मनुष्य का समभाव होना बुद्धत्व को प्राप्त कर लेना है. निर्वाण प्राप्त करना है, जिसमें जाति-धर्म, ऊंच-नीच, अगड़ा-पिछड़ा, महिला-पुरुष छोटा-बड़ा सवर्ण-दलित कुछ नहीं रहता, मात्र मनुष्य होना हो जाता है. (Chanchadi Uttarakhandi folk culture)
चांचड़ी ऐसी ही निर्वाद गुण समाये हुए उत्तराखंड का पहाड़ी लोकगीत-नृत्य है. इस गीत नृत्य में हमारा लोकजीवन क्षणिक समय के लिए ही सही वाद रहित हो जाता है. स्वयं में आनंदानुभूति ही इसकी विशिष्टता है, इसकी महानता है. जब कोई व्यक्ति चांचड़ी के घेरे में दूसरे के बाजू में हाथ फंसाये शामिल हो गया तो फिर वहां कोई वाद नहीं रह जाता है, बस होता है एक आनंद अतिरेक.
चांचड़ी को उत्तराखंडी लोकगीत संस्कृति की रीढ़ कहा जाय तो अतिश्योक्ति नहीं होगी. यह पारम्परिक लोकगायन, नृत्य उस लोकसंस्कृति का नेतृत्व करता है जो पृथ्वी पर प्रकृति के हर स्वरूप को देव तुल्य मानता है. धार, खाल, डाँड़ी-काँठी, गाड़-गदेरे, बन-जंगल, खेत-खलिहान, पौण-पंछी, जीव-नमान हर चीज के साथ मनुष्य वृत्ति यहां तक कि हवा रूपी परियों, ऐड़ी, आंछरियों, बन-देवियों और देवताओं को इन गीतों के माध्यम से गाया जाता है. यही इस लोक गीत नृत्य को विशिष्ट बनाती है.
चांचड़ी को मैं समभाव इस लिए मानता हूँ कि इसमें गीत है नृत्य है, समूह भी, एकता भी, महिला भी पुरुष भी, स्वर भी ताल भी और सबको मिलाकर एक उमंग उत्साह आनंद का अतिरेक. कोई लिंग भेद नहीं कोई वर्ण भेद नहीं. गुजरात के गरबे, आसाम का बिहू जैसा सशक्त यह उत्तराखण्डी लोकगीत-नृत्य है, जिसे हर उम्र के लोग गाते हैं नाचते हैं खेलते हैं. लेकिन इसकी राष्ट्रीय पहचान नहीं है. इसे झुमैलो नाम से भी जाना जाता है.
इन गीतों में देव स्तुतियां, लोक परम्परा, सामाजिकता, प्रकृति महिमा, प्रेम गीत, विरह गीत, समसमायकी और हास्यव्यंगय आदि शामिल है. या यूं कहें कि यह जीवन के विविध रगों से सजा लोक नृत्य है.
उत्तराखंड में चांचड़ी के विविध रूप हैं जिसमें चैफुला, थडिया, तांदी, छौपती, छोलिया आदि. स्थान विशेष नाम और लोकाचार पर आधारित हैं. ये सभी सामूहिक रूप से गाये-नाचे जाते हैं. ये सभी लोकगीत, लोकनृत्य पौराणिक काल से पीढ़ी-दर-पीढ़ी अपने लोक के साथ मौखिक रूप से चलता आया है. वर्तमान में डॉ. गोविन्द चातक, डॉ. नन्द किशोर हटवाल जैसे साहित्यविदों ने लिखित में इन्हें संकलित भी किया है.
यह हमारी परम्पराओं का अभिन्न अंग था है और आगे भी बना रहेगा. हाँ! इसे गरबा, भांगड़ा जैसी पहचान न मिलना हम उत्तराखंडियों की विफलता ही कहा जायेगा. अगर आगे पुरजोर प्रयास किया जाय तो इस लोकगीत-नृत्य को राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पहचान मिल सकती है. यह हम सबकी जिमेदारी भी है.
आज यह सांस्कृतिक धरोहर गांव-घर से निकलकर लोकलुभावन संगीत और डिजीटल वाद्यों के साथ विभिन्न मंचों तक तो पहुंची है लेकिन खुद लोक में, यानि गांवों में रुग्णासन्न है. इसका कारण वर्तमान मनोरंजन के साधन और माध्यम भी हो सकते हैं. वर्तमान पीढ़ी के कलाकारों का इसे नए कलेवर में ढालना कुछ हद तक समयक हो सकता है लेकिन अधिक और अनावश्यक छेड़छाड़ चांचड़ी के अस्तित्व के लिए खतरनाक भी हो सकती है. इस छेड़छाड से इस लोकगीत नृत्य का स्वरूप ही बदलकर रह गया है. इस पर मंथन और चिंतन जरूरी है. सस्ती लोकप्रियता के लिए तथाकथित लोककलाकार इस अप्रितम परम्परा को आनेवाली पीढ़ी को भोंडापन न ही दे तो अच्छा है.
आज पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव इस प्रकार सर चढ़ गया है कि लोक की कला लोक से विमुख हो रही है या हो जाने के मुहाने पर है. लोक साहित्य, गीत-संगीत के मर्मज्ञ विद्वतजनों को एक मंच पर आकर कमर कसके विचार करने और अमल करने की जरूरत है, तभी इस विशुद्ध विरासत को हम अगली पीढ़ी को अपने मूल स्वरूप में हस्तांतरित कर सकेंगे.
ईजा कैंजा की थपकियों के साथ उभरते पहाड़ में लोकगीत
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‘मन के हारे हार है मन के जीते जीत’ को जीवन सूत्र मानने वाले बलबीर सिंह राणा ‘अडिग’ ग्राम-मटई (ग्वाड़) चमोली, गढ़वाल के रहने वाले हैं. गढ़वाल राइफल्स के सैनिक के तौर पर अपने सैन्यकर्म का कर्मठता से निर्वाह करते हुए अडिग सतत स्वाध्याय व लेखन भी करते हैं. हिंदी, गढ़वाली में लेखन करने वाले अडिग की कुछ किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं. विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में भी रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं.
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