बचपन से लेकर जवानी के दिनो तक हम गौचर कस्बे को मेले के लिए जानते थे. गौचर-पानाई का समतल, सेरे (तलाऊ जमीन), विद्यालयी शिक्षा बोर्ड परीक्षा का मूल्यांकन केन्द्र, जिला शिक्षा एवं प्रशिक्षण संस्थान, पॉलिटैक्निक, इण्टरकालेज, बीटीसी, सेना भर्ती स्थल, हवाई पट्टी के साथ अन्य गतिविधियों का केन्द्र होने के कारण भी गौचर में खूब रहना-खाना होता रहा. पर कभी भी किसी ने नहीं बताया कि यहां कैप्टेन धूम सिंह चौहान का मकान भी है.
(Caption Dhoom Singh Chauhan)
हम ईरान-तूरान की बहुत छौंकते पर कभी किसी ने एक लफ़्ज़ सरदार बहादुर कैप्टन धूम सिंह चौहन के बारे में नहीं बोला. बोलते कहां से? जब सुना ही नहीं. हमने सैकड़ों सच्ची-झूठी गल्प, छ्वीं, किस्से, कहानियां सुनी, पर किसी ने कैप्टेन धूमसिंह चौहान का किस्सा सुनाने की जहमत नहीं उठाई. हमारी स्मृतियों में सुपरमैन जैसे कई काल्पनिक हीरोज और जांबाज हैं पर कैप्टन धूम सिंह चौहान हमारी स्मृतियों और किस्से-कहानियों का हिस्सा नहीं बन पाये.
हमने पराक्रम तो दिखाया पर उसे संभाला नहीं. हम अपने पूर्वजों के शौर्य और महान उपलब्धियों को सजा-संवार नहीं पाये. हमारी इतिहास चेतना, दस्तावेजीकरण और अभिलेखीकरण कमजोर है. हम पूर्वजों की गौरवगाथाओं के ऐतिहासिक सूत्रों को सहेजने-समेटने को लेकर बहुत उत्साहित नहीं रहे.
इसलिए ब्रिटिश जनरल सर जेम्स विलकॉक्स ने प्रथम विश्वयुद्ध की समाप्ति पर कहा था कि ब्रिटेन और अन्य श्वेत देशों के सैनिकों को आसानी से उनकी कथा को सहेजने-लिखने वाले इतिहासकार मिल जाएंगे पर भारत इस मामले में इतना भाग्यशाली नहीं है. यह भी कि भावी पीढ़ियों को रोमांचित करने के लिए भारतीय सैनिकों के हक में ऐसे लेखक होंगे ही नहीं. इस महायुद्ध में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले भारतीय सैनिक, समय के साथ, भारत के विशाल जनसमुदाय में गुम हो जाएंगे, ये सोचते हुए कि उन्होंने अपना सैन्य कर्तव्य निभाया और नमक के प्रति वफादार रहे.
सर जेम्स के इसी कथन ने देवेश जोशी को प्रथम विश्वयुद्ध के अचर्चित अनसंग हीरोज़ कैप्टन धूम सिंह चौहान पर किताब लिखने की प्रेरणा दी. कैप्टन धूम सिंह चौहान की उपलब्धियां हमें न सिर्फ चमत्कृत और गौरवान्वित करती हैं बल्कि झकझोरती और चुनौती भी देती है कि हमें अपने प्रदेश की वीर सैन्य परम्परा के अभिलेखीकरण और दस्तावेजीकरण की ठोस पहल करनी कितनी जरूरी है.
(Caption Dhoom Singh Chauhan)
धूम सिंह चौहान गढ़वाल राइफल्स के पहले भारतीय ऑफिसर थे जो राइफलमैन के रूप में भर्ती हुए और किंग्स कमीशन प्राप्त कर सरदार बहादुर का खिताब और जागीर प्राप्त कर 31 साल की सेवा के बाद सेवानिवृत्त हुए थे. गढ़वाल रेजिमेंटल सेंटर लैंसडाउन ने 1987 में प्रकाशित शताब्दी स्मारिका में पूरे पृष्ठ पर धूम सिंह चौहान जी का चित्र प्रकाशित किया है. इस स्मारिका में ये गौरव प्राप्त करने वाले वे एकमात्र भारतीय ऑफिसर हैं.
