अपनी जिंदगी के किसी पुराने टुकड़े को एकदम जीवंत रूप में देखना कितना रोमांचकारी होता है, इसका अहसास मुझे कुछ ही देर पहले तब हुआ जब मुझे पुराने किताबों के ढेर में ‘नई कहानियाँ’ का जनवरी, 1969 अंक मिला. (Batrohi Remembers Premchand and Amrit Rai)
मैं दो साल पहले ही 1966 में अपने शोधकार्य के सिलसिले में इलाहाबाद पहुँचा था. सिर पर अजीब जूनून सवार था… इलाहाबाद विश्वविद्यालय से रिसर्च करनी है. एक शोधछात्र के लिए जरूरी पात्रता मुझमें नहीं थी. मामूली द्वितीय श्रेणी में नैनीताल के सरकारी डिग्री कॉलेज से एमए था. हाईस्कूल, इंटर और बीए में भी बहुत ख़राब नम्बर थे, इतने कम कि उन नंबरों से मैं किसी माध्यमिक स्कूल में भी अध्यापक नहीं बन सकता था. मित्रों ने ही नहीं, नैनीताल के मेरे विभागाध्यक्ष डॉ. पुत्तूलाल शुक्ल ने मुझे इस यथार्थ से बार-बार अवगत कराया था; मगर सभी को मैं जवाब देता, “मुझे अध्यापकी नहीं करनी है, डीफिल करके मैं अध्यापक तो कतई नहीं बनूँगा, मैं रिसर्च करना चाहता हूँ.” उन दिनों भी यह तर्क मेरे अलावा और किसी की समझ में नहीं आया था. (Batrohi Remembers Premchand and Amrit Rai)
जून, 1966 को एक लू भरी सुबह जब मैं प्रयाग स्टेशन पहुँचा, कुछ देर के लिए तो मैं खुद भी उलझन में पड़ गया था. कहाँ जा रहा हूँ मैं? सारी जिंदगी नैनीताल में बिताई थी, घर से बाहर पहली बार निकला था, और घर भी तो ऐसा नहीं था, जिसे मैं छोड़कर आया था. नैनीताल में मेरी बुआ रहती थी और मेरी माँ की मृत्यु के बाद पिताजी मुझे वहां छोड़ गए थे कि लड़का स्कूल जाएगा तो ठीक है, वरना घर का काम-काज करके सहारा तो बन ही जाएगा. बुआ कम उम्र की विधवा थीं, उन्हें शायद मेरे जैसे सहारे की जरूरत भी थी. पिताजी गाँव में खुद भी अकेले थे, जहाँ शायद उन्हें भी सहारे की जरूरत थी. मगर मेरी चिंता के विषय न पिताजी थे, न बुआ… मैं खुद भी नहीं जानता था कि मैं गाँव से शहर क्यों आया हूँ, मुझे क्या करना है? गाँव लौटते हुए न पिताजी ने मुझसे कुछ कहा था, न बुआ ने कुछ बताया. ऐसा लगा कि एक ने अपने सिर से बला टाली थी और दूसरे के मैं गले पड़ गया था. पढाई-लिखाई, ज्ञान-विज्ञान, शब्द-अर्थ वगैरह के बारे में भी मैं कुछ नहीं जानता था. मानो मैं छोटे आकार की बच्चों की फुटबौल था, जिसे कोई छोटा बच्चा बिना बॉल की ओर देखे ठोकर मारता जा रहा हो.
वह जमाना ऐसा भी नहीं था कि बिना इम्तिहान दिए ही बच्चों को पास कर दिया जाता हो, अध्यापक लोग विद्यार्थियों का संस्कार बनाने में जी-तोड़ मेहनत करते थे, मुझे भी कुछ ऐसे अध्यापक मिले जिनकी कोशिश से शायद मुझमे रचनात्मक संस्कार जगे और मैं, कम नंबरों से ही सही, पास होता चला गया और मैंने 1966 में हिंदी से एमए कर लिया.
उन दिनों इलाहाबाद विश्वविद्यालय पूरब का केम्ब्रिज कहलाता था. नैनीताल कॉलेज तो छोड़ो, किसी दूसरी यूनिवर्सिटी के सेकेंड क्लास वाले विद्यार्थी के लिए भी वहां रिसर्च का सपना देखना दिवास्वप्न माना जाता था. वैसे, मैं रिसर्च के लिए इलाहाबाद के लिए नकला भी नहीं था. उन दिनों ‘धर्मयुग’ साप्ताहिक में मशहूर कथाकार-विचारक डॉ. शिवप्रसाद सिंह की अस्तित्ववाद पर एक विचारोत्तेजक लेखमाला छप रही थी, जिसे लेकर मेरा उनसे लम्बा पत्राचार हुआ. उसी दौरान मैंने उन्हें लिखा कि क्या मैं उनके निर्देशन में शोधकार्य कर सकता हूँ? उन्होंने अपनी सहमति ही नहीं दी, यह भरोसा भी दिलवाया कि वो आर्थिक मदद भी दिलवा देंगे.
