समाज

समय ने छीन ली बच्चों से बुजुर्गों की मीठी डांट और परीकथाएं

कहते हैं बुज़ुर्गों की डांट-फटकार बच्चों के लिए जीवन का सबब होती थी.मां की डांट को बच्चे नज़रअंदाज़ कर जाते थे लेकिन आमा-बूबू की डांट सुनते ही सन्न रह जाते थे. समय काफ़ी बदल चुका है. अब न तो मां ही बच्चों को ज़्यादा डांटती-मारती है और न ही बुजुर्ग कुछ कहते हैं. बुजुर्ग कुछ कह भी दें तो बच्चों से ज़्यादा माताओं को बुरा लगने लगता है. 90 या उससे पहले के दशकों की बात करें तो कुमाऊनी घरों की कमान अकसर आमा-बूबू के हाथ में ही रहा करती थी. उनकी राय के बिना न तो घर का कोई काम होता था और ना ही बच्चों को आज की जैसी छूट मिलती थी. तब परिवार अक्सर संयुक्त ही हुआ करते थे और बड़े परिवार में ज़्यादा बच्चों की शैतानियों के बीच दिन भर किसी न किसी की ख़बर ली ही जाती थी. परिवारों में माहौल कुमाऊनी बोलने का ही होता था. छोटे बच्चे से लेकर बड़े बुजुर्ग तक सभी कुमाऊनी में ही बात किया करते थे. किसी बच्चे ने कोई शरारत की तो उसको गालियॉं और डांट भी कुमाऊनी में ही पड़ती थी. बुज़ुर्गों द्वारा डाँटने के रूप में प्रयुक्त होने वाले शब्द तथा वाक्यांश में से कुछ प्रमुख यूँ हुआ करते थे:


खड्यूना/खड्यूनी तस न कर.
कि बिज्पाति कर नेहे ला?
राणका मार खा हाल्ले.
तेरी राणका नाठ है जालि.
खाले खलोक हूँ आब.
तेरी झोगलि चोर ली जाल.
ना आले तू मावेहे घरन.
कुणबुद्धि न कर ला.
कि नौराठ पाड़ रा त्वैलि?
काँ फुकी रैछे?
ऊल्लूपट्ठ खड्यून.
खाले गुलहत्थ तब रौले.
ज़्यादा टिपी रेहे अच्यालू.
क्याहॉंन फतौड़ी रहे?
तेरी घड़ी आ रे हूँ!
क्याहांन बौवी रेहे?
त्वे ला हाथ-गोड़ि नाहांन काम करनहन?
तेरी खौरि बाजर पड़ जओ.
स्यावे न्यार क्याहांन पड़ रेहे?
ठाणे टिपी रौ देख धँ.
धौक के थुर द्यून हूँ!
ततर राण हे बेरे तस काम भै त्यार.
ज़्यादा उफली न हूँ!
कि अवझ्याट लगा रा ल?
उब्दरि न कर ला.

इस तरह की न जाने कितनी ही डांट दिन भर सुनने को मिल जाया करती थी. बात सिर्फ डांट तक सीमित रह जाए ऐसा नही था. डांटने के बाद बच्चों को मनाने के लिए आमा-बूबू का लाड़-प्यार कितना मनोरम होता था. आमा तो बच्चों को चूम-चूम के और खाने-पीने का लालच देकर कैसे न कैसे मना ही लिया करती थी. अब इस तरह की डांट-फटकार के वाक्यांश सुनने के लिए कान तरस जाते हैं. आमा-बूबू अपने बुढ़ापे का सहारा ढूँढने में इतना बैचेन हो जाते हैं कि एक संपूर्ण परिवार वाला एहसास उन्हें कभी मिल ही नही पाता. आधुनिक समय में एकल परिवारों का चलन बढ़ने लगा है. घरों में कुमाऊनी की जगह हिंदी ने ले ली है और आमा-बूबू अपनी जगह के लिए कभी छोटे तो कभी बड़े बेटे के पास भटकते रहते हैं. कुमाऊनी बोलना तो दूर आधुनिक मां-बाप बच्चों को सिर्फ अंग्रेज़ी बोलते देखना चाहते हैं. आजकल के बच्चों को नींद के समय सुनाई जाने वाली आमा-बूबू की कहानियां ग़ायब हैं. उनकी जगह अंग्रेज़ी की कहानियों या यूट्यूब के वीडियोज ने ली है.

90 का दशक बेहतरीन हुआ करता था. इस पूरे लेख को उस समय और उससे पहले पैदा हुआ हर कुमाऊनी अपनी यादों से जोड़ सकता है. गढ़वाल में भी अवश्य ही कुछ इसी तरह की डांट-फटकार प्रचलित होगी. शब्दों का आमूल-चूल परिवर्तन हो सकता है. आज भी उस दशक के बहुत से बुजुर्ग आपके आस-पास होंगे. कभी जाइये उनके पास, पूछिये उनके जमाने की बातें, उस समय का पारिवारिक जीवन, बच्चों की शैतानियाँ, आमा-बूबू की डांट व मार के क़िस्से. आपकी पूछी गई इन सब छोटी-छोटी बातों से उनके चेहरे पर एक मुस्कान तैर आएगी जो कुबेर के दिए किसी ख़ज़ाने से लाख गुना क़ीमती महसूस होगी.

नानकमत्ता (ऊधम सिंह नगर) के रहने वाले कमलेश जोशी ने दिल्ली विश्वविद्यालय से राजनीति शास्त्र में स्नातक व भारतीय पर्यटन एवं यात्रा प्रबन्ध संस्थान (IITTM), ग्वालियर से MBA किया है. वर्तमान में हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय के पर्यटन विभाग में शोध छात्र हैं.

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Sudhir Kumar

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