शहरों में हम अपना लैपटॉप बैग पीठ में लगाकर सुबह ही ऑफिस को निकलते हैं तो पहाड़ों में महिलायें पीठ में डोका लगाकर सुबह ही जंगल या खेतों को निकल लेती हैं. डोका जो पहाड़ की हर महिला के श्रम का साथी है अब उत्तराखंड के बड़े पर्यटक शहरों में कूड़ेदान के रूप में प्रयोग लाया जा रहा है.
खैर रिंगाल से बना डोका सामान्यतः बनाया तो पुरुषों द्वारा जाता है लेकिन जीवन भर साथ देता है महिलाओं का. डोका एक प्रकार की गहरी और लम्बी टोकरी है जिसे घास, लकड़ी, गोबर आदि एक स्थान से दूसरे स्थान ले जाने के काम में लाया जाता है.
डोका को पहाड़ के कुछ हिस्सों में डोक्का या ड्वाक भी कहा जाता है. कुमाऊं और गढ़वाल के डोकों में बनावट का फर्क है. कुमाऊं में डोका रिंगाल की महीन बुनाई के साथ बनाया जाता है जबकि गढ़वाल में डोके बड़े छेद वाले होते हैं.
यही कारण है कि कुमाऊं में डोकों का प्रयोग गोबर फेंकने और अस्थायी रूप से अनाज रखने के लिये भी किया जाता है जो गढ़वाल के डोकों के साथ संभव नहीं है.
डोके के मुंह का आकार चौड़ा होता है जो नीचे की ओर कम होता जाता है. आकर के लिहाज से डोका अर्द्ध शंकुवाकार होता है.
नये डोके जिनका प्रयोग अभी न किया जा रहा हो उनमें छोटे-छोटे बच्चों को सुलाया भी जाता था. डोका पीठ पर रस्सी से बांधा जाता है. रस्सी को डोके के निचले हिस्से में फंसा कर, रस्सी का अगला हिस्सा सिर पर लगाया जाता है.
एक समय में जब लम्बी दूरी की पैदल यात्राएं करनी होती थी तो बाजारों से सामान इन्हीं डोकों में लाया जाता था. कई सारे लोग तो जब बेटी को भिटोई देने जाते तो डोका भरकर उसके लिए खूब सामान ले जाते.
पहाड़ की महिलाओं को उनकी सास शादी के हफ्ते भर में ही डोका पकड़ा देती है और फिर उसके जीवन भर के सुख दुःख का साथी बनता है डोका. जिसमें हर सुबह वह अपने लिए दिन का भोजन ले जाती है और वापस लाती है अपना श्रम.
-काफल ट्री डेस्क
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