उत्तराखंड में इन दिनों हिल टॉप शराब टॉप पर है. हिल टॉप की बॉटलिंग फैक्ट्री लगाने का लोग समर्थन और विरोध बराबर कर रहे हैं. विरोध करने वाले इस लिये विरोध कर रहे हैं क्योंकि शराब एक बुरी चीज है. विरोध करने वालों में कई तो ऐसे हैं जिन्हें विरोध में आवाज दुरुस्त करने के लिये ख़ुद एक हाफ लगता है.
समर्थन करने वाले का तथ्य है कि यहां खपत अधिक है अगर यहीं शराब बनाकर यहीं पिला दी जाय तो सरकार को डब्बल मुनाफ़ा होगा. साथ ही यहां के लोगों को रोजगार भी मिलेगा. समर्थन करने वालों ने शराब के उत्पादन को फलों से जोड़कर गर्त में जाती उत्तराखंड की कृषि को उबारने का सुझाव भी दिया है.
समर्थन करने वालों को लगता है कि यहां हिल टॉप बाजार में आई और अगले दिन से उत्तराखंड में हर शराब पीने वाला हाथ में हिल टॉप की बोतल लेकर नाचेगा. शादियों में केवल हिल टॉप की बोतलें खुलेंगी. सरकार के खज़ाने हिल टॉप बेचने से भर जायेंगे और अर्थव्यवस्था पटरी पर आ जायेगी.
कई लोगों को यह बात बुरी लग सकती है लेकिन पहाड़ के विषय में एक सत्य यह कि यहां के पैसे वाले लोगों ने शराब के प्रचलन को हमेशा बढ़ावा दिया है. यहां दैनिक मजदूरी के बदले शराब देने का प्रचलन बहुत पुराना है.
पहाड़ में आज पैसे से ज्यादा शराब बोलती है जो काम हज़ार रुपया नहीं करा सकता वह 250 का क्वाटर करा सकता है. पहाड़ों में औसतन दस परिवारों में चार परिवार शराब के कारण बरबाद हुये हैं. हमारे आस-पास ऐसे हजारों की संख्या में ऐसे परिवार हैं जो केवल और केवल शराब के कारण बर्बाद हुये हैं.
इन सब बातों की अनदेखी कर सरकार को लगता है कि शराब से ही इस राज्य की नैय्या पार होगी तो सबसे पहले सरकार को उत्तराखंड की आर्मी कैंटीन में अपनी हिल टॉप पहुंचानी होगी क्योंकि जिस खपत के आधार पर सरकारी ख़जाने भरने का यह ख्वाब बुना जा रहा है उसकी नींव इन्हीं आर्मी कैंटीन में है.
लगने को यह बात भी बुरी लग सकती है लेकिन पहाड़ के समाज का एक सच यह भी है कि यहां शराब का प्रचलन बढ़ाने में फौजियों की भूमिका नजरअंदाज नहीं की जा सकती.
1947 से पहले कुमाऊं और गढ़वाल दोनों ही इलाकों में शराब का सेवन करने वालों को गुलाम मानसिकता का शिकार माना जाता था. आज़ादी के बाद से ही पहाड़ में शराब का प्रचलन लगातार बड़ता रहा जिसे उत्तराखंड बनने के बाद सरकार ने एक नीतिगत तरीके से लगातार बढ़ाया है.
अगर आप 1861 में कुमाऊं के सीनियर कमिश्नर गाइलस की आबकारी प्रशासन की रिपोर्ट पढेंगे तो उसमें लिखा है कि
अभी भी पहाड़ी लोग नशे के व्यसन से मुक्त हैं. यद्यपि भोटिया बदरीनाथ के निचले इलाकों और मार्छा लोगों में यह स्थानीय पेय, जिसे उधर के लोग मार्छापाणी के नाम से जानते हैं, नशे के रूप में प्रयुक्त होता था.
आज उत्तराखंड में 52 फीसदी लोग रिकार्ड शराब पी रहे हैं. 17 से 40 आयु वर्ग के 40 प्रतिशत लोग शराब का सेवन कर रहे हैं. जिस शराब की आज खपत गिनाई जा रही है वह नीतिगत तरीके से बढ़ाई गयी है.
सरकार द्वारा जारी किये गए आर्थिक सर्वेक्षण के मुताबिक़ साल 2001-02 में उत्तराखंड की राजस्व आय में सरकार ने शराब से आय का लक्ष्य 222.38 करोड़ रखा था. 2018-19 में यह लक्ष्य 2650 करोड़ किया गया. सरकार ने हर साल दस प्रतिशत से ज्यादा की वृद्धि दर के साथ शराब से आय के लक्ष्य को बढ़ाया है. 2000 से अब तक एक भी सरकार ऐसी नहीं है जिसने शराब से अपनी आय के लक्ष्य को कम किया हो.
फिलहाल राजस्व आय के लिये सरकार की इस पहल के चित्र का आनन्द लीजिये :
-गिरीश लोहनी
काफल ट्री के फेसबुक पेज को लाइक करें : Kafal Tree Online
काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री
काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें
लम्बी बीमारी के बाद हरिप्रिया गहतोड़ी का 75 वर्ष की आयु में निधन हो गया.…
इगास पर्व पर उपरोक्त गढ़वाली लोकगीत गाते हुए, भैलों खेलते, गोल-घेरे में घूमते हुए स्त्री और …
तस्वीरें बोलती हैं... तस्वीरें कुछ छिपाती नहीं, वे जैसी होती हैं वैसी ही दिखती हैं.…
उत्तराखंड, जिसे अक्सर "देवभूमि" के नाम से जाना जाता है, अपने पहाड़ी परिदृश्यों, घने जंगलों,…
शेरवुड कॉलेज, भारत में अंग्रेजों द्वारा स्थापित किए गए पहले आवासीय विद्यालयों में से एक…
कभी गौर से देखना, दीप पर्व के ज्योत्सनालोक में सबसे सुंदर तस्वीर रंगोली बनाती हुई एक…