हूँ, नारायण नहीं, लेकिन कैंजा अपने सपने से बाहर आना ही नहीं चाहती थी. वह बार-बार कहती रही कि नारायण…. इजा तेरे पिताजी कैसे हैं, इजा कैसी है, बाकी भाई-बहन कैसे हैं. मैं उदास होकर आगे बढ़ गया.

एक बार कैंजा को पता चला कि प्रताप सिंह हवलदार की तबीयत काफी खराब रहने लगी है और अब सभी डॉक्टरों ने हाथ खड़े कर दिये हैं. ऐसे में कैंजा हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठे रह सकती थी. वह पंडित गोपाल दत्त के पास गई पाराकोट. पंडितजी ने सलाह दी कि यदि तुम गंगानाथ के मन्दिर में सात दिन सात रात तपस्या करो, सात गोदान करो तो तुम्हारा पति ठीक हो सकता है. कैंजा ने ऐसा ही करने की ठानी.

लीमा के पास जंगल में गंगानाथ का छोटा-सा मन्दिर है. आस-पास बांज के पेड़ हैं. सुरम्य स्थल है. कैंजा वहाँ पहुँची. आरती वाले दिये में तेल डाला, दीप जलाया और बैठ गई मन्दिर के द्वार पर. रात को यह स्थान एकदम वीरान हो जाया करता है. लोग बाघ-भालू के भय से बाहर नहीं निकलते लेकिन कैंजा तपस्या में बैठ गई. न खाना खाया, न पानी पिया. आग जलाई, दीप जलाया और बाबा गंगानाथ का स्मरण कर करने लगी तपस्या. एक दिन बीता, दूसरा दिन बीता. दिन में मायके के लोग आते, यह देखने की लक्षिमा बची हुई है कि नहीं. शाम होते-होते वे लक्षिमा से अनुरोध करते कि घर चल, लेकिन वह नहीं मानती. कहती, मैं मरूँ या जियूँ, यहीं रहूँगी अन्य गाँवों से भी लोग देखने आने लगे कि एक औरत गंगानाथ के मन्दिर में सात दिन के अखंड व्रत में बैठी है. आखिर कैसी है यह औरत? यहाँ तक कि झलीमा से भी लोग आए और कैंजा की भक्ति और शक्ति का गुणगान करके चले गये. इस तरह सात दिन तक इस वीरान मन्दिर पर कैंजा ने अखंड तपस्या की. अन्तिम दिन कैंजा ने अपने सबसे छोटे सौतेले भाई राम सिंह को जौराशी भेजा. सन्देश भेजा कि अपने जीजा से कहना, तुम्हारी पत्नी सात दिन से अखंड व्रत में बैठी है. आज आखिरी दिन सात गोदान किये जाने हैं, पंडित को देने के लिये कुछ दक्षिणा और कुछ प्रसाद की सामग्री लेते आना. राम सिंह दीदी का आदेश पाकर जौराशी पहुँचा. भीनाजी से सारी बात कही. हवलदार ने राम सिंह को डाँटा और माँ-बहन की गाली दी. गंगानाथ बाबा को भी गाली दी और कहा कि मैंने तेरी बहन को कब का छोड़ दिया, तुम लोग मेरा पीछा क्यों नहीं छोड़ रहे हो. कुछ ही दिन बाद लगभग 50-52 साल की उम्र में कैंजा की मृत्यु हो गई. कुछ अर्से बाद हवलदार का भी देहान्त हो गया. अब सुनते हैं कि कैंजा भूत बनकर अपने ससुराल वालों के घर चली गई है और वे सब लोग परेशान हैं. उन्हें उसकी पूजा करनी पड़ रही है.

दूसरी मौसी : भारती

भारती मौसी अपने भाई-बहनों में सबसे छोटी है, लेकिन जीवट में सबसे बड़ी. उनकी कोई बात निरर्थक नहीं होती. वह कभी किसी से फालतू नहीं बोलती.

