दीपावली का पावन त्योहार, जो प्रतीक है 14 वर्ष के उपरान्त भगवान राम के वनवास से लौटने के उल्लास में अयोध्या नगरवासियों द्वारा किये गये उनके भव्य स्वागत का. सहस्त्रों दीपों से अयोध्या नगरी जगमगा उठी और अप्रतिम दीपोत्सव पर्व का आगाज़ हुआ. तबसे वहाँ प्रतिवर्ष इस पावन दिवस की याद में दीपोत्सव मनाया जाने लगा. परन्तु पौराणिक साक्ष्य हमें यह बतलाते हैं, कि इससे पूर्व भी विभिन्न अवसरों पर दीप प्रज्वलित कर दीपोत्सव मनाया जाता था और इसके बाद भी देश के विभिन्न हिस्सों में कुछ विशेष अवसरों पर यह प्रक्रिया अपनाई जाती रही. इन सभी शुभ अवसरों का सम्मिलित रूप आज सम्पूर्ण भारतवर्ष में दीपावली के रूप में अत्यंत हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है. पुरुषोत्तम राम से जुड़े प्रत्येक त्योहार में जब मैं लोगों को जोर-सोर से भाग लेते देखती हूँ तो अनायास ही मेंरा मन-मस्तिष्क अनेकों प्रश्नों से पट जाता है. (Ram Worshipper Ideal)
शान्ति और सौम्यता की प्रतिमूर्ति राम का नाम, जिसके श्रवण मात्र से जीवन का सारा तम, अशान्ति, कलेश, नकारात्मक ऊर्जा आदि का हरण हो जाता है. आज उस नाम का प्रयोग धर्म और श्रद्धा के नाम पर मानवता को दूषित करने के लिए किया जाना किसी दुर्भाग्य से कम नहीं. मानव रूप में नारायण ने मानव को मानवता सिखाने के लिए अद्वितीय उदाहरण प्रस्तुत किए. राम ने समाज में व्याप्त भेदभाव को समाप्त करने के लिए सदैव वंचितों, पिछड़ों एवं शोषित वर्ग का पक्ष लिया, चाहे वह सुग्रीव हो अथवा विभीषण. उन्होंने निषादराज को अपना मित्र बनाया, सबरी के जूठे बेर खाकर छुआछूत और घृणा को नकारने का संदेश दिया. राम को अपना देवता कहकर पूजने वाले हम राम भक्त उनके गुणों को आत्मसात करने की ओर ध्यान क्यों नहीं देते हैं? जिन राम ने परनिन्दा को मृत्यु के समान बताया, उनका गुणगान करने वाले हम झोलियाँ भर-भर कर अपने विपरीत मतावलम्बियों की निन्दा करते क्यों नहीं थकते हैं? राम का चरित्र हमारे लिए आदर्श है, तो फिर अपने आदर्श के आदर्श पर चलने के प्रति हम इतने उदासीन क्यों हैं?
भारतवर्ष में प्राचीनकाल से ही राम नाम अभिवादन का जरिया रहा है. एक दूसरे से भेंट करते समय हमारे पूर्वज जय सिया राम, सीता-राम अथवा राम-राम जैसे सम्बोधनों का प्रयोग अपने दैनिक आचार-व्यवहार में करते रहे. परन्तु कुछ समय पूर्व से एक नवीन ही चलन समाज में चल पड़ा है. हम में से अधिकांश भेड़चाल चलने वाले लोगों द्वारा राम का नाम इसलिए नहीं लिया जाता क्योंकि हमें उनमें श्रद्धा है, वरन् इसलिए लिया जाता है क्योंकि किसी विशेष वर्ग को उनके नाम में कोई दिलचस्पी नहीं है और उनसे जबरदस्ती राम का नाम बुलवाना हमारी नैतिक जिम्मेदारी है. उस वर्ग विशेष के लोगों को देखते ही हमारे अन्दर का हनुमान जाग उठता है और हम चिल्ला उठते हैं जय श्री राम. कई बार तो राम का नाम लेकर किसी व्यक्ति को सिर्फ इसलिए मार डाला जाता है, क्योंकि हमें लगता है उसने हमारी पूजनीय गौ माता का अपमान किया है. हालांकि जब हम गौ माता को सड़कों पर भूखा-प्यासा मरने के लिए छोड़ देते हैं, तब उनका कोई अपमान नहीं होता. न ही गौ माता के समूह को अपने खेतों से भगाने के लिए उन पर कोड़े-पत्थर बरसाने में उनका कोई अपमान होता है. यहाँ तक कि जंगलों में किसी पेड़ पर उन्हें इस डर से बांध आने में भी कि कहीं वह लौटकर वापस गौशाला में न आ धमके, कोई अपमान नहीं होता है. वास्तव में, हम राम के सच्चे भक्त हैं.
