अब गांव, गांव सा नहीं रहा, गांव पक्की सड़क से जुड़ चुका है अंग्रेजी स्कूल खुल चुके हैं अब बच्चे नमस्कार प्रणाम भूल कर गुड मॉर्निंग कहने लगे हैं. खाना (ब्रेकफ़ास्ट -लंच-डिनर) में बदल चुका है. बचपन किस्से-कहानियों को छोड़ मोबाइल फ़ोन की गिरफ़्त में आ चुका है. (Changing Landscape of Villages of Uttarakhand)
जब हम छोटे थे तो सभी बच्चे मिल कर पूरे गाँव भर में खेल खेला करते थे. पकड़म-पकड़ाई, छुपन-छुपाई, अड्डू, पिड्डू, गिल्ली-डंडा, अक्कड़-बक्कड़ और भी न जाने कितने खेल हम खेला करते थे. लेकिन आज के समय में बच्चे बस मोबाइल में लगे रहते हैं, उन्हें पता ही नहीं कि इन सब खेलों के अपने ही मज़े हैं.
जो शादियां गाँव में आँगन में हुआ करती थी वे अब बड़े-बड़े बैंक्वेट हॉल में होने लगी हैं. जन्मदिन पर पंडित जी को बुला कर पूजा करवाई जाती थी, भोग बनवाया जाता था. लेकिन अब हैप्पी बर्थडे बोल कर केक काटा जाता है. जो लोग शहरों में रोज़गार की तलाश में निकले वही वापस आ कर गांव को भी शहर बनाने की कोशिश करने लगे. इस सबमें गांव अपना अस्तित्व खोता रहा.
जैसे-जैसे गांव पढ़ा-लिखा और ‘सभ्य’ होता गया वैसे-वैसे उसमें ख़ौफनाक बाद्लाव भी होते चले गए. अब गांव से गाय, भैंस, कुत्ता, बिल्ली, आम, दूध, चावल, सब्जी जैसी चीज़े महत्वहीन हो गयी हैं. अब गांव में काऊ, बफैलो, डॉग, कैट, मैंगो, मिल्क, राइस, वेजिटेबल, मिलता है.
अक्सर कहा जाता है कि लोकजीवन बदल गया है. नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन का एक बहुपठित वाक्य याद आता है, उन्होंने कहा था — शहर रहने लायक नहीं रह गए हैं. शहरों को रहने लायक नहीं बनाया गया है. शहर अब गांव को निगल रहे हैं, वहाँ लकड़बगघों की आमद हो रही है.
फैज़ अहमद फैज़ का एक शेर है — वाइज (धर्मोपदेशक) है न जाहिद (तपस्वी) है, नासेह (नीतिज्ञ) है न कातिल, अब शहर में यारो किस तरह बसर होगी.
वह शहर क्या जहाँ कातिल ना हो. ये कातिल आगे चलकर सियासतदां बनते हैं और हम पर हुक्म चलाते हैं. गांव भी अब पहले जैसे मासूम नहीं रह गए हैं. अब ज़िन्दगी की रफ्तार बहुत तेज़ होती जा रही है, कोई रुककर किसी का हाल नहीं पूछता, लोग बस भागते जा रहे हैं.
अक्सर स्कूल के दिनों में अपने साथ के बच्चों को कहते सुनते थे कि छुट्टियों में गाँव जा रहे हैं. सुनकर सोचते थे की ये गाँव कैसे होते हैं? हमारा कोई गाँव क्यों नहीं है?
यही सवाल घर में आ कर दादा-दादी, मम्मी-पापा से पूछने लगते कि हमारा गाँव क्यों कहीं नहीं है? तो वे बताया करते कि हम जहाँ रहते हैं यही हमारा गाँव है. पर न जाने क्यों उनके इस जवाब से भी मन को सन्तुष्टि ही नहीं होती थी.
शायद हमारे लिए गाँव का मतलब था टेड़ा मेड़ा रास्ता होना, उन रास्तों में मीलों चल के घर तक पहुँचना, बाज़ार का घर से बहुत दूर होना. जंगल का होना, जहां सुबह ही लोग अपने जानवर चराने को ले जाते और वापसी में लकड़ी या घास का गठ्ठर भी साथ में लाते. शाम को सभी लोग आपस में मिल कर बैठते चाय-नास्ता करते, गप्पें लगाते और बाघ या जंगली जानवरों के डर से जल्दी खा के सोने को कमरों में चले जाते. रात को दादा दादी के किस्से-कहानियों में भूत चुड़ैल या ख़तरनाक जानवर से हुई भिड़ंत की कोई कहानियां सुनते..
गाँव के लोग किस तरह एक दूसरे का साथ देते हैं कोई भी काम हो सब साथ में मिल कर करते, उन्हें देख कर लगता ही नहीं कि किसके घर का काम है, क्योंकि काम भले ही किसी का भी हो सब मिल कर सहयोग ऐसे करते मानो उन्हीं के घर का काम हो.दुःख हो सुख हो सब मिल-जुलकर साथ रहते थे.
दादा जी अक्सर अभी भी बताया करते हैं कि किस तरह गाँव की सभी औरतें मिल कर पोरसा (गोबर) फेंका करती थी. कैसे सभी लोग मिल कर एक दूसरे के खेतों में काम करते थे, फिर चाहे वो फसल उगाने की बात हो या फ़सल काटने की. नई फ़सल के उगने पर उसे अपने ईष्ट देवताओं को भोग स्वरूप चढ़ाया जाता था और उसके बाद ही सभी लोग उस अनाज को खाते थे.
यह सभी हमारे गाँव में भी हुआ करता था, जो हमारे होने से पहले ही या हमारे बड़े होने के साथ-साथ बढ़ती सुविधाओं के चलते लुप्त होता गया. गाँव में वही सब काम जो पहले गांव ही के लोग मिल-बांटकर किया करते थे अब मजदूरों से करवाये जाते हैं. घास काटना, घास सारना, लकड़ी लाना ,लकड़ी फाड़ना और भी कई अन्य कार्य अब मजदूरों से करवाये जाते हैं. अभी भी कुछ परम्पराएं सुचारू हैं पर कई लुप्त भी हो गयी हैं.
आज भी कई ऐसे गाँव हैं जहाँ यह सब प्राचीन परम्पराएं चल रही हैं. लेकिन धीरे-धीरे कई गाँव अपनी संस्कृति को भूल कर शहरी संस्कृतियों को अपनाने लगे हैं. शायद ऐसा ही चलता रहे तो लोग गाँव की पहचान ही भूल जाएँ. ऐसे में हमें चाहिए कि हम नई संस्कृति को ज़रूर अपनाएं लेकिन पुरानी को ना छोड़ें इससे हम अपने गाँव और गाँव की संस्कृति को बचा सकते हैं.
पिथौरागढ़ में रहने वाली भूमिका पाण्डेय समाजशास्त्र और मनोविज्ञान की छात्रा हैं. लेखन में गहरी दिलचस्पी रखने वाली भूमिका पिथौरागढ़ डिग्री कॉलेज की उपाध्यक्ष भी रह चुकी हैं.
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Bhumika very good topic.।।
Thx kafal tree
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सड़कों ने गांववासियों को शहर की ओर लगा दिया है, साथ ही परंपराएं धुंधली हो चली हैं । खूबसूरत लेख ।