पहाड़ों खासकर कुमाऊं में चैत्र माह यानी नववर्ष के पहले महिने बहिन बेटी को भिटौली देने की एक अनूठी परम्परा है जो कि सदियों से चली आ रही है और आज भी बदलते समय में नये कलेवर के साथ मौजूद है.
(Bhitauli Festival Tradition Culture Uttarakhand)
चैत बैसाख का महिना वसन्त ऋतु का कहलाता है और यह प्यार का मौसम होता है पर मेरा मानना पहाड़ के सन्दर्भ में बिलकुल उलट है. पतझड़ के बाद जब नई कोपलें फूटती है फलों के बौर आ जाते हैं कोयल कूकती है, नये फूल खिलते हैं और मैदानी भागों के हिसाब से यह प्यार का मौसम होता है पर मुझे तो यह मौसम कविताओं में ही ठीक लगता है.
हकीकत में तो जब बौर आते हैं, नई कोपलें फूटती हैं तो पहाड़ों में ये पौई दिन कहलाते हैं और एक आलस सा आ जाता है शरीर में. बड़े-बुजुर्गो को अक्सर यह कहते सुना जाता है कि इस मौसम में पुरानी बीमारियों को भी पौई (दोबारा उत्पन्न होना, कोपलों पत्तो का) आ जाती है. सबसे मजेदार अन्य जगहों के प्यार के उलट पहाड़ों में यह मौसम तो विरह का सा मौसम हो जाता है.
भिटौली की आस में बैठी बहिनों की नराई इसी महिने होती है. चैत्र के महिने को पहाड़ों में काला महिना कहते हैं और नवविवाहिता इस महिने ससुराल से मायके आकर रहने लगती है. मान्यता है कि चैत्र महिने नवविवाहिता को पति का मुंह नहीं देखना होता है. बड़े-बुजुर्गों ने शायद यह परम्परा इसलिए बनाई होगी ताकि नई ब्योली (बहू) एक महिना अपने मायके रह सके. बाद में कारबार की व्यस्तता या अपनी सुविधानुसार यह पूरे महिने को घटाकर चैत के शुरू के पांच दिन कर दिये गये होगे.
पहले पहाड़ों मे विषम भौगौलिक स्थिति यातायात के साधनों का अभाव और संचार-साधन न होने की वजह से लोगो का जीवन कष्टकारी था और महिलाओं का तो बहुत ही ज्यादा. ब्वारियों के लिए तो ससुराल अत्यंत ही कठिन था. कम उम्र में शादी का होना और ससुराल जाकर गृहस्थी का बोझ उस पर लद जाना उसके लिए कैसा रहता होगा आप कल्पना कर सकते हैं. बचपन ढंग से गया भी नहीं होता था और खेलने कूदने की उम्र में उसे ससुराल जाकर सास के कठोर अनुशासन मे रहना होता था. तरह-तरह की बन्दिशें लगी रहती थी ब्वारियों पर.
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मैत (मायका) आना-जाना या मैत वालों का बेटी से मिलना भी कम ही हो पाता था. ऐसे में हर नई ब्वारी को मैत की याद आती रहती थी और हर समय एक नराई सी लगी रहती थी. ब्वारियों की इन दशा पर न जाने कितने विरह गीत न्यौलियां बनी होगी. ब्वारियां खुद भी इन न्यौलियों को गाकर नराई फेड़ने की कोशिश करती पर वह कम होने की जगह बढ ही जाया करती थी.