चूंकि, प्राचीन समय से ही भारत में धार्मिक यात्राओं का विशेष महत्व रहा है. हमारे संत समाज द्वारा जन जागृति के लिए समय-समय पर धर्म यात्रा की जाती रही है. तत्समय, दस से बारह संतों का जत्था दूर-दराज के स्थानों में पदयात्रा करके सनातन धर्म की लौ जलाने का प्रयास किया करता था. परन्तु कुछ वर्षों से एक परिवर्तित रूप में धार्मिक रैलियाँ निकालने में हमारी दिलचस्पी खासा बढ़ गई है. ये यात्राएं देश के कोने-कोने में जा लोगों की अर्न्तआत्मा को जगाकर उनका अध्यात्मिक स्तर ऊँचा उठाने के लिए कम अपनी एकता व संख्याबल दिखाने के लिए अधिक होती प्रतीत होती हैं. आखिर अपना भक्ति-भाव दुनिया को दिखाना आवश्यक भी तो है. आप जानते हैं जनाब! जब तक हम गैर राम भक्त बस्तियों से गुजरकर ’जय श्री राम’ के जयकारे से उन बस्तियों के वासिन्दों के श्रद्धाभाव को जगा न दें, क्या यह सम्भव है कि राम हमसे प्रसन्न हो जाए! जब तक वे वासिन्दें राम नाम के रस में डूबकर शिलापुष्प अर्पित न करें, हमारी धार्मिक यात्रा अर्थहीन है. राम भक्ति की ज्योति क्रोध के वशीभूत होकर कैसे जलायी जा सकती है? ये मेरी समझ से परे है.
अब जब स्वामी को प्रसन्न करने के लिए हम इतने दृढ़ संकल्पित हैं तो उनके परम भक्त हनुमान को कैसे भूल सकते है! सड़कों में लम्बी-लम्बी कतारों में बैठकर हनुमान चालिसा पढ़ने का आनन्द ही कुछ और है. अरे! आपको भान भी न होगा, हनुमान जी स्वयं आ जाते हैं हृदय की इस पवित्रता को देखकर. साथ ही इससे एक चीज और अच्छी हुई है, आजकल के आधुनिक माहौल में जहाँ हमारे बच्चे अपने संस्कारों से कोसौं दूर होते जा रहे हैं, वहीं माता-पिता द्वारा अपने बच्चों को हनुमान चालिसा याद कराने पर जोर दिया जाने लगा है. क्या पता कब कहाँ बैठकर गाने की आवश्यकता पड़ जाए?
प्राचीन समय के हमारे चित्रकारों में व्यवहारिक बुद्धि का थोड़ा अभाव था. कैसे शान्त, सौम्य, मृदुल चित्र बना दिया करते थे राम के! चित्रकला का अनुभवजन्य प्रदर्शन तो आजकल के चित्रकारों को आता है. आप स्वयं सोचिए! इतने सौम्य, सरल, शान्त राम कभी ताड़का, खर-दूषण, कुम्भकरण और रावण जैसे बलशालियों को अपने स्थान से हिला भी पाते! इसके लिए तो उनका भीषण क्रोधी स्वभाव का होना आवश्यक है न? तभी तो वे रावण जैसे दशानन का अंत कर पाये होंगे.
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हनुमान जी के चित्रों की तो बात ही क्या करें! उन्हें तो देखकर ही अब शत्रु हार मान लें. एक राज की बात बताऊँ? कई बार तो मैं स्वयं गाड़ियों के पीछे लगे उनके चित्रों को देख डर जाती हूँ. पता नहीं क्यों, मैं इन चित्रों में छिपे सात्विकता के भाव को क्यों नहीं देख पाती? इसके अतिरिक्त एक चीज और जो मुझे बड़ी आश्चर्यचकित करती है! आजकल की रामलीलाओं में कलाकारों का अभिनय समाज को कैसे मंत्रमुग्ध कर देता है? रामलीला आयोजक की पूरी एकाग्रता इस विषय पर होती है कि राम का पात्र आकर्षक हो न हो, सूर्पनखा का पात्र अवश्य आकर्षक होना चाहिए. अब धनुष यज्ञ देखने के लिए लोग आतुर नहीं रहते, वरन् सूर्पनखा के अभिनय, उसके कामुक नृत्य को देखने के लिए भीड़ उमड़ती है. ऐसे में सूर्पनखा का पात्र आकर्षक और नृत्य करने में पारंगत होना ही चाहिए. क्या ऐसा होना स्वाभाविक नहीं है, जिस पात्र के प्रति आकर्षण, उसी के अनुरूप आचरण! क्या हमें अपना आत्म-मंथन नहीं करना चाहिए कि हमारी सोच, हमारी पसन्द और हमारा समाज किस ओर जा रहे हैं?
