बटरोही

रियासत के गधेरे में सौ साल पुराने जिन्न का पुनर्जन्म

करीब एक पखवाड़े पहले मेरे गाँव के नौजवानों ने व्हाट्सएप्प पर एक ग्रुप शुरू किया, ‘छानागाँव की रियासत’. इसमें नयी उमर के लड़के भी शामिल थे, इसलिए शीर्षक देखकर ही मैं स्वाभाविक रूप से एक सदी पहले के नौस्टाल्जिया में लौटकर उसमें शामिल हो गया. मगर शुरुआती दो-चार पोस्टें देखने के बाद वहां कुछ और ही नज़र आया. गाँव के बच्चे, खेत-पहाड़ और गाँव-घरों की तस्वीर तो एक भी नहीं दिखाई दी, अलबत्ता शुरुआती दिनों में ही जिन दो वीडियो फिल्मों को महत्व देकर दिखाया गया था, वे थे, ‘पहाड़ी’ कवि प्रसून जोशी द्वारा प्रधानमंत्री मोदी का लिया गया लम्बा इंटरव्यू और किसी एक भांड की कथित कविता, जिसमें मुसलमानों के खिलाफ जी भर कर जहर उगला गया था और बार-बार यह बात दुहरायी गई थी कि लाख बार धोखा दे चुके दुश्मन की बात पर भले ही आप भरोसा कर लें, एक मुसलमान की बात पर कभी भरोसा न करें.
(Batrohi Article September 2021)

देश भर में जबरदस्त हिट इन दोनों फिल्मों पर कुछ भी टिप्पणी करने से मैं कतरा सकता था, दूसरे ही पल खयाल आया कि हमारे गाँव में ही नहीं, दूर-दूर तक भी हमारे इलाके में कोई मुसलमान परिवार नहीं था. तब यह भांड किसे संबोधित करके चिल्ला रहा था और किसे सुनाने के लिए हमारे गाँव के बच्चे उस बकवास को सुन रहे थे? यहाँ पर यह इशारा भी जरूरी है कि जब वह भांड चिल्ला रहा था, पृष्ठभूमि में केसरिया पगड़ी बांधे हमारी रियासत का योगी-सम्राट आशीर्वाद की मुद्रा में खड़ा था. यह कहानी आज मेरे गाँव की ही नहीं, घर-घर की कहानी है.

पुराना जिन्न: हमारे हलिये का बूबू घुसी राम उर्फ़ घुसिया, निवासी छाना खरकोटा; नया जिन्न: हमारा बूबू कुमाऊँ विश्वविद्यालय का पहला कुलपति डॉ. देवीदत्त पन्त, डी. एससी.

मेरे देखते-देखते एक सदी के बाद भी गाँव का भूगोल ज्यादा नहीं बदला है. इलाके की खास नदी पनार किनारे बसे गाँव के ऊपरी शिखर पर कुलदेवता का निवास है जिसे आज भी ग्वाल्दे-कोट यानी गोल्ल देवता का किला पुकारा जाता है. गाँव में सभी घर जिमदारों यानी खेतिहर किसानों के हैं और उनके ठीक बीच में दो-एक ब्राह्मण पुरोहितों के घर. ऐसा तो नहीं है कि इन परिवारों की संख्या में बढ़ोत्तरी नहीं हुई होगी, मगर आज भी ब्राह्मणों-राजपूतों की आबादी का यह अनुपात बिलकुल बदला नहीं है. हो सकता है, इसके पीछे सवर्णों का पलायन जिम्मेदार रहा हो, मगर सवर्णों के अनुपात में शिल्पकारों का पलायन नहीं बढ़ा है.

शिल्पकारों की बस्ती छाना खरकोटा गाँव के दक्षिणी छोर पर नदी किनारे एक बीहड़ पर बसी हुई है, जिसकी बगल से एक बरसाती गधेरा सदियों से बहता आ रहा है. आबादी के विस्तार के साथ इस गाँव की भौगोलिक सीमा का विस्तार नदी किनारे की ओर बढ़ता चला गया है, यही नहीं, अंबेडकर ग्राम योजना के अंतर्गत इन दिनों हमारा गाँव भी, छाना खरकोटा नाम से सरकारी बहियों में आ गया है. हमारे पुरखों के ज़माने से ही हलवाहे और दूसरे शिल्पकार इसी गाँव में रहते थे और जब भी किसी कामगार को नीचे गधेरे से गाँव में बुलाना होता था, एक ऊंचे टीले पर से उसे आवाज़ दी जाती थी, ‘घुसिया ऊss’ जिसके जवाब में तत्काल आवाज लौटती थी, ऊss और कुछ ही समय बाद हलिया घुसी राम हमारे आँगन में हाजिर हो जाता था. मुझे याद नहीं है कि हमारे हलवाहे के बाप-दादाओं का नाम क्या था, मगर हमें अपने हलवाहे का नाम, बाप-दादाओं समेत घुसिया ही बताया गया था, मानो वही हमारे हलवाहे का ट्रेडमार्क था. बाद के वक़्त में मामला थोड़ा इस रूप में उलझ गया था कि कुछ जिमदारों के लड़कों ने हल की मूंठ पकड़ ली थी या लोगों ने अपने पैतृक पेशे बदल दिए थे. ऐसे में आने वाले वक़्त में एक दिन हमारे पुरखों को जिन्न ही बनना था, जैसे खरकोटे वालों के घुसी राम बूबू और हमारी प्रोफ़ेसर विरादरी के आज के बूबू डॉ. देवीदत्त पन्त, डी. एससी, प्रथम कुलपति कुमाऊँ विश्वविद्यालय, नैनीताल.
(Batrohi Article September 2021)