जब वह आठ दस साल की रही होगी, अपनी बुआ के घर ढकाली गई हुई थी. वहाँ की लड़कियों के साथ वह अक्सर जंगल जाया करती- घास लकड़ी लाने. ऐसे ही एक दिन किसी गधेरे के किनारे चारा लेने गई हुई थी. शाम ढलने को थी. उनकी सहेलियाँ घर आने लगीं. वह कुछ पीछे रह गईं और इसी बीच उनके मन में कुछ डर बैठ गया. वहाँ से घर लौटते-लौटते वह बीमार पड़ गईं. बहुत तेज बुखार आने लगा. लोगों को लगा कि उसे भूत लग गया. बच्ची जंगल से लौटते हुए कुछ डर गई, इसलिये भूत का प्रकोप हो गया है. थोड़ी रखाली हो जाए तो भूत भाग जायेगा. एक पंडित जी को बुलाकर रखाली भी की गई लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला. किसी ने यह नहीं सोचा कि बच्ची को बुखार हुआ है, उसे भूत भगाने वाले की नहीं, दवा की जरूरत है. इस तरह महीने भर तक बच्ची बुखार में तपती रही लेकिन उसे सही इलाज नहीं मिला. अन्त में बुखार आँखों की रोशनी लेकर ही निकला. जब भारती ने आँखें खोलीं, तो उसके लिये सारा संसार अंधेरे के सिवा कुछ भी नहीं था. उनकी शादी नहीं हो पाई. एक अन्धी लड़की से पहाड़ में कौन शादी करता. अपने ददा के घर ही उन्होंने अपनी पूरी जिन्दगी काट दी. घर का कोई भी निर्णय उनसे पूछे बिना नहीं हो सकता. भाई-भाभी भी उनके हवाले ही घर छोड़े रहते हैं.

यह स्थिति अब भी जारी है, जबकि भाई के बेटों की भी बीवियाँ आ गई हैं लेकिन उनकी स्थिति में कोई फर्क नहीं आया. जब उनकी उम्र 50 साल की हो गई, तब भाई को चिन्ता हुई कि भारती की उम्र बीत रही है, क्या यह कुँवारी ही रह जाएगी? पुरोहित जी से राय ली गई. तब एक समाधान निकाला गया. कहा गया कि शास्त्र के अनुसार एक गगरी पानी और मूर्ति को सामने रखकर एक पेड़ के साथ विवाह किया जा सकता है. भारती कैंजा से भी राय ली गई. उन्हें इस काम में भला क्यों आपत्ति होने लगी? इस तरह एक दिन तमाम गाँव के भाई-बिरादरों की उपस्थिति में पंडितों ने कैंजा की शादी एक पेड़ से करवा दी. इस धार्मिक विधान से उन्हें बेहद प्रसन्नता हुई. कम-से-कम अर्थी उठते हुए कोई यह नहीं कहेगा कि वह अविवाहिता मर गई.

इजा की शादी

इजा की शादी 11 वर्ष की उम्र में हुई थी. दो साल पहले ही ताऊ डिगर सिंह की शादी इजा की चचेरी बहन राधा से हुई थी. तभी तय हुआ कि उसी परिवार में एक और लड़की है, कुन्ती. एक दिन चंचल सिंह के लिये उसे ब्याह कर ले आये. कोई घमचम नहीं हुई. बारात भी नहीं गई. बस, परिवार के दो-चार सयाने लोग लीमा गये और वहाँ से लड़की को ले आये. सौगाँव पहुँचने से पहले एक नया कपड़ा खरीदा गया और इकौड़ा ही सिलकर पहनाया गया, फेरे करवाये और शादी मान ली गई. लेकिन शादी के तीसरे ही दिन पति फौज में भर्ती होने के लिये घर से भाग गये और साल भर भी नहीं हुआ था कि उनके लापता होने की खबर आ गई. सरकार ने भी उन्हें मृतक मान लिया था. जब 15-16 की हुईं तो लोग तरह-तरह के ताने कसने लगे. इस उम्र में किसी भी युवती के लिये बिना पति के ससुराल में रहना आसान नहीं था. इसलिये माँ ने मायके में ही रहना बेहतर समझा. पति को लापता हुए दो साल ही हुए होंगे कि सरकार से पेंशन की सूचना आ गई. लोग यही कहते कि चंचल सिंह मर गया होगा. लेकिन माँ का कहना है कि उन्हें कभी भी यह नहीं लगा कि वह विधवा हो गई हैं. लीमा में नाना जी के पास अनेक लोग कुन्ती देवी का हाथ माँगने आये. लेकिन माँ ने कहा, नहीं, मैं नहीं जाऊँगी. मेरा पति जीवित है. लोग गहने लेकर आते और प्रलोभन देते थे लेकिन माँ नहीं मानी. भले ही मायके में रहीं लेकिन उनके लिये पति जीवित थे. इस तरह माँ ने 12 साल काट दिये, इस इन्तजार में कि एक दिन चंचल सिंह जरूर आयेगा.