इसी क्रम में मैं नैनीताल से बनारस के लिए निकला था; काठगोदाम में दिमाग में आया कि इलाहाबाद में अपने प्रिय लेखक शैलेश मटियानी जी जे मुलाकात करता चलूँ. आज की तरह का रेलवे आरक्षण नहीं होता था, इसलिए लखनऊ से बनारस के बदले प्रतापगढ़ का टिकट लिया और वहां से फाफामऊ होते हुए एक लू भरी सुबह प्रयाग स्टेशन पहुँच गया. मटियानी जी के घर भारद्वाज आश्रम में पहुँचा तो एक कमरे के हॉलनुमा कमरे में भाभीजी एक शिशु के साथ अधलेटी थीं, जिसका जन्म चार दिन पहले ही अस्पताल में हुआ था और थोड़ी देर पहले वो अस्पताल से रिलीव होकर आई थीं.
यह एक लम्बा किस्सा है, जब बच्चे की किलकारी वाली फुटबाल किक की तरह मैं इलाहाबाद में ही रुक गया और मेरा शोध पंजीकरण उस दौर के बेहद संजीदा और विद्वान प्राध्यापक डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी के निर्देशन में हो गया. मटियानी जी की आर्थिक हालत खुद अच्छी नहीं थी, ऊपर से मेरी जिम्मेदारी. मेरे पास भी उनके पास रहने के अलावा दूसरा कोई विकल्प नहीं था, इसलिए उनके साथ ही रहा. मटियानी जी शुरू से ही रहने और खाने-पीने के मामले में कोई समझौता नहीं करते थे; चाहे उधार लेकर ही सही, बच्चों की इच्छाएँ पूरी करते थे. उन्हीं दिनों हम दोनों ने मिलकर आजीविका के साधन के रूप में ‘विकल्प’ अर्धवार्षिक पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया जिसका पहला अंक वर्ष 1967 के आखिरी महीनों में निकला.
इसके बावजूद मेरी आजीविका की समस्या ज्यों-की-त्यों थी. उन दिनों उपन्यासकार इलाचंद्र जोशी आकाशवाणी के प्रयाग केंद्र में प्रोड्यूसर थे, जिनके कारण यदा-कदा वहां काम मिल जाता, इलाहाबाद मुद्रण का बड़ा केंद्र होने के कारण प्रूफ रीडिंग भी कमाई का एक साधन था, लेकिन प्रोफेशनल लोगों की तरह इसे भी आजीविका का साधन नहीं बनाया जा सकता था.
इसी क्रम में मेरा परिचय हुआ मशहूर हिंदी कथा-पत्रिका ‘नई कहानियाँ’ और उसके जनवरी, 1969 अंक में प्रकाशित अशोक कंडवाल की कहानी ‘तिनकों का सुख’ से. अशोक कंडवाल की कहानी के साथ परिचय तो महज संयोग था, मगर ‘नई कहानियाँ’ के संपादक अमृत राय जी के साथ परिचय ने तो मेरी जन्दगी का रुख ही बदल दिया. रुख ही नहीं बदला, जिंदगी में स्थिरता ही ला दी. इस परिचय की बदौलत मैं अपने लिए असंभव कार्य-क्षेत्र प्राध्यापकी को अपना सका और न सिर्फ अपने देश में, विदेशों में भी एक अध्यापक के रूप में लोकप्रियता हासिल कर सका.
बच्चों की किलकारी-किक की तरह 1967 में मैंने एक कहानी लिखी ‘माध्यम’. उन्हीं दिनों अमृत राय जी के छोटे बेटे की एक दुर्धटना में मृत्यु हुई थी, जिसके सदमे से वो उबर नहीं पा रहे थे. खुद को व्यस्त रखने या साहित्य की दुनिया में अधिक गहरे डूबने के लिए अमृत राय जी ने राजकमल प्रकाशन से ‘नई कहानियाँ’ के अधिकार खरीद लिए थे. बड़ी तेजी से वह मासिक ‘नई कहानियाँ’ को एक उत्कृष्ट साहित्यिक पत्रिका के रूप में स्थापित करने के लिए दिन-रात मेहनत करने लगे थे. पहले अंक के लिए वह इलाहाबाद के लेखकों से भी कहानियों की मांग कर रहे थे. मैं भी एक दिन अशोक नगर के उनके आवास में जाकर अपनी कहानी ‘माध्यम’ उन्हें दे आया. (नई पीढ़ी के पाठकों की जानकारी के लिए बता दें, अमृत राय उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद के छोटे बेटे थे.)
