समाज

मडुवे की गुड़ाई के बीच वो गीत जिसने सबको रुला दिया

चौमास (बरसात) में बारिश से जरा सी राहत मिली कि सारे गांव के लोग कोदा-झंगोरा गोड़ने खेतों की ओर चल पड़ते. मर्द बैल जोत कर कोदे में ददंला लगाते और छुट्टी पायी. बाकी काम महिलाओं के हिस्से. खरपतवार निकाल कर डमडमे (मजबूत) मडुवें (कोदा) की पौध को दुरस्त करना आसान काम नहीं होता है. कई बारिशों से गद् भीगे खेतों में ऊंकडू होकर कोदा गोडा जाता. कमर झुकाकर गोडते हुए महिलायें बोरे या किसी मोटे बडे कपडे को तिकोना करके अपनी सिर-पीठ को पानी से बचाती.
(Childhood Memoir by Arun Kuksal)

उन दिनों नीचे नयार नदी से उठती कोहरे की घनी परत में जगह-जगह सरपट भागते बादलों के टुकडे राक्षस जैसे लगते. नमी और धुंधले वाले मौसम में उदासी सी रहती. पर लोगों का काम कहां रुकने वाला हुआ. दाजी (दादा जी) घर से बाहर कहीं रिश्तेदारी में हैं. बिरजू ब्याडा (ताऊजी) ने चंपुगडियूं के हमारे खेत में दंदला लगा दिया है. मां को अब कोदा गोड़ने जाना ही है. तो चलो रे बाबा, वो बोली.

हम बच्चों का उसके साथ में खेत में जाने का मन नहीं है. दाजी है नहीं फिर अकेले घर पर में रहने की मौजा ही मौजा का मौका कैसे जाने देते. मां भौत ठंडु चा, आशा दी कहती. मां तो ज्यादा सयानी हमारे मन की बात ताड़ जाती. वो जानती थी कि धौंस-पट्टी से हम मानने वाले है नहीं. इसलिए लालच की पूरी पोटली उसके पास पहले से ही तैयार रहती. लैंची, चना, लमचूस खाजा-बुखाणा उसमें भरा होता. पर इतने से हम पटने वाले नहीं है. वो हम पर अपना पक्का दांव फैंकती. मि कथा भी सुणौंलु तुम थैं वख. हें… अब हम सब धराशायी. गांणू (गीत) भी सुणैंलि हम पक्के सोदेबाज हो गये. हां रे चला दनका (दौड़ो). उसे अबेर (देर) हो रही थी.

कथा और गीत सुनना तब हमारी सबसे बड़ी खुराक और ख्वाईश होती. सिर पर टोकरी रखकर मां शोभा को गोदी में उठाती है. चला झट, मां हमें धौल लगाती है. आशा दी और मैं हाथ पकड़े मां के आगे-आगे हैं. बच्चों के आगे चलने से रास्ता सीधा और छोटा हो जाता है, मां ने बताया हमें. किले (क्यों), मैंने पूछा. अरे बच्चों दगड़ भगवान जी भि चलदन इल्ये (इस कारण), मां समझाती.
(Childhood Memoir by Arun Kuksal)

चमपुंगडी में एक पेड़ के पास बोरी में आशा दी, मैं और शोभा को बिठा दिया है मां ने. पास गोसा भी जला दिया ताकि कीड़े परेशान न करे. हम बट्टी भी लायें हैं खेलने को. मां ने हमारे पास से ही गोड़ना शुरू किया. कोदा खूब घना उगता है. उसके साथ घास भी ज्यादा होती है. इसलिए उसकी छटाई करना मेहनत का काम है. पर हमें कहां परवाह. हम तो मां के साथ गीत और कथा सुनने आये हैं. सुणौं चल, हमारी शुरू से रट है. तभी नीचे के खेत से सुरीली आवाज में गीत गूजंता है.

ज्यूं बैण्यून सारी रौल्यू कू पाणी
ऊ बैंणी ह्वीना राजों की राणी…
बाबा न खाई रूप्पया चार सौ
वीं चार सौ की म्यरि जेठी बौऊ
बाबा जी नी हुय्यां तुम्हरी मौऊ.

(Childhood Memoir by Arun Kuksal)

थोड़ी देर गाने वाली चाची चुप हुयी कि दूसरे खेत से कोई और इसी गीत की आगे की लाइन को गाने लगा. कुछ समय तो यह गाना कई गितागों की आवाजों में गूंजता रहा. हमें मतलब तो ज्यादा समझ में नहीं आया. पर हम गीत पर मंत्र मुग्ध हुए जा रहे थे. खुदेड़ (उदासी) मौसम में गाया यह गीत इधर-उधर गीले खेतों में गोड़ाई करती तन से भीगी महिलाओं को मन से भी भिगा गया. नीचे-ऊपर हमारी चाची-ताई सब सुबकती जा रही थी. रूआ-रू मच गयी. मां भी रो रही. ये मां बतो क्य ह्वाया, हमने मां को झिंझोडा. तब मां ने बताया कि किसी के बाबा ने चार सौ रूपया लेकर अपनी लड़की की खराब घर में शादी कर दी थी. वही इस गीत से अपने बाबा को असगार (बददुआ) दे रही है.
(Childhood Memoir by Arun Kuksal)

– डॉ. अरुण कुकसाल

वरिष्ठ पत्रकार व संस्कृतिकर्मी अरुण कुकसाल का यह लेख उनकी अनुमति से उनकी फेसबुक वॉल से लिया गया है.

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