और चंचल सिंह आया

पिता जी कहते थे कि वे अपने कुछ साथियों के साथ चीन के घेरे में आ गये थे. यह शायद उत्तरी बर्मा में कोई स्थान रहा होगा. ये सब लोग चीन के युद्ध बन्दी थे. भयानक हालत थी. काल कोठरी में रखा गया था, जैसे जानवरों का बाड़ा. दिन में एक बार राशन के डिब्बे में गन्दा-सा खाना डाल जाते थे और फिर किवाड़ बन्द हो जाते थे. रोज सपने में ईष्ट देवता आते और कहते कि चंचल सिंह एक दिन मैं तुझे छुड़ाकर ले जाऊँगा. कभी अलायमल आते, कभी छुरमल तो कभी मलेनाथ और कभी ससुराल के देवता गंगानाथ.

फिर एक अजीब घटना घटी. भयानक ठंड थी. तीन-चार दिन तक कोई खाना देने वाला भा नहीं आया था. चंचल सिंह बेहोश हो गए. बेहोशी में उन्हें कोई कचरे के ढेर में फेंक गया. दूसरे दिन धूप आई और चंचल सिंह की आँखें खुलीं. अपने आप को जेल से बाहर पाकर जैसे मन को पंख लग गये. रात बेहोशी की निद्रा में आए अलायमल याद आये और मन ही मन सोचा कि क्यों न वक्त का फायदा उठाकर भाग लिया जाये. धीरे-धीरे रेंगकर वहाँ से खिसके और पहुँचे किसी नदी के किनारे. वन में केले के पेड़ थे. केले तो नहीं, जंगल में जो भी फल मिला, खा लिया. छिपते-छिपाते और कुली-कभाड़ी का काम करते हुए रंगून पहुँचे. वहाँ एक होटल में नौकरी कर ली. भरपेट खाना मिला तो बड़ी तसल्ली हुई. कई वर्षों तक युद्धबन्दी रहते हुए वे कुछ चीनी भाषा जान गये थे. एक दिन उन्होंने रंगून में एक चीनी जासूस को पकड़ उसे पुलिस के हवाले कर दिया. इस बात से प्रसन्न होकर साउथ रंगून के कमिश्नर ने उन्हें 50 रुपये का पुरस्कार और प्रमाण पत्र दिया. पिताजी का यह सर्टिफिकेट बहुत दिनों तक घर में सम्भालकर रखा हुआ था. कमिश्नर ने पूछा कि तुम कौन हो और कहाँ से तुम्हें चीनी आई? पिताजी ने आपबीती बताई. कमिश्नर ने उन्हें पुनः नौकरी की पेशकश की. उनकी पलटन का कोई अता-पता नहीं था. सारे कागजात महायुद्ध की बलि चढ़ गये थे. इसलिये उन्हें फौज में वही पद मिलना सम्भव नहीं था. कमिश्नर की कृपा से वह बर्मा पुलिस में भर्ती कर लिये गये. उन्होंने तीन साल तक बर्मा पुलिस में काम किया और 1949 में पेंशन लेकर घर आ गये.

उनके लौटने के बाद ही हम तीनों भाई-बहन पैदा हुए. पहले दीदी हुईं. शायद उनका जन्म 1950 का है. फिर ढाई साल बाद भाई हुए 1953 में और पाँच साल बाद मैं. जब मैं चार साल का रहा हूँगा, मेरी एक छोटी बहन भी हुई, मालती. लेकिन वह छह महीने ही जी पाई. हैजा जैसी कोई महामारी आई थी, उसी में चल बसी. उल्टी, दस्त, पेट से खून और दो-तीन दिन में ही बच्चे चल बसते थे. मंझोले चाचा की बेटी भी गई. गाँव के और भी कई बच्चे चलते बसे. उन दिनों हमारे गाँव में महीने भर से हुड़किया-हुड़कियानी आये हुए थे. रोज रात को उनका नाच होता. गाँवभर के और पड़ोस के गाँवों के भी पुरुष जमा होते. हुड़किया अपने हुड़के पर अंगुलियों की थाप देता. चारों तरफ से सीटियाँ बजती और हुड़कियानी का नाच शुरू होता. हुड़कियानी गाती:

सर्ग तारा यो ज्युन्याली रात
को सुनौलो यो मेरी बात हो.
सर्ग तारा…

नीचे उसके घाघरे का पाट घूमता लेकिन उसकी निगाहें आसमान पर लगी होतीं. पता नहीं, वह आसमान के तारों में क्या तलाश रही होती. मैं मुश्किल से तब चार-पाँच साल का था. मुझे वह बहुत अच्छी लगती. एक साँझ वह हमारे घर आई. मुझे ल्वे-पेट लगा हुआ था. उसने इजा से मेरा हाल पूछा. उसने इजा को बताया कि सिर्फ एक रोटी कणका की दीजिए, बाकी कुछ नहीं. लेकिन रोटी अच्छी तरह से पकी होनी चाहिए. इजा ने उसकी बात मानी. हैजा फैलने के बाद हुड़किया-हुड़कियानी चले गये, किसी और गाँव की तरफ.

गाँव में अलायमल-छुरमल का नौर्ता लगा. चौरास लगाई गई. गाँव पर संकट आ गया था. बच्चे धड़ाधड़ जा रहे थे. धूनी रमी. मोहन ढोली ने ढोल बजाया. खाण-बखाण किया. अलायमल देवता की कथा कही. युद्ध का जयघोष हुआ. देवता काँपने लगे. धूनी के चारों ओर नाचने लगे. चारों दिशाओं को बाँधा गया. मास-चावल मुट्ठी में लेकर अलायमल देवता ने चारों दिशाओं में फेंका और गाँव वासियों को आश्वासन दिया कि अब संकट टल गया है. जो होना था हो गया, अब नहीं होगा.

इसी बीमारी में मेरा एक प्रिय दोस्त रंजीत भी चल बसा था. मैं अक्सर रंजीत के साथ ही रहता था. उसके घर में हमेशा गोला-मिसरी रहती थी. हम चार-पाँच वर्ष के रहे होंगे. उनके घर के आँगन में लौकी की एक बड़ी-सी बेल इतनी मोटी थी कि उस पर बैठकर हम बच्चे झूला करते. भारती दी, सरस्वती दी, काली दी जैसी लड़कियाँ हमारे साथ होतीं. हम गाने गाते. छलेरिया नाच करते. छलेरिया नाच करने में मेरा कोई सानी नहीं था. तभी गाँव में महामारी आई. सारे बच्चे बीमार हुए. रंजीत भी हुआ. रंजीत तीसरे दिन ही चल बसा. सुबह हम सब उठे तो पता चला कि छाना यानी शंकर दा के घर से डड़ाडाड़ हो रही थी.

मुझे अपनी आमा की थोड़ी याद है. मैं शायद साढ़े तीन साल का रहा होऊँगा. आमा चाख में लेटी रहती थीं. वे बीमार रहती थीं. उनका स्वभाव चिड़चिड़ा सा था. गालियाँ देती रहतीं. खासकर मेरी माँ को. एक दिन वह अपने बिस्तरे में लेटी थीं. उन्होंने मुझसे पानी माँगा. मैं फौंले के पास गया, लोटा लिया लेकिन फौंले से पानी निकाल पाने में असमर्थ था. फिर बाहर गया, वहाँ मुझसे डेढ़-दो साल बड़ी दो दीदियाँ थीं, सरस्वती और भारती दी. मैंने दोनों से कहा, आमा पानी माँग रही है. सरस्वती दी ने पानी निकाला और आमा को दे दिया. आमा ने पानी पिया और जोर से डकारें लीं. गड़गड़गड़ड़. साथ ही उनकी गरदन एक तरफ को गिर पड़ी. यह हमें अटपटा लगा. सरस्वती दी को कुछ समझ में आ गया और वह बाहर निकली. उसने और लोगों को बताया. पता चला कि आमा अब इस संसार में नहीं रहीं. इजा और बाबा गैरगाड़ा में शायद दनेली लगा रहे थे. वे काम छोड़कर दौड़ै-दौड़े आये. रात भर उन्हें ऐसे ही रखा गया और दूसरे दिन सुबह मैंने देखा कि लोग आमा को भल्याट में बाँधकर ले जा रहे हैं. मैं इजा की गोद में दूध पी रहा था. और इजा रो रही थी.