ब्वारियों का मैत वालों से मिलन या तो किसी काम काज में होता या चैत के महिने. चैत के महिने इसलिए क्योंकि इस महिने यहां पर अपनी बैणी या दीदी को भिटौली (भिटौइ) देने की परम्परा थी. भिटौली में भाई अपनी बहिन के लिए उपहार लेकर मिलने यानी भेंट करने जाता है. भिटौली को लड़की की मां तैयार करती है जिसमें पहाड़ी पकवान सिगल पुवे, खजूरे, सै (साइ) सकरपारे, पुड़ी, आदि बनाये जाते थे. इसके अलावा लड़की के लिए कुछ कपड़े रखे जाते थे जिसकी एक छापरी (टोकरी) तैयार की जाती जिसमें कुछ फल, केले, गुड़, मिसिरी, रुपये पैसे, आदि भी होते थे. अगर घर में धिनाली हो तो एक दही की ठेकी भी भांग के ल्वाते की रस्सी की बनी एक जाली में रखी जाती थी. मतलब जो भी भेंट आप बेटी को देना चाहें वो दे दिया जाता था. भिटौली में खीर या खिरखाज भी बनाकर रखी जाती थी. मां-बाप की ममता ठहरी बेटी को जितना दिया जा सके. बेटियां अपने ससुराल के गांव में बडे गर्व से अपनी भिटौली बांटती भी हैं.
पहाड़ों में कुछ काफल समय से पहले पक जाते हैं जिन्हें भिटौई काफल कहा जाता है और मान्यता है कि जब तक बहिन को भिटौली न दी जाय या लड़की की भिटौली न आ जाय तब वो काफल चखे नहीं जाते. ये काफल पहले भिटौली में रखने का चलन भी रहा है.
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चेली भी मैत से आने वाली अपनी भिटौली का इन्तजार करती रहती थी. इन्तजार उन चीजों का तो हुआ ही जो मां के हाथ से बनी होगी उनमें मैत की सुगंध होगी मां का प्यार होगा लेकिन भिटौली लेकर आने वाले उस भाई या पिता का भी इन्तजार हुआ जिनके साथ वह ढंग से खेल भी नहीं पाई रह भी नहीं पाई.
भिटौली का इन्तजार करती बहिन और चैत के महिने की प्रतीक्षा करते भाई के प्यार-विरह पर लगभग हर लेखक ने कलम चलाई होगी, लगभग हर लोकगायक ने न्यौली और विरह गीत गाकर कितनों के आँखो मे आंसू ला दिये होंगे.
लड़की जब ससुराल को विदा होती या कभी ससुराल मे मैत की तरफ का दिख जाये तो उसके भावुक होने पर लोग यही दिलासा देते थे – डाड़ नि मार आब्बै तेर भै भिटौई दिणतै आल. भिटौई एक आस होती थी, मायके के समाचार जानने की. जिसकी भिटौली आ गयी वह भाग्यवान जिसकी किसी मजबूरी मे न आ पाये या जिसका भाई न हो या आने लायक न हो वो बेचारी तड़पती रहती थी.
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ऐसी ही एक लोककथा प्रचलित है – एक ब्वारी का भाई बहुत छोटा था जिस कारण भिटौली देने नहीं आ पाता था वह बेचारी अन्य लोगों की भिटौली आती देखकर मन ही मन उदास रहा करती थी. जब उसका भाई कुछ बड़ा हो गया तो उसे आस जगी कि हो सकता है इस साल भाई भिटौली लेकर आ जाय. उसके मैत वालों ने भी उस साल भाई को भेजने का तय किया. गांव के किसी आदमी से उसे पता चल गया कि इस साल उसका भाई आयेगा लेकिन कब आयेगा पता नहीं था.
अब भाई के इन्तजार में बहिन के दिन बेचैनी से कटने लगे. उसे न रातों को नींद आती न दिन में भूख ही लगती. उसने कई रातें ऐसे ही निकाल दी. जिस दिन उसका भाई लम्बी यात्रा करके भिटौई की छापरी लेकर आया वह उस दिन दुर्भाग्य से दिन में सो गयी. भाई के इन्तजार में व्याकुल कई रातो की जगी कमजोर हो चुक थी तो सोते ही लगभग बेहोसी की सी नींद के आगोश मे चली गई.
भाई आया और बहिन को आवाज दी तो बहिन जाग नहीं पायी. भाई बहिन के सिराहने बैठा बहिन के उठने की प्रतीक्षा करने लगा. भाई को उसी दिन वापस जाना था क्योंकि अगले दिन शनिवार था और परम्परानुसार छन्जर छाड़ और मंगल मिलाप नहीं करते थे. रास्ता लम्बा था तो भाई को वापसी की भी जल्दी थी इसलिए भाई भिटौली की टोकरी बहिन के पास रखकर चुपचाप वापस चल दिया.