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बचपन में देखी हुई रामलीलाओं और रामानन्द सागर की रामायण ने मेरे मन-मस्तिष्क पर कुछ ऐसा प्रभाव डाला था कि कुछ समय पूर्व भगवान राम को जो मैंने समझा उस पर सहज ही कुछ पंक्तियाँ मेरी कलम से कागज पर उतर आई-
दो अक्षर का नाम राम है, निश्च्छल पावन धाम राम है.
राह दिखाते, स्नेह जताते, व्यथित हृदय को सुख पहुँचाते.
राम पिता है, मात राम है, बन्धु, सखा और भ्रात राम है… दो अक्षर…
वर्षा की बूंदों से सिंचित, प्रकृति के कण-कण में अलंकृत.
वृष्टि राम है, सृष्टि राम है, प्रेममयी इक दृष्टि राम है.. दो अक्षर…
बालक का निष्पाप कर्म है, वृद्धों के अनुभव का मर्म है.
जीवन का आधार राम है, तीन लोक का सार राम है.. दो अक्षर…
बन फकीर धरती पर डोले, ज्ञान चक्षु जन-जन के खोले.
सिद्धजनों के मन में राम है, फूल-पात, कण-कण में राम है… दो अक्षर…
पुलकित मन में सदा विचरते, दीनों के कष्टों को हरते.
धरती राम, आकाश राम है, आती-जाती स्वांस राम है.. दो अक्षर…
जाति-धर्म का भेद न जाने, प्रेम के मधुर भाव पहचाने.
रूप राम है, रंग राम है, सरल हृदय के संग राम है…
दो अक्षर का नाम राम है, निश्च्छल पावन धाम राम है.
परन्तु अब समाज का मन्थन करने पर लगता है, कि मैं राम के रंग में नही रंग पायी या आज के समाज के? क्यों मुझे ये सारे प्रश्न बार-बार व्यथित करते हैं?
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समाज के उच्च चारित्रिक विकास के लिए क्या यह हमारी सरकारों की नैतिक जिम्मेदारी नहीं है कि भारतीय शिक्षा नीति में राम और हनुमान के सच्चे चरित्र को स्थान दिया जाए? भले ही आप मत मानिए उन्हें भारतीय इतिहास का हिस्सा, परन्तु जब हमारे पाठ्यक्रम में शेक्सपीयर को स्थान मिल सकता है तो राम और हनुमान को क्यों नहीं? माना कि अतिरिक्त पाठ्यक्रम के रूप में रामायण और महाभारत की पुस्तकें कुछ कक्षाओं में लगाई गई हैं, परन्तु उन्हें मुख्य पाठ्यक्रम में क्यों नहीं जोड़ा गया? परीक्षाओं में उनसे सम्बन्धित प्रश्न क्यों नहीं पूछे जाते? उक्त स्थिति के कारण उन्हें पढ़ने में न तो विद्यार्थियों की रुचि होती है न ही पढ़ाने में शिक्षकों की. हमारे बच्चों में आध्यात्मिक ज्ञान का अभाव क्यों है? श्रीमद् भागवत गीता, जो विश्व के सर्वोच्च आध्यात्मिक ज्ञान का भण्डार है, वह हमारे बच्चों को अनिवार्य रूप से क्यों नहीं पढ़ाया जाता? भारत जैसे आध्यात्मिक देश में आत्महत्याओं का आंकड़ा इतना बड़ा क्यों है? क्या देश को मात्र आर्थिक और तकनीकी विकास की ही आवश्यकता है! नैतिक विकास की नहीं?
मैं प्रतीक्षारत हूँ, क्या मेरी इन जिज्ञासाओं का निदान कभी हो सकेगा? (Ram Worshipper Ideal)
मूल रूप से मासी, चौखुटिया की रहने वाली भावना जुयाल हाल-फिलहाल राजकीय इंटर कॉलेज, पटलगाँव में राजनीति विज्ञान की प्रवक्ता हैं और कुमाऊँ विश्वविद्यालय से इतिहास की शोध छात्रा भी.
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