बचपन के जिन स्मृति बिम्बों को मैं भुला नहीं सकता, उनमें अभाव और गरीबी के ही बिम्ब अधिक हैं. मैं 6-7 साल का रहा हूँगा, जब हमारे पहाड़ों में भीषण अकाल पड़ा. भारत-चीन युद्ध में हार का कितना असर गाँव-गाँव तक पड़ा, इसकी बानगी इसी बात से लगती कि हम नन्हें-मुन्ने बच्चे भी अक्सर यह चर्चा किया करते कि भारत को हराकर चीन एकदम हमारे ऊपर पहुँचने ही वाला है. घर में खाने को अनाज नहीं होता था. लोग दाने-दाने को मोहताज थे. रोजी-रोटी का कोई जरिया नहीं था. एक रुपया भी बहुत मुश्किल से मिलता. एक बार जंगलात विभाग ने योजना निकाली कि लीसे का एक कनस्तर कांडा से चौबाटी तक पहुँचाने का काम यदि गाँववासी करें तो एक रुपया मिल सकता है. मेरे पिताजी की तबीयत हालांकि अक्सर नासाज ही रहती थी, लेकिन इस एक रुपये की खातिर उनमें भी जोश आ गया था. इजा और बाबा दोनों ने ही कमर कसी और वे पहुँचे कांडा. वहाँ से दोनों ने एक-एक कनस्तर लीसे का उठाया. पहले लगभग दो किमी की ढलान उतरे और फिर सात-आठ किमी की तीखी चढ़ाई चढ़े. कनस्तर चौबाटी में पहुँचाने के बाद जब उन्हें एक-एक रुपया मिला तो उस अपार खुशी की कल्पना सहज ही की जा सकती है.

फिर युवकों के लिये रास्ता साफ करने की योजना निकली. जो जवान थे, उन्हें आठ आने मिलते, जो बच्चे थे, उन्हें चार आने. ददा कई दिन तक ये चार आने कमाने के मकसद से जंगल साफ करने के लिये गया. तब उसकी उम्र मुश्किल से 10-12 साल रही होगी. इसी तरह चीन की लड़ाई में गाँव के तमाम मर्दों को धारचूला से आगे सड़क बनाने के लिये ले जाया गया. वे 15-20 दिन बाद घर आते और वहाँ के हाल बताते. उन्होंने एकदम चीन के बॉर्डर तक घोड़िया सड़क बनाई. तब गाँवों में खाने-पीने की भयंकर किल्लत हो गई. गाँवों में अफवाह फैली कि भूख के कारण दूसरे गाँवों के लोग लूटपाट करने के लिये हमारे गाँव की तरफ आने वाले हैं. हम लोग रातभर जागते रहते. गाँव में बचे हुए बूढ़े लोग लाठी-बड्याँठ तैयार करके रखते. लेकिन गाँव तक कोई नहीं आया.

संघ यानी सरकारी गल्ले की दुकान में कोई चीज नहीं मिलती. संघ की दुकान के लिये गाँववासियों को सात-आठ किमी चढ़ाई चढ़कर चौबाटी जाना पड़ता. वहाँ का संघ वाला अक्सर ‘राशन खत्म हो गया’ का बहाना बनाकर गाँव वालों को मना कर देता. लोगों को अक्सर रीते हाथ ही लौटना पड़ता. गेहूँ-चावल जैसे अनाज तो दुर्लभ थे. अक्सर ज्वार-बाजरा या मक्का से ही काम चलाना पड़ता. जिसके पास पैसे होते, वे लोग ब्लैक में चावल खरीद लेते. ब्लैक भी कोई और नहीं, वही संघ वाला किया करता.

