उत्तराखण्ड और हिमाचल में पहाड़ी, पुरानी दीवाली का पर्व मनाया जाता है. यह मुख्य दीवाली के 11 दिन बाद, कार्तिक शुक्ल एकादशी, को मनाया जाने वाला त्यौहार है. इसे हरिबोधिनी या देवोत्थान एकादशी के नाम से भी जाना जाता है. इसके पौराणिक सन्दर्भ में कहा जाता है कि आषाण मास के शुक्ल पक्ष में पढ़ने वाली एकादशी (हरिशयनी एकादशी) के दिन भगवान विष्णु और महाबली राक्षस शंखासुर के साथ भयंकर युद्ध हुआ था. इस युद्ध में विष्णु बहुत थक गए. थककर वह क्षीरसागर में जाकर शेषशय्या पर सो गए और फिर चार मास तक सोते रहे. इसके बाद वे शुक्ल एकादशी, जिसे हरिबोधिनी या देवोत्थान एकादशी कहा जाता है, को उठे.
इसे व्रतोत्सव के रूप में मनाया जाता है. उत्तराखण्ड के कुमाऊं मंडल में इसे बूढ़ी दीवाली के रूप में मनाया जाता है. यहाँ के लोगों की मान्यता है कि दीपावली के तीन रूप हैं जो कि लक्ष्मी की तीन अवस्थाओं का द्योतक हैं—पहला, कोजगर (को जागर्ति कौन कर रहा है) पूर्णमासी को मनायी जाने वाली छोटी दीवाली उसकी बाल्यावस्था का. दूसरा, कार्तिक कृष्णपक्षीय अमावस्या को मनाया जाने वाला महालक्ष्मी पूजन, उसकी यौवनावस्था को. तीसरा कार्तिक पूर्णिमा को मनायी जाने वाली बूढ़ी दीवाली उसकी वृद्धावस्था का निदर्शन करती है. इस दिन लोग अपने घरों के छज्जों या छतों पर गन्ने लटका देते हैं ताकि लक्ष्मी जी उसके पोरों की सीढ़ियों पर पैर रखकर घर के अन्दर आ सकें.
इस सम्बन्ध में यह भी मान्यता है कि निद्रा से जागने उपरान्त भगवान विष्णु ने क्षीरसागर से बाहर निकलने के लिए गन्ने की सीढ़ी का सहारा लिया था.
गढ़वाल के रंवाई जौनपुर, बूढ़ाकेदार, धरासू, डूंडा, टकनौर, बड़कोट एवं टिहरी के कई अन्य क्षेत्रों में भी दीवाली का यह पर्व मैदानी क्षेत्रों में मनायी जाने वाली दीवाली के ठीक एक महीने बाद मार्गशीर्ष की अमावस्या को मनाया जाता है.
हिमाचल प्रदेश में भी इसे कार्तिक शुक्ल एकादशी को मनाया जाता है. जिसे बूढ़ी दीवाली, कोलेरो दीवाली एवं देशारी दीवाली कहा जाता है. जौनपुर में इस मौके पर 5 दिनों का उत्सव हुआ करता था जो अब 2-3 दिन का ही रह गया है.
(उत्तराखण्ड ज्ञानकोष, डी. डी. शर्मा के आधार पर)
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ये कुछ गड़बड़ लिखा है।
जहाँ तक टिहरी, उत्तरकाशी की बात है, मैं वहीं का हूँ।
जौनसार, जौनपुर, रवाईं, उत्तरकाशी, रैका-रमोली(टिहरी का प्रतापनगर), थौलधार आदि क्षेत्रों में बूढ़ी बग्वाल मनाई जाती है, एगाश नहीं। बूढ़ी बग्वाल, रिख बग्वाल का ही नाम है जो दीवाली के ठीक 1 महीने बाद होती है।
एगाश बग्वाल कार्तिक शुक्ल एकादशी को, दीवाली के 11 दिन बाद होती है, जो टिहरी के कुछ इलाकों, एवं पौड़ी, चमोली, रुद्रप्रयाग में होती है।