जिन्न और बूबू का आपस में कायाकल्प

प्रोफ़ेसर पन्त का मेरी जिंदगी में आना बूबू जैसा ही था. मैं बहुत मामूली पढ़ा-लिखा नौजवान था, गाँव से निकला, जिसे ठीक से अंगरेजी बोलना भी नहीं आता था. एक मशहूर पत्रिका के लिए मैंने उनका इंटरव्यू लिया और उसे पढ़कर वो इतने खुश हुए कि मेरे सहपाठियों के सामने मेरी सर्जनात्मक प्रतिभा की मिसाल देने लगे. बात यहीं तक होती तो शायद कोई बात नहीं थी, मेरी नियुक्ति को लेकर जब नैनीताल शहर से लेकर उत्तर प्रदेश विधान सभा तक सवाल उठे तो मेरी योग्यताओं को ध्यान में रखते हुए उन्होंने यूजीसी के चेयरमैन डीएस कोठारी के साथ मिलकर बी+ योग्यता को नए सिरे से परिभाषित किया और मेरी नियुक्ति को मान्यता प्रदान की. मेरे इस बूबू ने यह न किया होता तो मैं निश्चय ही आज उच्च-शिक्षा के क्षेत्र में न होता. मगर इस कहानी का एक छूट गया पहलू है जो घुसी बूबू और हमारे कुलपति बूबू को अगल-बगल एक ही लाइन में खड़ा करता है.

बच्चों के तमाम घालमेल और एक-दूसरे के घरों में धुसे रहने के बावजूद हम लोग सार्वजनिक रूप से वर्जना के नियमों का पालन करते थे. खेलते भले ही एक-दूसरे के गले में बाहें डालकर, मगर घर की देहरी में घुसते ही अपनी अलग वर्णवादी पहचान बना लेते थे. लेकिन उस बार मेरी खुद भी समझ में नहीं आया था जब मैंने लम्बी चढ़ाई चढ़ने के बाद अपने हलवाहे घुसी बूबू से पानी माँगा था, जाने क्यों उस दिन उन्होंने मना कर दिया था. उस उम्र में इस पहेली का आशय समझ में नहीं ही आना था और हम दोनों के बीच, यानी मेरे और घुसी बूबू के बीच एक अजीब भावुकतापूर्ण बहस शुरू हो गई थी. पानी मैंने झपटकर पी लिया था क्योंकि प्यास का कोई विकल्प नहीं था, लेकिन वह जिज्ञासा तब भी हम दोनों के बीच अनुत्तरित रह गई थी.

अपने कुलपति बूबू के साथ भी ऐसी ही एक अनुत्तरित जिज्ञासा शेष रह गई थी. मेरी पदोन्नति विभाग के ऐसे पद पर हो गई थी, जिस पर मेरे वरिष्ठ सहयोगी डॉ. केशवदत्त रुवाली अपना अधिकार समझते थे. कुलपति बदल चुके थे मगर रुवाली को लगता था कि उनके भेदभाव के कारण ही वो आज जूनियर पोजीशन में है. जब भी मौका मिलता था, वो अपनी नाराजगी व्यक्त कर डालते थे. ऐसा ही मौका एक दिन उन्हें मिला जब वो एकांत में कुलपति बूबू को खूब खरी-खोटी सुनाकर खुद को हल्का करने के बाद कमरे से बाहर निकल रहे थे. इस लम्बे वाक-युद्ध के फ़ौरन बाद ही मैं कुलपति बूबू के पास पहुंचा था. उनके चेहरे से खीझ और गुस्सा टपक रहा था, मगर अपने स्वभाव से वह बूबू वाले बड़प्पन से अलग नहीं हो सकते थे, हमेशा की तरह शालीन बने रहे.