कैप्टेन धूम सिंह चौहान में चुनौतियों को स्वीकार करने और उन्हें विजित करने का अद्भुत जज़्बा था. बीसवीं शताब्दी की शुरुआत में जब अपर गढ़वाल यातायात और संचार के साधनों से विहीन था, शिक्षा-स्वास्थ्य की सरकारी व्यवस्था का अत्यन्त अभाव था, सेना में भी गिने-चुने लोग ही कार्यरत थे, तब धूम सिंह चौहान ने न सिर्फ सेना में भर्ती होने की चुनौती को स्वीकार किया बल्कि सेना में रहते हुए ही सीखने के प्रति हमेशा सचेत और सक्रिय रहे. प्रथम विश्वयुद्ध के समय सिग्नलिंग के लिए भले ही संक्रमण-काल और प्रयोग का समय रहा हो, पर उन्होंने इस सर्वथा नवीन क्षेत्र में भी दक्षता हासिल कर एक कुशल सिग्नलर और सिग्नल इंस्ट्रक्टर के रूप में अपनी पहचान बनायी. प्रथम विश्वयुद्ध में फ्रांस में 1914-15 में बहादुरी से लड़े. दो बार घायल भी हुए. प्रथम विश्वयुद्ध के बाद 1919 में तृतीय अफगान युद्ध में शामिल होकर ऐतिहासिक विजय के सहभागी बने. इस युद्ध में महत्वपूर्ण योगदान के लिए 1920 में धूम सिंह चौहान को ‘आर्डर ऑफ ब्रिटिश इण्डिया’ प्रदान किया गया था.
कैप्टन चौहान सेवानिवृत्ति के पश्चात सामाजिक सेवा में संलग्न हो गए. ये भी एक संयोग है कि प्रथम विश्वयुद्ध के नायक वी०सी० दरबान सिंह नेगी भी सेवानिवृत्ति के बाद सामाजिक कार्यक्रमों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेने लगे थे. वीसी साहब की मांग पर सम्राट जार्ज पंचम ने कर्णप्रयाग में मिडिल स्कूल खोलने की स्वीकृति प्रदान की थी. जो कि 1918 में ही खुल गया था. कैप्टन धूम सिंह चौहान ने भी 1934 में सेवानिवृत्त होते ही गौचर में स्कूल स्थापना हेतु स्थानीय लोगों को जागरूक करना प्रारम्भ कर दिया था. सीमित जनसंख्या और संसाधनों के बावजूद 1947 में वो गौचर में पब्लिक जूनियर हाई स्कूल की स्थापना करने में सफल रहे. अपने जीवनकाल में वो इस स्कूल के उच्चीकरण के लिए भी निरन्तर प्रयासरत रहे. वास्तविकता यह है कि तत्कालीन अपर गढ़वाल में गौचर को शैक्षिक केन्द्र के रूप में उभारने में कैप्टेन धूम सिंह चौहान का योगदान अविस्मरणीय है.
कैप्टन धूम सिंह चौहान जी की उपलब्धियों को समीक्ष्य पुस्तक में 26 शीर्षकों अन्तर्गत प्रस्तुत किया गया है. ये हैं-पृष्ठभूमि, सेना में भर्ती होना, सीखने-सिखाने की ललक, ब्रिटिश भारतीय सेना के प्रथम सिग्नलर, प्रथम विश्वयुद्ध में प्रतिभाग, प्रथम विश्वयुद्ध की प्रमुख लड़ाइया,ँ प्रमोशन के आज्ञापत्र, उत्तर-पश्चिम-सीमा-प्रांत में, चित्राल, क्वेटा में गैरिसन ड्यूटी, किंग जॉर्ज पंचम के ऑर्डली अफसर, अशांत बंगाल में, रैंक, प्रमोशन, डेकोरेशन अवार्ड्स, सेवानिवृत्ति, गवर्नर यूनाइटेड प्रोविंस के ए०डी०सी०, वायसरॉय ऑफ इंडिया के साथ, गवर्नर द्वारा सनद व गवर्नर कैम्प के पत्र, जनरल, कमांडर-इन-चीफ का पत्र, सेवानिवृत्ति पश्चात जीवन, डोनेशन्स टु रेडक्रॉस, डोनेशन्स, सोल्जर बनेवलंट फंड, सेवानिवृत्ति के पश्चात निर्मित भवन, सेवा दस्तावेज, कैप्टन धूम सिंह चौहान का सैन्य सेवा अवकाश विवरण, डिस्चार्ज सर्टिफिकेट का विवरण, सैन्य-उत्तराधिकारी और संतति. अंत में संदर्भ ग्रंथ सूची भी दी गई है.
(Caption Dhoom Singh Chauhan)
पुस्तक के अग्रलेखों में-‘गढ़वाल राइफल्स परिवार की ओर से’ और ‘लेखक की ओर से’ के साथ सुरेन्द्र सिंह चौहान (पुत्र), दिग्विजय सिंह चौहान (पौत्र), संजीव चौहान (पौत्र) द्वारा ‘परिजनो की ओर से’ शीर्षक के अन्तर्गत लिखी टिप्पणी और कैप्टैल धूम सिंह चौहान की पुत्री श्रीमती गोदावरी चौहान कण्डारी का संस्मरण पुस्तक को प्रामाणिक, आत्मीय और खूबसूरत बना देते हैं. इस काम के लिए ब्रिगेडियर हरमींत सेठी से लेकर परिजनों से सम्पर्क साधना, लिखवाना लेखक की मेहनत को दर्शाता है.