एक बार की बात है. हमारे घर में खाने को कुछ भी नहीं बचा. पिता जी पेंशन ले आये थे. वे कुछ भी बोझ उठा नहीं पाते थे. लिहाजा घर का लगभग सारा काम इजा ही करती. इजा को पता चला कि उनके ननिहाल ठुलागाँव के संघ में गेहूँ आये हुए हैं. उनके मामा का गाँव में थोड़ा रोबदाब था, इसलिये उन्होंने कहलवा भेजा कि हमारे गाँव से गेहूँ ले जायें. कोई 12 किमी की चढ़ाई-उतराई के बाद मैं और इजा उनकी ननिहाल पहुँचे. दूसरे दिन बूबू यानी इजा के मामा जी के साथ गल्ले की दुकान पर पहुँचे तो संघ वाले ने हाथ खड़े कर दिये. कहा, आखिरी बोरा गेहूँ का अभी-अभी खत्म हो चुका है.

मालूम हुआ कि पाँच किमी दूर रणगाँव के संघ में शायद मिल जाये. टेढ़ी-मेढ़ी पहाड़ियाँ पार करते हम रणगाँव पहुँचे. बड़ी अनुनय-विनय के बाद हमें वहाँ तीस किलो गेहूँ मिले तो इजा के भीतर एक नया जोश आ गया. पीठ में रखकर इजा ने गेहूँ का कुथला पहले ठुलागाँव पहुँचाया. उस रात हम वहीं रहे. दूसरे दिन सुबह विदा हुए. मुझे आमा ने पिठ्याँ के तौर पर एक छोटी सी कांसे की थाली दी. रात को अपने गाँव पहुँचे. इजा को देख सबके चेहरे खिल उठे. सब गाँव वालों ने इजा की हिम्मत की दाद दी.

मैं चार साल का था, तभी से पिता जी मुझे अक्षर ज्ञान देने के लिये चिन्तित रहने लगे. वे मुझे अआ, कखग सिखाते, मैं नहीं सीख पाता. ददा स्कूल जाता था. वह पढ़ाई में बड़ा कुशाग्र था, लेकिन हमेशा बेहद लापरवाह जैसा दिखाई पड़ता था. मेरी उम्र का एक लड़का था, पुष्कर. उसके पिताजी रोज आते और कहते, आज मेरे पुष्कर ने अआ सीख लिये, आज कखग सीख लिये. कभी बताते कि वह बीस तक गिनती सीख गया है. एक दिन आये, पिता जी से बोले मेरे पुष्कर ने तो बारहखड़ी भी सीख ली है. यह बारह खड़ी मेरे लिये एक बड़ी पहेली थी. मैं सोचता, पता नहीं यह क्या चीज होगी. मुझे तो अभी तक अ बनाना भी नहीं आया था. पिताजी चिन्तित दिखाई दिये. पता नहीं, मेरा लड़का कभी सीख भी पायेगा या नहीं. पिता जी ने मेरे लिये गोबराड़ी से खड़िया पत्थर ला दिया था, जिससे मैं आड़ी-तिरछी रेखाएँ ही बनाया करता था. कहीं-न-कहीं मुझे भी अन्दर ही अन्दर यह लगता रहा कि मुझे कुछ नहीं आता, जबकि मेरे से आठ दिन छोटा पुष्कर बारहखड़ी जान गया है. लेकिन उस रात सचमुच मुझे बात लग गई थी. मैं रातभर सपने में अ बनाने की कोशिश करता रहा. पता नहीं, कब आँख लगी. सुबह उठते ही मैंने सबसे पहले खड़िया ढूँढी और मिट्टी लिपे फर्श पर अ लिख दिया. आश्चर्य की बात यह कि खड़िया ने सीधे अ ही लिखा. रेखा बिल्कुल भी इधर-उधर नहीं गई. और यह अ भी एकदम ठीक था. मेरी खुशी का ठिकाना न रहा. मैंने पिताजी को दिखाया, ददा को दिखाया. सबने तारीफ की. तब जाकर मैं पेशाब के लिये बाहर गया. उसके बाद तो मैंने सीखने की रफ्तार काफी तेज कर दी.

