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काली कुमाऊँ के गुमदेश की चैतोल

सोर घाटी, पिथौरागढ़ के अलावा काली कुमाऊँ के गुमदेश में भी चैतोल का पर्व धूमधाम से मनाया जाता है. गुमदेश की चैतोल सोर की चैतोल से कुछ भिन्नता लिए हुए होती है.

अष्टमी के दिन घर भर की साफ़-सफाई, लिपाई-पुताई की जाती है. इसी रात घर की महिलाएं चावल के ख़ास तरह के परंपरागत पापड़ बनाती हैं. बनाने व सुखाने के दौरान इन्हें पुरुषों की नजर से बचाकर रखा जाता है. इन पापड़ों को दशमी के दिन तलकर खाया जाता है.

नवमी के पवित्र दिन प्याज, लहसुन और तड़का, मसाला रहित सात्विक भोजन तैयार किया जाता है. इस दिन सभी दलों में गहत की दाल अवश्य मिलाई जाती है. पवित्र समझी जाने वाली गहत की दाल को अलग से भी बनाकर घी के साथ खाया जाता है.

नवमी के दिन सभी मेहमानों और नाते-रिश्तेदारों को आदर के साथ भोजन करवाया जाता है. पौराणिक सामाजिक एवं संस्कृतिक परंपरा के अनुसार स्थानीय चौमू देवता के मंदिर की ऊपरी ढलान पर बसे 4 धौनी जाति के लोगों की यह जिम्मेदारी होती है कि वे आसपास के गाँव वालों और काली पार नेपाल से आये हुए लोगों का भी अतिथि सत्कार करें. इस दिन यहाँ आने वाले सभी परिचित-अपरिचित इनके मेहमान होते हैं.

Chaitol Festival Gumdesh kali Kumaon ChampawatChaitol Festival Gumdesh kali Kumaon Champawat

मदन कलौनी की फेसबुक वाल से साभार

भोजन करने के बाद सभी लोग सिलंग स्थित चमल देवता के मंदिर के आंगन में इकट्ठा हो जाते हैं. यहाँ पर सभी पुरुष स्थानीय वाद्यों की धुन पर ढुस्का नृत्यगान करते हैं. इसी बीच चौमू देवता के डोले को सजाने की प्रक्रिया भी चलती रहती है. इसी बीच देवगीतों पर स्थानीय लोगों के शरीर में देवता का अवतरण भी कराया जाता है. आह्वान गीतों से अवतरित होकर देवता स्वयं देवयात्रा संचालित करने के आदेश देता है. चौखाम देवता की जय के उद्घोस के साथ डोला चल पड़ता है. सबसे आगे देव ध्वजवाहक चलता है. उसके पीछे एक बड़े तथा पांच छोटे नगाड़ों के साथ वादक. उनके पीछे उद्गोष करते पुरुष और अंत में देव गीत गीत महिलाएं.

डोले को मड़ गाँव में चौमू के भंडार मंदिर में उसके धामी के पास ले जाया जाता है. इस डोले का नेतृत्व धौनियों के चार गाँवों के लोगों द्वारा किया जाता है. यहाँ ख़ास जगह पहुंचकर डोला उतार दिया जाता है. इसी के साथ नवमी का कार्यक्रम संपन्न हो जाता है. मड़ के ग्रामीण डोले के साथ चौमू के मंदिर की परिक्रमा करने के बाद इसे वहां स्थापित कर देते हैं.

उत्तराखंड देवभूमि आस्था मंच फेसबुक पेज से साभार

दशमी के दिन पापड़ तले जाते हैं और चावल के आटे में सेमल की कोमल जडें मिलाकर सेल नामक जलेबीनुमा पकवान बनाया जाता है. सभी घरों से ये पकवान कुंवारी कन्याओं को दिए जाते हैं जो इसे देवता को अर्पित करती हैं. इसे ही प्रसाद के रूप में भी खाया जाता है.

इसके बाद सभी ग्रामीण पुनः चौमू देवता के मंदिर के आंगन में इकट्ठा होते हैं. इस समय तक मड़ गाँव के लोग देवडोली को बढ़िया से सजाकर तैयार कर देते हैं. डोले के डंडों पर रस्सियाँ बांधी जाती हैं जिससे कि चढ़ाई में उसे लोग खींच सकें. इस डोले पर चमल देवता अवतरित हुआ डंगरिया बैठाया जाता है. डोले को गुमदेश में घुमाने के बाद पुनः चौमू देवता के मंदिर में लाया जाता है और यात्रा समाप्त हो जाती है.

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(उत्तराखण्ड ज्ञानकोष, प्रो. डी. डी. शर्मा के आधार पर)

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Sudhir Kumar

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