मेरे लिए यह बच्चों की किलकारी-शॉट की तरह का ही संयोग था कि मेरी इस कहानी को पढ़कर अमृत राय जी के अन्दर इतने दिनों तक ठहरा हुआ बांध मानो टूटा था, और मालूम हुआ कि अरसे बाद उनके रुके हुए आंसू बाहर निकल आये थे. मुझे ये बातें तब मालूम हुई जब मैंने देखा कि ‘नई कहानियाँ’ के प्रवेशांक में पहली कहानी के रूप में मुझ जैसे एकदम नए लेखक की कहानी छपी थी. उसके बाद मेरी निकटता अमृत राय जी के साथ बढ़ती गयी और जब मैंने उन्हें अपनी आर्थिक परेशानी के बारे में बताया तो उन्होंने मुझे तत्काल ‘नई कहानियाँ’ का सहायक संपादक नियुक्त कर लिया. यही नहीं, साल भर के बाद उन्होंने मुझे अपना फील्ड वर्क करने के लिए नागरी प्रचारिणी सभा में भेजा और रहने के लिए गोदोलिया स्थित अपने पुश्तैनी घर की चाभी दी. इसी घर से प्रेमचंद जी ने ‘हंस’ पत्रिका निकाली थी और बनारस सहित भारत के सभी बड़े रचनाकार एकत्र होकर साहित्यिक चर्चाएँ करते थे. उन दिनों मैं अकेले ही उस घर में रहता था. कल्पना कीजिये, उस कुर्सी में बैठना मुझे कैसा लगा होगा, जिसमें बैठकर हिंदी के कालजयी कथाकार प्रेमचंद जी ने अमर उपन्यास लिखे. करीब छह-सात महीनों तक मैं वहां रहा.
‘नई कहानियाँ’ ज्वाइन करने के बाद मैंने कई योजनाएँ बनाई, जिनमें से एक महत्वपूर्ण स्तम्भ ‘कथा नगर’ था. इसके अंतर्गत हम देश भर के प्रमुख शहरों के बारे में उसी शहर के किसी प्रतिष्ठित कथाकार से लिखवाते थे. स्तम्भ की शुरुआत मैंने ही इलाहाबाद पर ‘प्रश्नों से घिरा : एक ठहरा हुआ शहर’ फीचर से की. यह स्तम्भ बेहद लोकप्रिय हुआ और इसे हिंदी के शीर्षस्थ कथाकारों ने लिखा.
जनवरी 1969 अंक में, जिस महीने यह लेखमाला आरम्भ हुई, अशोक कंडवाल की एक कहानी ‘तिनकों का सुख’ मैंने प्रकाशित की जो एक प्यारी-सी प्रेम कहानी है और पाठकों को एक पहाड़ी हिल-स्टेशन के परिवेश में लेजाकर मानवीय रिश्तों की बड़ी अनुगूंज कराती है.
अशोक कंडवाल आज अस्सी वर्ष के बुजुर्ग लेखक हैं, मगर उन दिनों वह तीस वर्ष के युवा लेखक थे. उनके परिचय में तब मैंने लिखा था, “अशोक कंडवाल/ जन्म 1939 किमसार (गढ़वाल). देहरादून में शिक्षा. विगत दस वर्षों से बीस-पच्चीस कहानियाँ प्रकाशित. सम्प्रति भारत सरकार के तेल एवं गैस आयोग से सम्बद्ध. आज पचास साल के बाद उम्र के इस पड़ाव पर (जब कि मैं भी चौहत्तर वर्ष का हूँ) उनके साथ आत्मीय मुलाकात होने से मुझे कितनी ख़ुशी हो रही होगी, इसका अंदाज सहज ही लगाया जा सकता है.
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लक्ष्मण सिह बिष्ट ‘बटरोही‘ हिन्दी के जाने-माने उपन्यासकार-कहानीकार हैं. कुमाऊँ विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष रह चुके बटरोही रामगढ़ स्थित महादेवी वर्मा सृजन पीठ के संस्थापक और भूतपूर्व निदेशक हैं. उनकी मुख्य कृतियों में ‘थोकदार किसी की नहीं सुनता’ ‘सड़क का भूगोल, ‘अनाथ मुहल्ले के ठुल दा’ और ‘महर ठाकुरों का गांव’ शामिल हैं. काफल ट्री में नियमित कॉलम.
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Bahut achcha
लगन हमे कहाँ से कहाँ पहुंच देती है और हमे आगे बढाने वाले लोग भी कैसे खुद ब खुद मिलते जाते हैं । वाकई प्रेमचंद की कुर्सी पर बैठते हुए हजार बार लाखो ख्याल आये होंगे ..