जब मैंने स्कूल जाना शुरू किया, गाँव में स्कूल नहीं था. नदी पार करके भिटगाड़ा जाना पड़ता था. सौगाँव, तड़खेत और चिटगालगाँव के बीच में था यह प्राइमरी स्कूल. ठंड के दिन थे, जब मैंने अपने भाई के साथ इस स्कूल में जाने का अभ्यास किया. नदी पार करके जब हम एक छोटी-सी लेकिन एकदम खड़ी चट्टान चढ़कर स्कूल पहुँचते तो लगता जैसे एवरेस्ट फतह कर ली. हमारे गाँव से जो बच्चे इस स्कूल में जाते, जूते उनमें से शायद एकाध के पास ही रहे होंगे. उनमें से एक था-शंकर दा. उसके पिताजी फौज से मेडिकल पेंशन लेकर सेक्रेटरी यानी ग्राम सेवक हो गये थे. लिहाजा अच्छी आर्थिक हालत थी. तो जब हम स्कूल की चट्टान से ऊपर चढ़ रहे होते तो पत्थरों में पाला जम जाने के कारण उनमें नंगे पाँव रख पाना बड़ा मुश्किल होता. मैं छोटा था और शंकर दा जैसे लोगों का लाडला. स्कूल जाने के मेरे उत्साह को वे कम नहीं करना चाहते थे. इसलिये शंकर दा अक्सर मेरे पैरों को अपने जूतों के ऊपर टिकाकर लिये चलता. और जब हम लोग प्रार्थना के लिये खड़े होते तो मेरी आँखों से ठंड के मारे आँसू आ जाते. तब मेरा भाई मुझे अपनी पाठी यानी तख्ती के ऊपर खड़ा कर देता.

लेकिन इस स्कूल में मैं कुछ ही दिन पढ़ा. अक्षर ज्ञान हो गया था. जुलाई से हमारे ही गाँव में एक स्कूल खुल गया. स्कूल सौगाँव में खुला और नाम रखा गया मेलकूड़ा, क्योंकि जिन प्रेम सिंह मास्टर ने इस स्कूल के लिये ज्यादातर कागजी कार्रवाई की थी, वह मेलकूड़ा रहते थे. स्कूल खुला कन्या पाठशाला के नाम पर. शायद यह 1964 की बात होगी. इस स्कूल के आने से गाँव में एक नई रौनक आ गई. पहली अध्यापिका आई-मथुरा जंगपांगी. वह डीडीहाट कस्बे से आई थीं. बेहद खूबसूरत शौक्याणी थीं. गोल-भरा हुआ चेहरा. उन्हें शौक्याणी मास्टरनी ही कहा जाता. गाँव वालों ने पहली बार एक ऐसी महिला को देखा, जो पढ़ी-लिखी थी और अच्छे कपड़े पहने रहती थीं. लोगों के लिये यह किसी सांस्कृतिक झटके से कम नहीं था. पूरे गाँव में जैसे क्रान्ति मच गई थी. लौंडे-लपाड़े हमेशा उनके बारे में खुसुर-पुसुर ही करते रहते. अभी तक इस गाँव में एक भी आदमी मिडिल से ऊपर पढ़ा-लिखा नहीं था. इक्का-दुक्का फौजी एकाध अंग्रेजी के शब्द सुनकर घर आते तो वही शब्द जोर-जोर से बोलते रहते. खासकर मास्टरनी के सामने. ऐसे में उनसे ज्यादा पढ़ी-लिखी स्त्री उनके गाँव में आ गई तो जैसे उनके अस्तित्व को ही चुनौती मिल गई थी. कुछ लोग शौक्याणी मास्टरनी का फिजूल ही विरोध करने लगे. शौक्याणी मास्टरनी ने भी गाँव में ऐलान कर दिया था कि जो भी लड़कियाँ 15 साल तक की हों, वे इस स्कूल में आ सकती हैं. वह ऐसी तमाम लड़कियों के घरों में गईं और उनके माँ-बाप से अपनी बेटी को स्कूल भेजने का अनुरोध किया. मेरी दीदी जो कई साल पहले एकाध साल स्कूल जाकर गाय चराने लग गई थी, वह भी शौक्याणी मास्टरनी की क्लास में जाने लगी थी और तीन महीने में ही दीदी को शौक्याणी मास्टरनी ने दूसरी कक्षा में रख दिया. (Childhood Memoirs of Govind Singh)

(गोविंद सिंह का यह संस्मरण पहाड़, पिथौरागढ़-चम्पावत अंक, 2010 से साभार)

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Sudhir Kumar

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