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अंग्रेजों के जमाने में उत्तराखंड के पुल

उत्तराखंड में अनेक नदियां बहती हैं और इन नदियों को पार करने के लिये यहां अनेक पुल हैं. पहाड़ी इलाकों में आज भी रस्सी के पुराने झूला पुल देखने को मिल जाते हैं. उत्तराखंड में पुल ग्रामीण जीवन में स्तंभ के रूप में कार्य करते हैं. उत्तराखंड में पुलों के विषय पर कुमाऊं कमिश्नर ट्रेल की एक टिप्पणी पढ़िये- (Bridges of Uttarakhand in British era)

पहाड़ी नदियों का उत्कट वेग खास तौर पर बरसात में सम्पर्क व संचार के रास्ते में बड़ी रूकावट है. पुलों के अभाव में व्यापारी, उनका सामान व पशु घाट पर रहने वाले लागों की सहायता से नदी पार करते हैं, जो सुखाए गए तूम्बों की मदद से तैरते हैं. (Bridges of Uttarakhand in British era)

पुल चार प्रकार के हैं. पहली तरह का पुल डंडे को एक किनारे से दूसरे किनारे अड़ा कर बनाया जाता है. दूसरी तरह के पुल में लकड़ी की एक के ऊपर दूसरी तह होती है तथा दोनों किनारों से हर ऊपर की लकड़ी अपने नीचे की बल्ली से आगे निकली होती है. इस तरह हर ऊपर की बल्ली दूसरे किनारे को बढ़ी होती है. ये बल्लियाँ तब तक एक के ऊपर-एक रखी जाती हैं जब तक दोनों तरफ की बल्लियाँ एक दूसरे के इतने करीब न पहुँच जाएं कि ऊपरी तह पर एक ही बल्ली रख दी जाय. आगे आई लकड़ी के पिछले हिस्से को पत्थरों की पील-पाई से कसा जाता है. इन्हें सांगा पुल कहते हैं और इन पुलों की लम्बाई सामान्यतः दो से तीन बल्लियों के बराबर होती है. कई बार इसके दोनों ओर रेलिंग भी बनाई जाती है.

तीसरी तरह के पुल को झूला पुल कहते हैं. इसमें दो जोड़े रस्से एक किनारे से दूसरे किनारे डाले जाते हैं और इनके किनारे दोनों ओर तटों पर कस दिये जाते हैं. इन रस्सों पर तीन फीट लम्बी डोरियों के सहारे दो फीट चौड़ी, हल्की सीढ़ी बिछा दी जाती हैं. इस तरह ऊपर की रस्सियां जंगले का काम करती हैं और बिछी सीढ़ी की खपच्चियों में पांव रखकर आगे बढ़ते हैं. झूला पुल को भेड़-बकरियों के जाने लायक बनाने के लिए इन खपच्चियों को एक दूसरे के इतने  पास बुन दिया जाता है कि वे इन पर चल सकें. इस तरह के पुल के निर्माण के लिए दोनों तट ऊँचे होने चाहिए और जहाँ यह          सुविधा नहीं होती वहाँ दोनों किनारों पर लकड़ी के स्तम्भ गाड़ कर रस्से उनके ऊपर से गुजारे जाते हैं.

चौथे किस्म के पुल में नदी के आर-पार एक ही रस्सा डाला जाता है और इस पर एक लकड़ी की चकरी के सहारे एक टोकरी लटका दी जाती है. यात्री या समान को इस टोकरी में रख दिया जाता है और दूसरे किनारे से एक व्यक्ति टोकरी से जुड़ी रस्सी को खींचता है. इसे छिनका कहते है.

बाद के दो किस्म के पुल बहुत सस्ते में बनम जाते हैं क्योंकि इनके रस्से फिसलन वाली घास ‘बाबड़’ के बनते हैं जो इस क्षेत्र में बहुतायत में होती है. टर्नर ने तिब्बत में लोहे  की जंजीर के जिन पुलों का जिक्र किया है, ऐसा लगता है कि वे पुराने समय में इस्तेमाल होते थे और अब उनके कोई चिह्न नहीं मिलते. ब्रिटिश हुकुमत के अधीन कई सांगा पुल बनाए गए हैं और चूँकि लकड़ी के जल्दी खराब हो जाने के कारण हर तीन-चार साल बाद ये बदलने पड़ते हैं इसलिए यह पाया गया कि अब लोहे की जंजीर वाले पुल बनाए जाने चाहिए.

एटकिंसन की पुस्तक हिमालयन गजेटियर का हिन्दी अनुवाद. यह अनुवाद प्रकाश थपलियाल द्वारा किया गया है.

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Girish Lohani

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