कुलपति बूबू ने मुझसे मिलने के बाद न तो रुवाली को लेकर कोई टिप्पणी की और न हमारे विषय को लेकर, जैसा कि अमूमन ऐसे मौकों पर वो करते थे, लगभग अपने शांत अंदाज़ में वो बोले, ‘बटरोही, अभी-अभी रुवाली मुझसे मिलकर बाहर निकला है. गुस्से में जाने क्या-क्या बोलता रहा. हर बार वो अपनी नियुक्ति को लेकर झगड़ा करने लगता है. तुम दोनों एक ही सब्जेक्ट के हो, मगर कितने अलग हो? असल में रुवाली को ठाकुर होना चाहिए था और तुमको पंडित.’ वह कुछ प्रशंसा के-से भाव से मेरी ओर देखने लगे थे.

कुमाऊं विश्वविद्यालय का हिंदी विभाग, 2005 में डाॅ केशवदत्त रुवाली की विदाई के पल. कुर्सी पर बांए से- नीरजा टंडन, मधु नयाल, शेर सिंह बिष्ट, बटरोही, रुवाली, पोखरिया, उमा भट्ट, बीके सिंह, (पीछे) दिवा भट्ट, जगत सिंह, प्रीति आर्या और चंद्रकला रावत. फोटो सौजन्य : दिवा भट्ट

उस बार मैं अपने कुलपति बूबू को भी कोई उत्तर नहीं दे पाया था, जैसे घुसी गधेरे के घुसी बूबू की उस जिज्ञासा का उस दिन उत्तर नहीं खोज पाया था. ऐसे जाने कितने सवाल हमारे मन में अनुत्तरित रह जाते हैं जिनके उत्तर समय रहते हम नहीं खोज पाते. बूबुओं के सवाल अनुभव-जनित तो होते ही हैं, जिनके उत्तर शायद उस उम्र को पार करने के बाद ही मिल पाते हैं; हालाँकि विश्वास के साथ कह नहीं सकता कि मुझे इस उम्र में, जब मैं खुद बूबू बन चुका हूँ, जिज्ञासा का जवाब मुझे मिल ही गया है, बावजूद इसके कि दोनों बूबू आज जिन्न बन चुके हैं. कहते हैं जिन्न बन जाने के बाद वह सब कुछ कर सकता है, हर असंभव को संभव.

हमारा गाँव अम्बेडकर गाँव बन कर अपना नाम बदल चुका है, इन नामों के बदलने के बाद जातियों के संज्ञा-नाम भी कभी बदलेंगे, यह उम्मीद हमें करनी चाहिए. वे नाम और हमारी संज्ञाएँ किस रूप में बदलेंगी, यह अभी भी इतिहास की गर्त में छिपा हुआ है. शायद इतिहास ही उनके उत्तर दे. निश्चय ही वह हमारा वर्तमान होगा.
(Batrohi Article September 2021)

लक्ष्मण सिह बिष्ट ‘बटरोही‘

फ़ोटो: मृगेश पाण्डे

 हिन्दी के जाने-माने उपन्यासकार-कहानीकार हैं. कुमाऊँ विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष रह चुके बटरोही रामगढ़ स्थित महादेवी वर्मा सृजन पीठ के संस्थापक और भूतपूर्व निदेशक हैं. उनकी मुख्य कृतियों में ‘थोकदार किसी की नहीं सुनता’ ‘सड़क का भूगोल, ‘अनाथ मुहल्ले के ठुल दा’ और ‘महर ठाकुरों का गांव’ शामिल हैं. काफल ट्री के लिए नियमित लेखन. 

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इसे भी पढ़ें: ‘रिक्त स्थान और अन्य कविताएँ’ की समीक्षा: लक्ष्मण सिंह बिष्ट ‘बटरोही’

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  • प्रस्तुत आलेख का प्रारंभ जहाँ तत्कालीन युवाओं की मनोदशा के वर्णन से होता है , वही अन्त साहित्य और हिंदी विभाग के वर्णन से । घटनाओं का लेखन रोचक शैली में किया गया है , लेख के बीच में लगाई गई फ़ोटो हिंदी विभाग के लिए किसी धरोहर से कम नही है । बटरोही है हमारे विभाग के वरिष्ठ प्रोफेसर व विभागाध्यक्ष रहे है साथ ही मेरे शोध विषय ( शैलेश मटियानी ) के ना सिर्फ विशेषज्ञ है अपितु उन्हें मटियानी जी के साथ 2 वर्ष रहने का अवसर भी प्राप्त हुआ है । ऐसे विद्वान व मृदुभाषी महोदय को मेरा प्रणाम !
    अरविन्द कुमार मौर्य - 9936453665
    हिंदी विभाग , DSB परिसर , कुमाऊँ विश्वविद्यालय

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