भारत में लम्बे समय तक समुद्री यात्रा करना पाप समझा जाता था जिसका एक कारण हिन्दू धर्म में समुद्र को देवता के रूप में पूजा जाना था और देवता को लांघने की कल्पना कर सकना भी भारतीयों की पहुंच से बाहर था. कुमाऊं में अल्मोड़ा नगर में तो 1900 के बाद भी समुद्री यात्रा करने वाले व्यक्ति को जाति से बाहर का रास्ता दिखाया जाता था.
(Cast Ritual in British Kumaon)
इस संबंध में एक घटना कवि गौरी दत्त पांडे गौर्दा के भाई भोला दत्त पांडे के जीवन से भी जुड़ी है. जब भोला दत्त पांडे ने शिक्षा के लिये जापान की यात्रा की तो उन्हें जाति से बहिष्कृत कर दिया गया. लौटकर आये भोला दत्त पांडे ने गोबर, गोमूत्र और गंगाजल से नहाया पर उन्हें जाति में नहीं लिया गया.
समुद्री यात्रा के भय से जुड़ी एक घटना पंडित नैन सिंह रावत के जीवन से भी जुड़ी है. दरसल जब नैन सिंह रावत अपनी शुरुआती अन्वेषण यात्रा पर थे तो उनके काम और तुरंत सीखने की प्रतिभा से सर्वेयर वैज्ञानिक बड़े प्रभावित हुये. नैन सिंह रावत अपने भाई मानी सिंह रावत के साथ स्लागेंटवाइट भाइयों के साथ अपनी पहली अन्वेषण यात्रा पर थे. यात्रा के बाद स्लागेंटवाइट भाइयों ने नैन सिंह रावत के सामने लन्दन आने का प्रस्ताव रखा.
(Cast Ritual in British Kumaon)
अपने प्रस्ताव में स्लागेंटवाइट भाइयों ने कहा कि लंदन में उन्हें 100 रूपये माहवार दिये जायेंगे साथ में घर के गुजारे के लिये पहले 1000 रूपये अलग से दिये जायेंगे पर नैन सिंह रावत के दिमाग में समुद्री यात्रा करने से होने वाले सामजिक भय व्याप्त था इसलिए पहले तो उन्होंने स्लागेंटवाइट भाइयों को लंदन जाने से मना कर दिया पर अंग्रेज साहब न माने.
इस संबंध में जब उसने अपने भाई मानी सिंह रावत से पूछा तो उसने गुस्से में जवाब दिया कि अगर तू इंग्लैंड जाता है तो हमारे लिये तू अभी से मर गया तेरे लिये छाक भी अभी छोड़ देते हैं. जब मानी सिंह रावत को नैन सिंह रावत से पता चला कि अंग्रेज साहब उसकी बात नहीं सुन रहे हैं तो उसने नैन सिंह को वहां से भाग जाने को कहा गया. नैन सिंह ने स्लागेंटवाइट भाइयों को एक लम्बा खत लिख छोड़ा और रातों रात वहां से निकल गये.
(Cast Ritual in British Kumaon)
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पहाड़, पहाड़, रे पहाड़। कोटि कोटि नमन है जाति व्यवस्था और सड़ी गली, अतार्किकता का प्रतिनिधित्व करने वाली परम्पराओं, प्रथाओं और ऐसी कुत्सित सोच को पुष्पित पल्लवित करने वाले पहाड़ को। उस सोच ने, जिसने आदमी की प्राकृतिक और अन्तर्निहित प्रतिभा से अधिक महत्व, उसकी जाति और जन्म/पैदाइश को दिया, उसने 2022 में भी पहाड़ का साथ नहीं छोड़ा है और यहां के गांव गांव, शहर शहर में सख्त ढंग से चिपक कर अगले 500 वर्षो तक भी चिपके रहना है। एक बार फिर नमन है जाति व्यवस्था के गोबर में सने हुए पहाड़ को।
Abhay pant ji,
क्या लिख रहे आप!?
आपके लिखे शब्दों से 'आयरीन पंत' का स्मरण होता हमें।