(Bhitauli Festival Tradition Culture Uttarakhand)
शाम को जब बहिन की आँख खुली तो पास में भिटौली की छापरी देखकर समझ गयी कि इतनी दूर से भाई आया होगा वह भूखा प्यासा होगा और मैं सोती रह गयी. वह अपने आप को कोसने लगी और बुदबुदाने लगी – भै भुकी, मैं सीती… और ऐसा बोलते-बोलते भाई के वियोग मे उसके प्राण पखेरू उड़ गये.
वह लड़की बाद में एक पक्षी बनी जिसे घुघुती कहा जाता है. ये घुघूती आज भी पहाड़ों में बोलती है जो – भै भुखी, मैं सिती… जैसा सुनाई पड़ता है.
वैसे तो भिटौली चैत्र के महिने में दी जाती है लेकिन नवविवाहिता बहिन को ये बैसाख में देने की परम्परा है क्योंकि चैत को काला महिना कहते हैं. वैसे पहली भिटौली नवविवाहिता को विवाह के दिन ही दी जाती है. साड़ी पकवान वगैरह.
भिटौली दूर ससुराल में बैठी बहिन से भेंट (मुलाकात) के रूप में ज्यादा प्रचलित हो गयी लेकिन वास्तव में यह किसी भी लड़की को जन्म लेने के बाद जो पहला चैत का महिना आता है तब से ही दी जाने लगती है. एक दिन लड़की को सिगल पुवे पूरी आदि उसके पसंद का भोजन कराया जाता है और पैसे आदि दिये जाते हैं. यह बेटियों के प्रति सम्मान का प्रतीक भी है.
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अमूमन भिटौली भाई या पिताजी द्वारा दी जाती है लेकिन अगर किसी के पिता या भाई नहीं रहे तो यह कार्य उनके भतीजे यानी बुवा के भद्यो के द्वारा भी किया जाता है. जिस बुजुर्ग महिला को उसके भाई के बच्चे तक भिटौली देते है उस बुवा के लिए यह अतिरिक्त गर्व और सम्मान की बात मानी जाती है. अक्सर कहा जाता है कि फलानी आमा की अब तक भिटौली आती है.
पहले समय में जाकर भेंट करके भिटौली देते थे और मकसद मुलाकात रहता था लेकिन बाद में जब मुलाकात सुलभ हो गयी सड़क आने से गांवों की दूरी कम हो गयी तब यह नराई वाली बात कम हो गयी लेकिन भिटौई की महत्ता कम नहीं हुई.
धीरे-धीरे समय परिवर्तन के साथ मनीआर्डर से होते-होते आधुनिक आनलाइन ट्रांसफर तक होने लगे हैं. अब जब संचार के साधन सुलभ हो गये पर दूर मैदान में रहने और व्यस्तता के दौर में जब जाना-आना संभव नहीं हो पाता तब किसी भी माध्यम से भिटौली भेजकर लोग बहिन को याद कर ही लेते हैं. और रुपये मिलने पर बहिन उन रुपयों से कुछ मिठाई वगैरह खरीदकर पास पड़ोस में बांट लेती है. हालांकि पहाड़ में कुछ जगह पहले की तरह यह परम्परा चालू है जिसमें मिठाई और महंगे गिफ्ट भी भिटौली में शामिल हो गये हैं. मतलब साफ है कि हर नये साल में बहिन को याद किया जाय उसे कुछ उपहार देकर सम्मानित किया जाय.
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वर्तमान में हरिद्वार में रहने वाले विनोद पन्त ,मूल रूप से खंतोली गांव के रहने वाले हैं. विनोद पन्त उन चुनिन्दा लेखकों में हैं जो आज भी कुमाऊनी भाषा में निरंतर लिख रहे हैं. उनकी कवितायें और व्यंग्य पाठकों द्वारा खूब पसंद किये जाते हैं. हमें आशा है की उनकी रचनाएं हम नियमित छाप सकेंगे.
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