ग्लैज्ड पेपर, सुन्दरर छपाई और खूबसूरत कवर के साथ छपी 87 पृष्ठों की इस पुस्तक में लेखक ने गैरजरूरी विस्तार से बचते हुए यत्र-तत्र ऐतिहासिक महत्व के दस्तावेजों, सर्विस रिकॉर्ड्स, सनदों, फोटो और सूचनाओं को टेबिल के रूप में दिया है. कैप्टन साहब की उपलब्धियों की प्रस्तुति का ये तरीका कारगर और प्रभावी तो लगती ही है साथ ही ये पुस्तक को प्रमाणिक, रोचक और पठनीय भी बना देते हैं. इन दस्तावेजों से होकर गुजरना उस दौर की सैन्य स्थितियों और सरदार बहादुर कैप्टन साहब की उपलब्धियों को देखना जैसा है. ये सामग्री खुद-ब-खुद कैप्टन साहब के जीवन और शौर्य की कथा कह देती हैं. वस्तुतः आज की नई पीढ़ी इसी रूपाकार में जानकारियों को चाहती है.
एक शताब्दी से भी अधिक पुराने कालखण्ड के सैन्य योगदान और उपलब्धियों को समझना, सौ बरस पुराने कालखण्ड में जाना, जिला सैनिक कल्याण बोर्ड में प्रथम विश्वयुद्ध के सैनिकों का कोई रिकॉर्ड उपलब्ध न होना, आधरभूत सामग्री का अभाव, हमारा और हमारी सरकारों का इतिहास बोध और चेतना का अभाव के बावजूद लेखक के द्वारा इस पुस्तक का लेखन वास्तव में बहुत ही परिश्रम का कार्य है जो कि पुस्तक में दिखता है. पुस्तक में प्रयुक्त आधारभूत दस्तावेजों को प्राप्त करना, परिजनों, संबंधित व्यक्तियों तक संपर्क बनाना, एक वर्ष के गहन अध्ययन और शोध के बाद लिखी गई ये पुस्तक सिर्फ एक पुस्तक नहीं दस्तावेज भी है जो भविष्य में हमारी गौरव गाथा से हमें परिचित कराता रहेगा. इसे हम वीसी दरवान सिंह, गबर सिंह और जसवंत सिंह जैसी वीर सैन्य परम्परा के स्वर्णिम इतिहास की एक और उपलब्धि और ऐसे वीर सैनिकों की वीरता और बलिदान को याद किये जाने के साथ श्रद्धांजलि के रूप में भी देख सकते हैं. किताब ये भी कर रही है कि और भी ऐसे अचर्चित अनसंग हीरोज की वैयक्तिक और संस्थागत दोनो स्तरों पर खोज कर उनसे संबंधित दस्तावेजों और ब्यौरो को सिलसिलेवार संरक्षित किया जाना जरूरी है. इस हेतु सरकारी स्तर पर भी प्रयास होने चाहिए.
(Caption Dhoom Singh Chauhan)
1 अक्टूबर 1921 को गढ़वाल राइफल्स रेजिमेंटल सेंटर की स्थापना हुई थी. शताब्दी वर्ष 2021 के अक्टूबर माह में ही समीक्ष्य पुस्तक का प्रकाशित होना भी अत्यंत महत्वपूर्ण है. इसलिए भी कि पुस्तक के नायक, रेजीमेंटल सेंटर के वरिष्ठतम वीसीओज़ में से एक थे. पुस्तक के लिए लेखक देवेश जोशी बधाई के पात्र हैं.
पुस्तक का नामः गढ़वाल राइफल्स के अग्रणी नायक : कैप्टन धूम सिंह चौहान
लेखक : देवेश जोशी
प्रकाशक : विनसर पब्लिशिंक, 4 डिस्पेंसरी रोड़, देहरादून.
पृ.सं. : 87
मूल्य : 150.00
(Caption Dhoom Singh Chauhan)
1- विनसर प्रकाशन, घोसी गली (डिस्पेंसरी रोड) देहरादून.
2- बुक वर्ल्ड, एस्ले हाॅल देहरादून.
3- ऋषि पुस्तक केन्द्र, गोपेश्वर.
4- रावत बुक डिपो, गौचर.
नंद किशोर हटवाल उत्तराखंड के सुपरिचित कवि, लेखक, कलाकार व इतिहासकार हैं. उन्हें उत्तराखंड की लोक कलाओं के विशेषज्ञ के तौर पर भी जाना जाता है.
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कैप्टन धूम सिंह अथवा कोई भी जो अंग्रेजों या मुग़लों के प्रति निष्ठावान था हमारा नायक नही हो सकता। अखित भारत की पराधीनता का मुख्य कारण ही ये अंग्रेज हुमकरानो के वफादार ही थे। अंग्रेज तो मुट्ठी भर ही थे पर वो हम पर राज कर पाए तो इन्ही कारणों से। जब खुदीराम बोस 18 साल की उम्र में फंसी पर चढ़ रहे थे तब कैप्टन साहब जागीर से नवाजे जा रहे थे। और आप उनको महिमामंडित करना चाह रहे हैं।आप को ऐसे लेखक प्रसंशा के योग्य लग रहे हैं। उनका भी क्या दोष, यंग बंग आंदोलन ऐसे विचारों का नई पीढ़ी में रोपण करने के लिए ही तो चलाया गया था।